बदल रही है छत्तीसगढ़ की राजनीति
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दिवाकर मुक्तिबोध।
छत्तीसगढ़ की राजनीति में पिछले कुछ समय से जो घटनाक्रम चल रहा है, वह इस बात का संकेत है कि प्रदेश की दो बड़ी राजनीतिक ताकतें आगामी विधानसभा चुनाव के लिए जोरदार युद्धाभ्यास कर रही हैं। उनकी तैयारियां बताती हैं कि तीन महीने बाद होने वाला पांचवां चुनाव यकीनन पिछले चार के मुकाबले अधिक संघर्षपूर्ण और दिलचस्प होगा।
2018 के चुनाव में कांग्रेस ने भारी भरकम विजय पायी थी। उसे अगले चुनाव में भी बरकरार रखना एक बड़ी चुनौती है जिसका दबाव उस पर है। 90 सीटों की विधानसभा में उसने न केवल 68 सीटें जीतकर इतिहास रच दिया था वरन राज्य में पंद्रह वर्षों तक राज करने वाली भारतीय जनता पार्टी का ऐसा सफाया किया कि वह अभी भी दर्द से बिलबिला रही है।
तब सिर्फ पंद्रह सीटों तक सिमटी भाजपा की एक और सीट हाथ से निकल गई जब दंतेवाड़ा उपचुनाव में उसे हार मिली। अभी उसकी वैशाली नगर सीट रिक्त है। यहां से उसके विधायक विद्यारतन भसीन की जून 23 में मृत्यु हो गई। इस तरह अब उसके 13 विधायक है। जबकि कांग्रेस ने पांचों उपचुनाव जीतकर अपने विधायकों की संख्या 68 से 73 कर ली है। इसे 2023 के चुनाव में बनाए रखना और जैसा कि पार्टी का संकल्प है , उसे 75 प्लस तक पहुंचाना हिमालय पर चढ़ने जैसा है। उसकी सारी मशक्कत इस 75 के लिए है।
मजे की बात यह है कि भाजपा भी अपने 13 को 75 बनाने का लक्ष्य लेकर चल रही है। दोनों के टारगेट स्पष्ट है। अंतर केवल इतना ही है कि भाजपा के पास खोने के लिए कुछ नहीं है, उसे पाना ही पाना है अर्थात अगले चुनाव में उसके 14 से और नीचे गिरने की कल्पना नहीं की जा सकती हालांकि राजनीति में कोई भी दावा करना खतरे से खाली नहीं है फिर भी संख्या की दृष्टि से यह उम्मीद नहीं है कि पार्टी और नीचे गिरेगी।
इधर कांग्रेस ने भी भले ही आंकड़ों का लक्ष्य तय कर रखा हो पर उसका पुनः 68 या 73-75 तक पहुंचना मौजूदा परिस्थितियों में लगभग नामुमकिन सा है। हकीकत यह कि कांग्रेस की सारी जद्दोजहद अच्छे बहुमत के साथ अपनी सत्ता कायम रखने में है। इसीलिए हाल ही में दोनों पार्टियों में संगठनात्मक स्तर पर परिवर्तन देखने में आए हैं। चुनाव में दम दिखाने के लिए कुछ फौजदारों को नये पदों के शस्त्रों से लैस किया गया है। दोनों पार्टियों में संगठन के स्तर पर हुए बदलाव कितने कारआमद साबित होंगे यह चुनाव के बाद नतीजों से स्पष्ट हो जाएगा। पर तैयारियां पूरी है।
सबसे पहले कांग्रेस की बात करें तो हाई कमान ने महीने के भीतर प्रदेश पार्टी में अच्छी खासी सर्जरी करके संगठन व सत्ता के बीच पनपे दुराव को करीब-करीब खत्म कर दिया है। काफी समय से असंतोष का जो लावा खदबदा रहा था, उसकीं तपिश काफी हद तक कम हो गई, ऐसा माना जा रहा है। इस सर्जरी में वरिष्ठ मंत्री टी एस सिंहदेव को उप मुख्यमंत्री बना दिया गया तथा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मोहन मरकाम के स्थान पर अपेक्षाकृत युवा आदिवासी चेहरा दीपक बैज को स्थापित किया गया।
2019 के लोकसभा चुनाव में छत्तीसगढ़ की 11 सीटों में से कांग्रेस मात्र दो सीटें जीत पाई थी जिसमें दीपक बैज की बस्तर लोकसभा सीट भी है। निवृत्तमान अध्यक्ष मोहन मरकाम भी आदिवासी समाज से हैं। वे कोंडागांव से विधानसभा के लिए निर्वाचित हुए थे। उन्हें अध्यक्ष पद से हटाकर कैबिनेट मंत्री बना दिया गया है। इस फेरबदल से आदिवासी समाज को इस बात से संतोष होगा कि उसका प्रतिनिधि बदला गया है, हटाया नहीं गया। इसी क्रम में प्रतापपुर सरगुजा संभाग के जाने माने आदिवासी नेता व विधायक डॉक्टर प्रेमसाय सिंह टेकाम को मंत्रिमंडल से हटाया जरूर गया है पर उनकी राजनीतिक प्रतिष्ठा व अनुभव का सम्मान करते हुए उन्हें राज्य योजना आयोग का अध्यक्ष बनाकर कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया गया है।
यानी यहां भी असंतोष के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी गई। इसके अलावा राज्य मंत्रिमंडल में मामूली फेरबदल करके नयी ऊर्जा भरने की कोशिश की गई है। दरअसल पिछले दिनों नयी दिल्ली कांग्रेस मुख्यालय में हाईकमान के नेताओं के साथ कांग्रेस की छत्तीसगढ़ प्रभारी कुमारी शैलजा , मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ,तत्कालीन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मोहन मरकाम, वरिष्ठ मंत्री टी एस सिंहदेव, विधानसभा अध्यक्ष चरण दास महंत, गृहमंत्री ताम्रध्वज साहू व अन्य की मौजूदगी में जो विचार विमर्श चला उसका परिणाम क्रमशः सामने आ रहा है।
इस कवायद का कुल मकसद कुछ असंतुष्टों को नये खांचे में फिट करना, किसी का कद बढ़ाना व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के नेतृत्व में सत्ता व संगठन के बीच विश्वास व सामंजस्य का वातावरण निर्मित करना है ताकि चुनाव तक उनमें जोश-खरोश बना रहे। नेतृत्व को अहसास है कि चुनाव आसान नहीं है, एकतरफा जीत की संभावना नहीं है।
इधर प्रतिपक्ष भाजपा के लिए यह कहा जा सकता है- बहुत देर कर दी, मेहरबां आते आते। दरअसल चार साल तक प्रदेश भाजपा ने समय खोने के अलावा कुछ नहीं किया। 2018 के चुनाव के सदमे से वह उबर नहीं पाई तथा निष्क्रिय व उदासीन बनी रही। अभी छह-आठ महीने ही वह नींद से जगी है और वह भी तब जब संगठन की आंतरिक स्थिति को देखते हुए गृहमंत्री अमित शाह को अप्रत्यक्ष रूप से राज्य भाजपा की कमान अपने हाथ में लेनी पड़ी है।
प्रदेश भाजपा इसी में खुश थी कि राज्य में ईडी सक्रिय है और उसने सरकार के कुछ अफसरों व नेताओं को अपने शिकंजे में ले लिया है। ईडी के छापों के पीछे राजनीतिक मंशा भी साफ नज़र आ रही थी पर इसकी वजह से प्रदेश भाजपा को भूपेश बघेल सरकार के खिलाफ आरोप जड़ने व आंदोलन के लिए मुद्दे मिल गए। इनमें प्रमुख हैं दो हजार करोड़ का कथित शराब घोटाला व शराब बंदी का चुनावी वायदा। इसके अलावा लड़ने के लिए फिलहाल उसके पास कोई बड़ा हथियार नहीं है।
पार्टी ने उन्हें तलाशने अजय चंद्राकर के नेतृत्व में आरोप पत्र समिति का गठन किया है जिस पर कांग्रेस सरकार की जनता के साथ कथित वादा खिलाफी तथा भ्रष्टाचार के मामलों को उजागर करने का दायित्व है। लोहे को लोहे से काटने की तर्ज पर मुख्यमंत्री के नजदीकी रिश्तेदार सांसद विजय बघेल को चुनाव घोषणा पत्र तैयार करने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी गई है।।
छत्तीसगढ़ के चुनाव प्रभारी ओम माथुर, सह चुनाव प्रभारी मनसुख मंडाविया, सह प्रभारी नवीन नबीन, गृहमंत्री अमित शाह व अन्य केंद्रीय मंत्रियों के लगातार दौरे, बैठकें व सभाओं के बाद प्रधानमंत्री मंत्री नरेंद्र मोदी की रायपुर की जंगी आम सभा में उनके चुनावी आगाज से यह स्पष्ट है कि भाजपा छत्तीसगढ़ में पुनः अपनी सरकार बनाने जीतोड प्रयास कर रही है।
पंद्रह वर्षों तक मुख्यमंत्री रहे रमन सिंह पुनः फ्रंट फुट पर है। कांग्रेस सरकार के खिलाफ उनकी आवाज़ अधिक मुखर हैं। हालांकि वे चुनावी चेहरा नहीं है। पार्टी सामूहिक नेतृत्व में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरे सामने रखकर चुनाव लड़ने की बात कहती है। लेकिन डेढ़ दशक के शासन में प्रथम पंक्ति के जो नेता सक्रिय थे, वे पुनः सामने आ रहे हैं। उनके प्रति कार्यकर्ताओं का असंतोष खत्म नहीं हुआ है। वे मानते हैं कि 2018 की हार और पार्टी की दुर्गति इनकी करतूतों की वजहों से हुई। लिहाज़ा भाजपा के अंदरूनी खानों से यह ध्वनित हो रहा है कि चुनाव अभियान में यदि इन्हें आगे किया गया तो इसके परिणाम अच्छे नहीं होंगे।
भाजपा का लक्ष्य मध्यप्रदेश की सत्ता को बचाना व छत्तीसगढ़ में सत्ता हासिल करना है। गृहमंत्री अमित शाह इन दोनों राज्यों पर विशेष रूप से ध्यान दे रहे हैं। शाह को अच्छा रणनीतिकार माना जाता है । 2018 के चुनाव में छत्तीसगढ़ में उनका मिशन हालांकि बुरी तरह ध्वस्त हुआ था पर अब 75 प्लस के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए नेताओं व कार्यकर्ताओं को विभिन्न तौरतरीकों से गतिशील किया जा रहा है। लेकिन भाजपा के पास फिलहाल ऐसा कोई मुद्दा नहीं है जो रंग जमा सके लिहाज़ा भ्रष्टाचार को ही मुख्य मुद्दा बनाया जा रहा है।
प्रधानमंत्री की रायपुर में 7 जुलाई को हुई सभा, राज्य सरकार की नाकामी , नाइंसाफी, धान, किसान, आदिवासी व सरकार में संगठित भ्रष्टाचार पर केंद्रित थी। चुनाव पर इनका कितना क्या असर होगा, कहना कठिन है। पर यह आम प्रतीति है कि छत्तीसगढ़ में भ्रष्टाचार नहीं नेतृत्व की लोकरंजक छवि महत्वपूर्ण होगी और वह छवि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की है।
लेखक छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ संपादक हैं। यह लेख नीचे दिए गए लिंक पर भी उपलब्ध है…
https://mpcg.ndtv.in/opinion/politics-of-chhattisgarh-rapid-changes-are-coming-in-the-politics-of-the-state-4223010