राजनीतिक ‘महत्वाकांक्षा’ ने ‘आप’ की छवि को ‘बौना’ कर दिया… अब आगे क्या?
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सुरेश महापात्र।
2012 में आरएसएस—भाजपा के गर्भनाल से उपजे अन्ना आंदोलन के सह नेतृत्वकर्ता अरविंद केजरीवाल ने भ्रष्टाचार के खिलाफ रामलीला के मैदान में चल रही लड़ाई को राजनीतिक शक्ति की दिशा में मोड़ दिया। यहां से जन लोकपाल को लेकर अनशन कर रहे अन्ना हजारे और अन्ना आंदोलन के सह नेतृत्वकर्ता अरविंद केजरीवाल की दिशा अलग—अलग हो गई। इस तरह से आम आदमी पार्टी का जन्म हुआ। अन्ना हजारे ने आंदोलन के बाद इसके राजनीतिक उपयोग का शुरू से ही विरोध किया था।
बावजूद इसके इस आंदोलन से जुड़े कई सहयोगियों को यह लगता था कि यदि हिंदुस्तान में भ्रष्टाचार को जड़ से समाप्त करना है तो इसके लिए राजनीति के केंद्र में आना ही होगा।
ऐसा इसलिए भी था क्योंकि तब यूपीए के दूसरे कार्यकाल में अन्ना आंदोलन के दौरान कांग्रेस के आला नेताओं के बयान यही दुहराते थे कि यदि आपको सड़क से सिस्टम बदलना है तो यह असंभव है। इसके लिए बेहतर होगा कि आप जनता के समर्थन से संसद और विधानसभा में पहुंचे और सिस्टम बनाएं।
शायद यही वजह रही कि अन्ना आंदोलन के दौरान जनलोकपाल कानून को लेकर रामलीला मैदान से लेकर संसद तक संवाद के कई दौर चले और यूपीए की सरकार का कार्यकाल समाप्त हो गया। हिंदुस्तान की राजनीतिक फिजां में कांग्रेस के लिए जहरीली हवा तैयार हो गई और भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में एक तरफा माहौल तैयार हो गया।
यानी आरएसएस के गर्भनाल से उपजे अन्ना आंदोलन ने भाजपा के लिए एकतरफा राजनीतिक भूमि तैयार करने में सफलता हासिल कर ली। यही वजह थी कि अन्ना आंदोलन के सह नेतृत्वकर्ता अरविंद केजरीवाल के आम आदमी पार्टी के रूप में राजनीतिक विकल्प तैयार करने की योजना को भाजपा ने गंभीरता से नहीं लिया।
इसकी सबसे बड़ी वजह थी कि दिल्ली में लगातार तीन बार से कांग्रेस की सरकार थी। भाजपा ने 1993 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में 49 सीटें यानी दो तिहाई बहुमत हासिल किया था। 5 साल की सरकार में मदन लाल खुराना, साहिब सिंह वर्मा और सुषमा स्वराज मुख्यमंत्री बने थे। 1998 के बाद कांग्रेस ने 15 साल राज किया।
उम्मीद थी कि केंद्र में कांग्रेस की सरकार के चले जाने के बाद दिल्ली में हवा बदलेगी पर ऐसा नहीं हुआ। अब दिल्ली में कांग्रेस के खिलाफ भाजपा के साथ—साथ आम आदमी पार्टी भी जमीन पर खड़ी थी। इसके बाद 2013 से यहां आम आदमी पार्टी की सरकार थी। पहली बार में ही आम आदमी पार्टी को 28 सीटें हासिल हो गईं। पर यह बहुमत का आंकड़ा नहीं था।
कांग्रेस दिल्ली में भाजपा को मौका देना नहीं चाहती थी सो कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी को समर्थन दे दिया और सरकार बन गई। आम आदमी पार्टी के नेता भले ही राजनीति में उतर गए थे पर उन्हें राजनीति आती नहीं थी। उनके सामने कई तरह के मसले थे। पर जैसे ही समझ में आया कि इससे पार्टी का भला होने के बजाय सत्यानाश हो जाएगा। सरकार गिरा दी गई।
फिर 2015 में विधानसभा चुनाव में भाजपा ने पूरी ताकत झोंक दी। दिल्ली से लोकसभा चुनाव में भाजपा को सांसद की सभी सातों सीट पर जीत हासिल हुई पर विधानसभा चुनाव में इस बार आम आदमी पार्टी को एक तरफा बहुमत हासिल हो गया। 32.19 प्रतिशत वोट के साथ भाजपा के केवल तीन ही विधायक जीत सके और 54.34 प्रतिशत वोट के साथ 67 सीटों पर एक तरफा आम आदमी पार्टी को जीत हालिस हुई।
यदि इस चुनाव में भाजपा को विपक्ष की भूमिका मिलती और आम आदमी पार्टी की सरकार को 45 के करीब सीटें हासिल होतीं तो यह आम आदमी पार्टी के भविष्य के लिए सबसे अच्छा होता। पर हुआ इसके बिल्कुल विपरित यही बात भाजपा को साफ लगने लगी कि केंद्र सरकार के अधीन चलने वाली राज्य सरकार में यदि आम आदमी पार्टी ने बेहतर परिणाम देना शुरू किया तो यह कांग्रेस के लिए कम भाजपा के लिए ज्यादा बड़ी समस्या बनने वाली थी।
इसके बाद पिछले चुनाव (2020) के मुकाबले भाजपा का वोट शेयर 9% से ज्यादा बढ़ा। 38.51 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 8 सीटों पर जीत हासिल हुई। वहीं आम आदमी पार्टी का वोट शेयर थोड़ा कम हुआ 53.578 प्रतिशत वोट के साथ 62 सीटों पर जीत मिली। इस समय भी भाजपा के सबसे बड़े चेहरे नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में पूरी ताकत झोंक दी थी। बावजूद इसके दिल्ली वालों को आम आदमी पार्टी का गर्वनेंस मॉडल पसंद आया।
अब केंद्र में भारी बहुमत के साथ सत्तासीन भाजपा ने आम आदमी पार्टी को पूरी गंभीरत के साथ निशाने पर लेना शुरू किया। अरविंद केजरीवाल की ईमानदार छवि और देश में एक नए राजनीतिक विकल्प के लिए माहौल बनता देख ऐसा होना ही था। और राजनीति तो राजनीति है आम आदमी पार्टी के नेताओं को गर्वनेंस का मॉडल तो पता था पर राजनीति की बिसात में खड़ा रहना और खेल पाना अभी सीख ही रहे थे। पार्टी के स्तर पर यहीं से गलतियों का सिलसिला शुरू होने लगा।
दिल्ली में एक तरफा जीत के बाद अरविंद केजरीवाल को पंजाब में मिली जीत ने बौरा दिया। राजनीति ने दंभी बनाना शुरू किया। आस—पास के करीबी मित्र जो अन्ना आंदोलन के समय से केजरीवाल के साथ जुड़े रहे छिटकने लगे। जीत के बाद राज्य सभा के लिए सीटों की रस्साकशी तेज हो गई। करीबी मित्र चाहते थे कि उन्हें राज्य सभा भेजा जाए पर राजनीतिक जरूरत और महात्वाकांक्षा के चलते अपने ही लोगों के निशाने पर केजरीवाल आना शुरू हो गए।
यहीं से भाजपा ने अवसर तलशना और तरशाना शुरू कर दिया। 2020 के चुनाव के बाद पार्टी के भीतर आंतरिक कलह का दौर भी शुरू हुआ और यहां से नेताओं की भाजपा के खेमे में शिफ्टिंग होने लगी। पर सवाल केजरीवाल की ईमानदार छवि का था। जिसे तोड़े बगैर दिल्ली में भाजपा को जीत मिल ही नहीं सकती थी। और शराब घोटाले के आरोप के बाद यही हुआ। आरएसएस की गर्भनाल से उपजे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के सहयोगी अरविंद केजरीवाल पर बिल्कुल उसी पैटर्न पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए जैसा अपनी राजनीति चमकाने के लिए अरविंद केजरीवाल लगाते रहते थे।
बावजूद इसके राजनीति में संभावनाओं और दुर्भावनाओं के समंदर में कौन कब पलटी मारेगा यह तय करना कठिन है। आम आदमी पार्टी की राजनीति के लिए पंजाब से ज्यादा हरियाणा घातक साबित हुई। यहां केजरीवाल को अपने दम पर चुनाव लड़ने का फैसला आत्मघाती साबित हुआ। भाजपा यही चाहती थी कि कैसे भी हो हरियाणा में आमआदमी पार्टी अलग से चुनाव लड़े। यहां इससे कांग्रेस का बना बनाया खेल बिगड़ गया। आआपा को महज 4 प्रतिशत वोट मिले पर इससे भाजपा को संजीवनी मिल गई।
महाराष्ट्र चुनाव से पहले जिस संजीवनी की तलाश में भाजपा लगी थी वह हरियाणा से ही हासिल हुई। हरियाणा के चुनाव ने इंडिया गठबंधन के सारे ताने—बाने को तोड़ दिया। पहले से भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों से घिरे दिल्ली सरकार के राजनीतिक भविष्य के लिए साफ संदेश था। जिसे राजनीति की पाठशाला में माध्यमिक कक्षा के विद्यार्थी अरविंद केजरीवाल समझ नहीं पाए। आम आदमी पार्टी को यह लग रहा था कि दिल्ली में यदि कांग्रेस चार प्रतिशत वोट काट भी लेगी तो भी सरकार तो बन ही जाएगी। यहीं समझ में फेर हो गया।
इस चुनाव में भाजपा के पास सबसे बड़ी चुनौती दिल्ली की जमीन पर संगठन के साथ जमे केजरीवाल को सत्ता से उखाड़ने की थी जो पूरी हो गई कम से कम 15 ऐसे सीट हैं जहां कांग्रेस के कारण आम आदमी पार्टी को पराजित होना पड़ा है यहां तक की अरविंद केजरीवाल भी कांग्रेस के कारण पराजित हुए हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो पूरा परिदृश्य अलग होता।
कांग्रेस को करीब 2 प्रतिशत वोट का पहले से ज्यादा हासिल हुआ। और AAP को करीब 10% का नुकसान हुआ। 43.57 प्रतिशत वोट के साथ 22 सीटों पर जीत हासिल हुई। भाजपा ने 2020 के मुकाबले 8.64 प्रतिशत ज्यादा वोट हासिल किया। 47.15 प्रतिशत वोट शेयर से 48 सीट जीतने में कामयाब रही। कांग्रेस को भले ही एक भी सीट नहीं मिली, लेकिन वोट शेयर 2% बढ़ाने में कामयाब रही। अब समझिए कि दिल्ली में केजरीवाल का गणित अभी भी कायम है।
भाजपा ने दिल्ली में आम आदमी पार्टी के 26 में से 16 किले ढहा दिए हैं। इनमें अरविंद केजरीवाल की नई दिल्ली विधानसभा सीट भी शामिल है। इन 26 सीटों पर AAP लगातार 3 विधानसभा चुनावों से जीत रही थी। भाजपा को सबसे ज्यादा फायदा वेस्ट और नॉर्थ-वेस्ट दिल्ली में हुआ है। 2020 में यहां की 20 सीटों में से भाजपा सिर्फ 1 सीट जीती थी, लेकिन इस बार बढ़कर 16 सीटें जीत गई है। इन इलाकों में पंजाबी, पूर्वांचली और दलित वोटर सबसे ज्यादा हैं। इसके अलावा दिल्ली की सभी 10 जाट बहुल सीटें भाजपा ने जीतीं।
अब सवाल यह उठता है कि दिल्ली की हार के बाद अरविंद केजरीवाल का राजनीतिक भविष्य क्या होगा? क्या असम गण परिषद के संस्थापक प्रफुल्ल कुमार महंत की तरह ही केजरीवाल की पॉलिटिक्स दिल्ली के इर्द—गिर्द सिमटकर खत्म हो जाएगी या आम आदमी पार्टी अब नए सिरे से राजनीति के लिए खुद को तैयार करेगी!
राजनीति में अगर—मगर कभी खत्म नहीं होता। राजनीति में कभी भी कुछ भी संभव हो सकता है। राजनीति दो जिगरी दोस्तों को राजनीतिक दुश्मन बना सकता है। राजनीति में भरोसा नामक तत्व भ्रम मात्र है। राजनीति में असंभव ही संभव है। यह बीते 75 बरस के भारतीय लोकतंत्र का इतिहास रहा है। कांग्रेस को आम आदमी पार्टी से सबसे ज्यादा नुकसान था क्योंकि यदि यह राष्ट्रीय विकल्प बनकर खड़ा होता तो कांग्रेस के हिस्से का ही वोट खाता।
भाजपा के लिए आम आदमी पार्टी इसलिए बड़ी चुनौती बन सकती है क्योंकि कांग्रेस के बाद राष्ट्रीय स्तर पर आम आदमी पार्टी संगठन के तौर पर खड़ा होने की कोशिश में जुटी है। कांग्रेस के बनिस्पद आआपा का संगठन बुनियादी तौर पर नई तरह की सोच यानी गर्वनेंस के मॉडल के साथ खड़ा हो रहा है।
भाजपा को भी पता है कि अब हिंदुस्तान में साम्रदायिक ध्रुवीकरण के जरिए लंबे समय तक राजनीति नहीं की जा सकती ऐसे में गर्वनेंस मॉडल के साथ लोगों के बीच में खड़ा होना जरूरी है। मध्यम वर्ग यानी देश का मिडिल क्लास जिसमें सारे धर्म, जाति और वर्ग के लोग शामिल हैं ऐसे बहुसंख्य वर्ग को लेकर यदि राजनीति आगे की जाएगी तो ही लंबे समय तक सत्ता के केंद्र में रहा जा सकता है।
अरविंद केजरीवाल ने हिंदुस्तान की राजनीति में गर्वनेंस का मॉडल खड़ा किया है आधे अधूरे राज्य में जहां पूरी ताकत नहीं है उस राज्य में केजरीवाल को मौका मिला जिसमें ज्यादा समय आपसी कलह में ही उलझकर रह गया। तमाम विवादों के बाद भी यदि दिल्ली की जनता को कांग्रेस की बजाय आम आदमी पार्टी पर भरोसा है तो कांग्रेस को खुश होना छोड़कर जमीनी स्तर पर संगठन के लिए जुटने का संदेश है। वहीं भाजपा के लिए अभी आआपा के चुनौती टली नहीं है यह ध्यान में रखकर ही काम करना होगा। 2025 में जो परिणाम आया है उसमें साफ संदेश है राजनीतिक ‘महत्वाकांक्षा’ ने ‘आप’ की छवि को ‘बौना’ कर दिया…!