भ्रष्टाचार के मामले और अदालतों की क्लीन चिट… क्या आरोप महज राजनीति का हिस्सा थे?
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विशेष टिप्पणी। सुरेश महापात्र।
यूपीए यानी यूनाईटेड प्राग्रेसिव अलायंस की सरकार पहली बार 2004 में चुनकर आई। इसके बाद एक सबसे बड़ी बहस ने जन्म लिया कि क्या यूपीए के प्रमुख होने के कारण कांग्रेस के सर्वोच्च नेता सोनिया गांधी अब प्रधानमंत्री बन सकतीं हैं। सवाल आसान था और जवाब उतना ही कठिन क्योंकि तब प्रमुख विपक्षी दल की ओर से सुषमा स्वराज, उमा भारती ने यह तक ऐलान कर दिया कि यदि सोनिया गांधी भारत की प्रधानमंत्री बनती हैं तो वे अपना सिर मुंडवा लेंगीं। पूरे देश में गहमा—गहमी का दौर रहा।
पर सबसे बड़ी बात तो यही थी कि क्या सोनिया गांधी भारत के प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ लेंगी। संविधान के पन्ने पलटे जा रहे थे। उसमें तलाशा जा रहा था कि क्या कहीं इस बात का उल्लेख है कि अमेरिका की तरह किसी नागरिका प्राप्त नागरिक को सरकार का प्रमुख चुना जा सकता है। पर संविधान में केवल दोहरी नागरिकता वाले नागरिक के लिए सरकार का प्रमुख चुना जाना प्रतिबंधित था।
इसके बाद कांग्रेस संसदीय दल की बैठक का दृश्य लाइव चल रहा था। दूरदर्शन समेत सभी चैनलों पर संसदीय दल की बैठक के दौरान पूरे देश ने देखा कि यूपीए की सर्वोच्च नेता सोनिया गांधी ने एक पर्ची आगे बढ़ाई थी जिसे पढ़कर सुनाया गया। इसमें डा. मनमोहन सिंह के लिए संसदीय दल का नेता चुने जाने के लिए प्रस्ताव था।
पूरी बैठक में नाम सुनने के बाद सन्नाटा पसर गया था। इससे पहले कांग्रेस के भीतर ही सोनिया गांधी के नेतृत्व को चुनौती देते हुए शरद पवार, पीए संगमा और तारिक अनवर ने राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बनाकर स्वयं को अलग कर लिया था। यह सब इतिहास में दर्ज है।
मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री चुने गए। और उनका पहला कार्यकाल कई सुधारों की शुरूआत के तौर पर जाना जाता है। तब से यह हल्ला मचाया गया कि सोनिया गांधी ने अपने पुत्र राहुल गांधी के लिए प्रधानमंत्री की कुर्सी पर डा. मनमोहन सिंह को अपने मुताबिक पाते चयन किया है। ताकि जरूरत पड़ने पर गांधी—नेहरू परिवार की ओर से राहुल गांधी प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाल लें और डा. सिंह को हटाने में किसी प्रकार की दिक्कत ना हो…।
वहीं डा. मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री चुने जानते के बाद एक और बहस बड़ी होने लगी थी। वह थी ईवीएम की विश्वसनीयता। 2004 में पहली बार ईवीएम से चुनाव की प्रक्रिया पूरी की गई थी।
तो यह भी भाजपा के नेताओं की ओर से जमकर आरोप लगाए जा रहे थे कि ईवीएम के माध्यम से चुनाव की प्रक्रिया के कारण लोकप्रिय अटल जी की सरकार को दुबारा मौका नहीं मिला। ईवीएम के उपयोग को लेकर भाजपा नेता ने एक किताब भी प्रकाशित की थी जिसमें विस्तार से उल्लेख था कि किस तरह से ईवीएम से वोट चुराए जा सकते हैं। खैर इन सब विवादों को तो बाद में तूल दिया गया।
इसके बाद 2009 में दुबारा आम चुनाव में यूपीए को जीत हासिल हुई। डा. मनमोहन सिंह फिर से प्रधानमंत्री चुने गए। इसके बाद का दौर यूपीए और कांग्रेस के लिए सबसे बुरा दौर रहा। 2010 में हिंदुस्तान में पहली बार कॉमनवेल्थ गेम्स होने थे। खेल मंत्री और ओलंपिक संघ के अध्यक्ष के तौर पर सुरेश कलमाड़ी को आयोजन समिति का अध्यक्ष बनाया गया।
इस गेम्स के दौरान भारी पैमाने में भ्रष्टाचार के आरोप लगे। मनिलांड्रिंग की शिकायत की गई। मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा और सीबीआई को जांच सौंपी गई। इसके बाद ईडी ने इस मामले में जांच शुरू की। यूपीए की सरकार ने खेलमंत्री सुरेश कलमाड़ी को हटा दिया। उन्हें ओलंपिक संघ से बाहर कर दिया गया। जांच जारी थी।
इसके बाद कोयला खदानों के आबंटन में गड़बड़ी और भ्रष्टाचार के आरोप लगने शुरू हुए। कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल को सदन में बोलने नहीं दिया जा रहा था। आरोपों को लेकर विपक्षी पार्टी भाजपा बेहद आक्रामक रही। लोकसभा और राज्य सभा में कामकाज ठप हो गया।
देश भर में कोयला घोटाले को लेकर जनाक्रोश सामने आने लगा। उस समय जब कोयला मंत्री को बयान तक देने नहीं दिया जा रहा था तब जी न्यूज के साहसी पत्रकार सुधीर चौधरी पहली बार टीवी स्क्रीन पर सामने आए।
उन्होंने श्रीप्रकाश जायसवाल का लंबा साक्षात्कार किया। कोयला घोटाले के हल्ला के दौरान उद्योगपति नवीन जिंदल का नाम भी सामने आया। फिर एक दिन नवीन जिंदल ने प्रेस कान्फरेंस की और एक स्टिंग वीडिया सार्वजनिक किया इसमें जी न्यूज की ओर से सुधीर चौधरी और उनके मैनेजिंग साथी 300 करोड़ की डिमांड कर रहे थे।
इस मामले में जी न्यूज के पत्रकार सुधीर चौधरी और उनके मैनेजिंग साथी के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई। सुधीर चौधरी और उनके साथ तिहाड़ जेल भेज दिए गए। कोयला घोटाले को लेकर भी सुप्रीम कोर्ट ने मामला सीबीआई को सौंप दिया।
एक और मामला सामने आया जिसमें भारत में दूरसंचार विभाग द्वारा टूजी स्प्रेक्ट्रम की नीलामी में बड़ा घोटाले का आरोप लगा। इस मामले को तूल दिया तब के सीएजी विनोद राय की रिपोर्ट ने जिसमें ना जानें कितने लाख करोड़ रुपए के नुकसान का अनुमान दर्ज किया गया। मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और इसके बाद सीबीआई को जांच की जिम्मेदारी सौंपी गई।
इन तीनों मामलों का जिक्र इसलिए कर रहा हूं कि राजनीति में यह समझ पाना कितना कठिन होता है कि जिन पर आरोप लगाए जा रहे हैं वे आरोप सही हैं या नहीं। पर इसका असर बेहद व्यापक होता है। यदि मीडिया ऐसे मामलों में पूरी गंभीरता के साथ बातें रखती हैं तो भ्रष्टाचार के हर मामले में जनाक्रोश का उभरना बेहद आसान है। इन तीनों मामलों में हुआ भी यही।
28 अप्रेल को दिल्ली की साउथ रेवेन्यू कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। जिसमें दिल्ली की अदालत ने कॉमन वेल्थ घोटाला मामले में ईडी की क्लोजर रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया है। इस मामले में सीबीआई ने पहले ही क्लोजर रिपोर्ट दाखिल कर दिया था। यानी कॉमन वेल्थ गेम्स के जिस घोटाले के आरोप में सुरेश कलमाड़ी मीडिया का शिकार बने वह मामला जांच एजेंसियों ने खारिज कर दिया और कोई केस नहीं बनता इसकी सूचना कोर्ट को दी है।
ऐसा ही कोयला घोटाला मामले में भी हुआ। तकनीकी तौर पर तब मैन्वुल नीलामी की व्यवस्था होने के कारण यह मामला तूल पकड़ा और कोर्ट में यह साफ हुआ कि जिस तरह के आरोप इस मामले में लगाए गए वे सही नहीं थे।
इसी तरह से सुप्रीम कोर्ट ने सीएजी विनोद राय की टूजी स्पेक्ट्रम वाली अनुमानित रिपोर्ट को मनगढ़ंत करार देते हुए खारिज कर दिया था। इस मामले में भी दोनों नेता ए राजा और कनिमोई को बाइज्जत बरी किया गया। ये दोनों अभी भी डीएमके की ओर से सांसद हैं।
ये वे तीन मामले थे जिसे हिंदुस्तान की मीडिया ने जोर शोर से उठाया था और यूपीए सरकार पर भ्रष्टाचार के बेहूदे दाग लगे। संभव है अन्य मामलों में कुछ फैसला अलग भी आ जाए। पर ये वे तीन बड़े मामले थे जिसने कांग्रेस के चाल, चरित्र और चेहरे पर दाग लगा दिया।
इस दाग को लगाने का काम भारतीय मीडिया ने ठीक उसी तरह से किया जैसा सुशांत सिंह आत्महत्या केस में सिनेमा अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती के साथ किया गया था। हांलाकि भारतीय मीडिया की ओर से केवल जी न्यूज के कर्ताधर्ता ने ही सार्वजनिक तौर पर माफी मांगी।
पर ऐसे मामले जिनमें भ्रष्टाचार को लेकर सरकार के साथ व्यक्तिगत स्तर पर चरित्र पर आरोप मढ़े जाते हैं उसमें तो किसी भी व्यक्ति का पूरा राजनीतिक कैरियर की समाप्त हो सकता है।
अब भले ही इस जैसे तीन बड़े मामलों में यूपीएक की सरकार को जांच एजेंसियों और कोर्ट की ओर से राहत मिल गई है पर बताइए कितने चैनलों ने यह स्वीकार किया कि उस समय उनसे मामले की पड़ताल में चूक हुई थी। हिंदुस्तान में कोई भी व्यक्ति तब तक सरकार नहीं बना सकता जब तक उसे जनता चुनकर ना भेजे।
कोई भी व्यक्ति तब तक सांसद निर्वाचित नहीं हो सकता जब तक उसे जनता के विजयी मत हासिल ना हों… राजनीतिक दुष्प्रचार तो होते ही रहेंगे और देश के प्रधानमंत्री पर पद से हटने के बाद वर्तमान प्रधानमंत्री रेनकोट पहनकर नहाने जैसा विशेषण देकर भ्रष्टाचार के लिए दोष देते हों पर इस तरह के आरोप केवल आरोप ही होते हैं यह समझना होगा।
आज भ्रष्टाचार के मामले में कभी आरोपी बनाए गए सुधीर चौधरी देश के जाने माने एंकर हैं। वे जी न्यूज के डीएनए से लेकर आज के ब्लेक एंड व्हाईट करते हुए अब दूरदर्शन में सालाना 14 करोड़ के पैकज पर हैं।
देश के एंकर किस तरह की भूमिका अब निभा रहे हैं। क्या भ्रष्टाचार जैसे मामलों में मीडिया का अब भी वैसा ही रुख है? क्या उन तमाम मामलों में मीडिया पूरी तरह से निष्पक्ष है जिसमें हम निष्पक्षता की उम्मीद लगाकर बैठे हैं।
अब यह भी समझ जाइए कि केंद्र में एनडीए की वापसी के बाद कितने चैनलों के कितने पत्रकारों को ठिकाने लगाया गया। कितने चैनलों के मालिक पर्दे के पिछे बदल गए।
एनडीटीवी के साथ क्या हुआ? क्या ईडी और सीबीआई ने एनडीटीवी के कर्ताधर्ता के ठिकानों में छापा मारने और केस दर्ज करने से पहले कोई आंतरिक जांच की थी। आखिर कैसे एनडीटीवी जैसे मीडिया संस्थान के मालिक बदल गए?
इन सब सवालों के साथ देश की सत्ता का बागडोर संभालने वालों के खिलाफ लगाए जाने वाले भ्रष्टाचार के मामलों की तह तक जरूर जाएं। यदि आपको लोकतंत्र पर विश्वास है? क्योंकि जब भ्रष्टाचार के मामले और अदालतों की क्लीन चिट मिलती है तो लगता है क्या आरोप महज राजनीति का हिस्सा थे?