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बलात्कार, हत्या और संगीन अपराध का ग्लेमराईज मीडिया कंटेट ही अपराध…

नज़रिया / सुरेश महापात्र.

जरा एक बार देश के भीतर अपराध की रिपोर्ट की बाढ़ पर नज़र डालें ये कब—कब यकायक बढ़ीं हैं। एक आम पाठक और टीवी दर्शक के तौर पर देखने से मुझे लगता है कि किसी घटना के बाद सोशल मीडिया की प्रतिक्रिया को देखते मीडिया का रूख बदलता है और एक ही तरह की खबरें पूरे देश के विभिन्न हिस्सों से बाहर आती हैं…।

जब दिल्ली में निर्भया के साथ बर्बरता की खबर बाहर आई तो पूरा देश उबल पड़ा। इसके बाद पूरे देश से एक जैसी लोमहर्षक घटनाओं की रिपोर्ट पढ़ने और देखने में आने लगीं। करीब 7 बरस बाद एक बार फिर एक जैसी घटनाओं की रिपोर्ट बढ़ गई है। हैदराबाद में डा. प्रियंका रेड्डी के सामूहिक बलात्कार के बाद बर्बर हत्या की खबर की रिपोर्ट ने जितना देश को झकझोरा है बिल्कुल उतना ही ऐसे अपराधियों को उकसाया भी है।

ठीक ऐसी ही दर्जनों वारदातों की खबरें पूरे देश के विभिन्न इलाकों से आने लगी। इस हादसे के बाद बीते एक पखवाड़े में छत्तीसगढ़ से ही करीब आधा दर्जन लोमहर्षक वारदातों को अंजाम दिया जा चुका है। बीते 48 घंटों में करीब पांच बलात्कार और हत्या की घटनाओं ने प्रदेश को झकाझोरा है।

किसी भी घटना के बाद मीडिया के माध्यम से प्रतिक्रियाएं सामने आती हैं। उससे केवल एक ही पक्ष सर्तक और संतुलित होता है। जिनके सामाजिक सरोकार बंधे होते हैं। दूसरा पक्ष जिसका ऐसे किसी समाज से सरोकार कम ही होता है और जिन पर सामाजिक बंधनों का अभाव होता है वे रिपोर्ट से अपराध के नए तरीकों का ज्ञान ले रहे होते हैं।

मीडिया का समाज के हर तबके पर सीधा प्रभाव पड़ता है। यह जानने के लिए एक और घटना फिलहाल देखने में आई है। हाल ही में नारायणपुर जिले के कैंप में आपसी फायरिंग में सात जवानों की मौत की खबर सामने आई। इसके ठीक बाद झारखंड में आरक्षक ने कंपनी कमांडर पर गोलियां बरसाई और आत्महत्या की। इसके बाद गीदम में सीआरपीएफ जवान ने अपनी सर्विस बंदूक से आत्महत्या कर ली।

क्या इन घटनाओं का आपस में कोई संंबंध नहीं है? मुझे लगता है सीधा संबंध है। एक घटना की रिपोर्टिंग देखने—पढ़ने के बाद वैसी ही मानसिकता से गुजर रहे अन्य लोगों को नकारात्मक प्रेरणा मिलती होगी। ऐसे अनेक उदाहरण देखने को मिल जाएंगे जब मीडिया की रिपोर्ट के तरीके और उसकी शब्दावली ने मानसिक रोगियों को उकसाया ही है।

बस्तर के मसले में किसी एक जिले में सर्चिंग के दौरान फोर्स से मुठभेड़ में माओवादियों के मारे जाने की खबर और उससे जुड़ी प्रतिक्रियाओं का प्रभाव पूरे संभाग के सभी जिलों के पुलिस अधीक्षकों पर सीधा पड़ता है। मेरा मानना है कि वे भी दबाव में आते हैं। इसके बाद करीब—करीब सभी जिलों से ऐसे ही मुठभेड़ों की सूचनाएं बाहर आती हैं। कई दफे ऐसी ही मुठभेड़ों के कारण महकमा भी बदनाम होता है। सफलता की चाह में फर्जी मुठभेड़ों की प्रेरणा मीडिया की रिपोर्ट का परिणाम होती हैं…

यह विचारणीय तथ्य है कि ‘समाज, मीडिया को प्रभावित करता है और उससे ज्यादा प्रभावित होता है।’ किसी एक को अपने भीतर नियंत्रण रखना होगा। मीडिया में अपराध को लेकर जिस तरह से शब्दावलियों का प्रयोग होने लगा है उससे समाज के भीतर अपराधी प्रवृत्ति के मानसिक रोगियों के लिए नए विकल्प तैयार होते दिख रहे हैं।

पहले केवल समाचार पत्र होता था। जिसे अब प्रिंट मीडिया कहते हैं। समाचार पत्र अब प्राडक्ट हो चुका है। कई मीडिया घराने अपने अखबार को सीधे तौर पर प्राडक्ट ही कहते हैं। इसी तरह से टीवी न्यूज अब इलेक्ट्रानिक मीडिया हो चुका है। जिसमें अब संपादक की भूमिका खबरों के चयन से ज्यादा उसके कंटेट के लिए बाज़ार तलाशने की होती है। यह खबरों के साथ खतरनाक खेल है। जिसे समझने की जरूरत है।

खबरों के खेल के लिए अब कंटेट मैनेजर किस्म के पद भी क्रियेट हैं। ये मैनेजर उन शब्दावलियों का चयन करते हैं जिससे समाज में उसकी स्वीकारोक्ति बढ़े। समाज की शब्दावली मिलती है सोशल मीडिया से। यानी सीधे तौर पर मीडिया के बदलते रूख का प्रभाव सीधे तौर पर समाज पर पड़ रहा है। पहले कभी—कभार होने वाली हृदय विदारक घटना अब आम होती दिख रही हैं…।

एडीआर की रिपोर्ट कहती है कि देश के लिए कानून बनाने वाली संस्था में आज भी करीब 48 प्रतिशत विभिन्न आरोपियों को जगह मिली हुई है। इन्हें टिकट देने वाले, जिताने वाले और गंभीर मामलों में बचाव करती भीड़ ऐसे हालातों के लिए जिम्मेदार है।

एसोसिएशन आफ डेमोक्रेटिक रिफार्म की ताजा रिपोर्ट बताती है कि 2009 से 2019 के बीच आपराधिक प्रवृत्ति के प्रत्याशियों को टिकट दिए जाने में करीब 231 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। 2009 से 2019 के बीच ऐसे विजेता प्रतिनिधियों की संख्या में करीब 850 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। देश के 756 सांसद और 4063 विधायकों में से 58 विधायक और 18 सांसद महिलाओं के प्रति अपराध में आरोपी हैं। ये उन्होंने स्वयं घोषित किया है।

यही समाज का प्रतिबिंब है। जब तक ऐसे जनप्रतिनिधियों को टिकट दिए जाने के बाद भी विजेता बनाकर कानून बनाने के लिए भेजेंगे तो अपराध के लिए खुद के प्रति जिम्मेदारी का नज़रिया महसूस करना होगा।

एक राष्ट्रीय समाचार पत्र ने सप्ताह के पहले दिन सकारात्मक खबरों को प्रथम पृष्ठ पर देने की जिम्मेदारी उठाई है। पर ऐसी सकारात्मक खबरों को सोशल मीडिया में कोई स्थान नहीं मिलता। यानी नकारात्मक विचारों से अटे पड़े समाज के लिए मीडिया के बड़े हिस्से से आने वाली नकारात्मक खबरों की समझ ही ज्यादा है।

अभी भी वक्त है कि या तो समाज सुधरे या मीडिया सुधर जाए। केवल अपराध के लिए रोना रोने वाले उन लोगों का दायित्व सबसे ज्यादा है कि वे दोनों को सुधारने के लिए अपनी भूमिका तय करें। ताकि समाज और मीडिया दोनों में बदलाव आए। जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक देश के भीतर अपराध के प्रति नज़रिया साफ नहीं होगा।

मामला चाहे निर्भया का हो या डा. प्रियंका रेड्डी का समाज के भीतर पनप रहे अपराध के बीज को अंकुरित होने से रोकने की जिम्मेदारी केवल समाज की नहीं है बल्कि इसके लिए मीडिया को भी अपने में नियंत्रण रखने की जरूरत है। उसे समझना होगा कि बलात्कार, हत्या और संगीन अपराध का ग्लेमराईज मीडिया कंटेट ही अपराध को बढ़ावा देने का काम कर रहा है।

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