जसम सम्मेलन के बहाने कुछ बातें : जिस सांस्कृतिक जनक्रांति की बात की जाती है वह सभी वर्गों के लोगों को, सभी मेहनतकशों को शामिल किए बिना सफल नहीं हो सकती…
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- दिवाकर मुक्तिबोध।
बस्तर के आदिवासियों के हितों के लिए वर्षों से संघर्षरत सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार ने जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय सम्मेलन में जो विचार व्यक्त किए हैं, वे फासीवाद के मुद्दे पर बौद्धिक तबके की कथित सक्रियता पर सवाल खडे करते हैं।
उन्होंने कहा-फासीवाद का सबसे पहले हमला आदिवासियों पर होता है। वे उसका सामना करते हैं। बाद में किसान व मजदूर मुकाबला करते हैं। गरीब व निम्न वर्ग पर जब हमला होता है तो वह अपने तरीक़े से उसके खिलाफ संघर्ष करता है लेकिन हम और आप यानी मध्यम व निम्न मध्यम वर्ग के लोग फासीवाद के खिलाफ अभियान को समर्थन तो देते हैं पर सक्रिय हस्तक्षेप नहीं करते। उनकी लडाई में शामिल नहीं होते।
हिमांशु कुमार के ये विचार लोकतांत्रिक संगठनों व संस्थाओं को अपनी गतिविधियों तथा कार्यक्रमों पर नये सिरे से विचार करने के लिए बहुत महत्वपूर्ण व जरूरी मुद्दा देते हैं। देश में बढती अराजकता, असहिष्णुता, लोकतांत्रिक अधिकारों का अपहरण, व्यवस्था के खिलाफ बोलने की आजादी पर प्रहार, फासिस्ट ताकतों का उभार व साम्प्रदायिकता के नाद पर गंभीर विमर्श के लिए जन संस्कृति मंच ने छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में 8-9 अक्टूबर को अपना राष्ट्रीय अधिवेशन किया जिसमें मंच के केन्द्रीय पदाधिकारियों जो देश के जाने माने लेखक, विचारक व संस्कृति कर्मी हैं, के अलावा विभिन्न राज्यों के करीब दो सौ प्रतिनिधि मौजूद थे।
सम्मेलन की मेजबानी रायपुर इकाई ने की जिसका गठन चंद माह पूर्व ही हुआ है। सम्मेलन में देश में दिनों दिन मजबूत होती फासिस्ट ताकतों को लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा बताते हुए प्रेरक व्याख्यानों व सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिए जमकर हल्ला बोला गया। हिमांशु कुमार ने उदघाटन भाषण दिया। इसका लब्बोलुआब यही है कि फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष में जन संस्कृति मंच को निचले तबके के लोगों को साथ में लेना चाहिए।
उनका साथ देना चाहिए। यह भी स्पष्ट था कि केवल मंच को ही नहीं बल्कि तमाम जनवादी संगठनों को अपने कामकाज पर नये सिरे से विचार करने की आवश्यकता है। खासकर ऐसे समय जब सत्ता निरंकुश हो तथा नागरिक आजादी पर भीषण प्रहार किए जा रहे हों।
इसमें दो राय नहीं है कि लोकतंत्र के नाम पर देश में अभी जो कुछ बचा हुआ है वह उन्हीं संस्थाओं की वजह से है जो अपने-अपने स्तर पर तमाम तरह के फासीवाद का मुकाबला कर रही हैं । किंतु यकीनन यह काफी नहीं है।
लोकतांत्रिक संस्थाएं इन साम्प्रदायिक ताकतों को पराभूत करने निश्चित रूप से माहौल बनाती हैं, विचार विमर्श करती हैं, शहरों में सम्मेलन किए जाते हैं, बौद्धिक विमर्श होता है, सांस्कृतिक आंदोलन किए जाते है लेकिन यह सब कुछ प्रायः बंद कमरों में होता है, ‘बंद’ शहरों में होता है जिसकी धमक दूर तक नहीं जा पाती। इसलिए विचार व व्यवहार में भी अंतर रहता है।
संस्थाओं की यह कवायद ठीक उस उच्च नौकरशाही की तरह है जिसके नुमाइंदे अपने आलीशान दफ्तर के एसी कक्ष में बैठकर शहरों, गांव देहातों व गरीब गुरबों की समस्याओं व जरूरतों को जाने बिना बडी-बडी योजनाएं बनाती हैं। ये अव्यावहारिक होने के साथ ही जमीनी हकीकत से परे रहती हैं। शहरी बौद्धिक गतिविधियों का भी लगभग यही आलम है। विचार दूर तक, ग्रामीण जनों तक इसलिए नहीं जा पाते क्योंकि माध्यमों की सक्रियता बेहद क्षीण है।
बकौल हिमांशु कुमार फासीवाद व साम्प्रदायिकता के विरुद्ध दमदार लडाई लडने तमाम जनवादी संगठनों व संस्थानों को अपने शहरी दायरे को आगे बढाते हुए गांव कस्बों तक जाना होगा। उन्हें भी अपना कार्यक्षेत्र बनाना होगा जहां आदिवासी, किसान, मजदूर व गरीब तबका अपने हिसाब से इस लडाई को लड रहा है। उन्हें ताकत देना होगी, उनकी लडाई में शामिल होना होगा। लगभग यही विचार लेखक भंवर मेघवंशी के भी थे। उनका कहना था केवल राजनीतिक प्रतिरोध से फासीवाद का विरोध नहीं होगा। सांस्कृतिक संगठन ही इसका मुकाबला कर सकते हैं। उन्होंने कहा – हमें घेरे से बाहर निकलने की जरूरत है।
दरअसल अधिनायकवादी व्यवस्था में फासीवाद जिस ताकत के साथ अपने डैने फैलाता हैं, उनकी तुलना में जनवाद का प्रतिरोध क्षीण होता है। पिछले आठ वर्षों से ,जब से केंद्र में दक्षिणपंथी सरकार सत्ता पर काबिज है, लोकतंत्र का क्षरण होता जा रहा है। इसे रोकने के लिए जनवादी संस्थाओं के प्रयत्न आधे-अधूरे रहे हैं। समय-समय पर प्रतिरोध की मशालें जलती हैं लेकिन बिना व्यापक असर दिखाए ठंडी पड जाती हैं।
केवल किसान आंदोलन ही ऐसा उदाहरण है जिसकी जबरदस्त ताकत के सामने अंततः केंद्र सरकार को झुकना पड गया और विवादित कृषि कानून वापस लेने पडे। लेकिन यह विशुद्ध रूप से किसानों का आंदोलन था, जनवादी संगठनों का नहीं हालांकि इस आंदोलन को उन्होंने भरपूर समर्थन दिया था। फासीवाद को कुचलने के लिए ऐसे ही जन आंदोलन की आवश्यकता है। इस संदर्भ में भारतीय जन नाट्य संंघ इप्टा की देश भर में चली सांस्कृतिक यात्रा को भी याद कर सकते हैं जिसने माहौल बनाने की कोशिश की। उसकी यात्रा नौ अप्रैल को रायपुर से प्रारंभ हुई थी और 22 मई को इंदौर में समाप्त हुई। कहना न होगा फासीवाद के खिलाफ जनमत तैयार करने सांस्कृतिक यात्राएं सबसे प्रभावी माध्यम है।
अभी होता क्या है ? आमतौर पर वाम आंदोलनों में चाहे वे साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों से संबंधित ही क्यों न हो, जन की भागीदारी नगण्य रहती है। किसी भी शहर को देख लें, प्रायः विभिन्न कार्यक्रमों में एक जैसे चेहरे नजर आते हैं। नये लोग जुडते नहीं हैं और न ही उन्हें जोडने की कोशिश की जाती है। राजनीतिक पार्टियों के लाखों करोड़ों सदस्य बन जाते हैं पर राष्ट्रीय स्तर की जनवादी संस्थाएं कुछ सौ तक सिमट कर रह जाती हैं।
विचारों का प्रवाह व विस्तार इसीलिये नहीं हो पाता। वह क्षेत्र विशेष तक सीमित रहता है। यानी कोई संगठन असहिष्णुता, साम्प्रदायिकता, कुटिल राज व्यवस्था इत्यादि के खिलाफ रणनीति तय करता है, बौद्धिक विमर्श करता है , कुछ संकल्प लेता है तो उसका प्रभाव सम्मेलन की अवधि तक सीमित रहता है, उसे दूर तक, बौद्धिक जमात तथा आम जनता तक ले जाने के जोरदार प्रयत्न नहीं हो पाते। जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अधिवेशन में अतिथि वक्ताओं ने इसी कमी की ओर ध्यान आकर्षित किया है।
संकेत स्पष्ट है कि यदि फासिस्ट ताकतों तथा फासीवादी विचारों को पस्त करना है तो जिस सांस्कृतिक जनक्रांति की बात की जाती है वह सभी वर्गों के लोगों को, सभी मेहनतकशों को शामिल किए बिना सफल नहीं हो सकती। क्या लोकवादी संस्थाएं व संगठन इसके लिए तैयार है ? अगर नहीं तो ऐसे सम्मेलनों का महत्व कागजी ही माना जाएगा। दुर्भाग्य से यही होता रहा है।