सत्ता के साथ संघर्ष की पत्रकारिता और उसके दुष्प्रभाव…
- सुरेश महापात्र।
आज जब मैने पत्रकार कमल शुक्ला द्वारा अपनी बेटी के जन्मदिन पर लिखे पोस्ट को देखा तो मन में यकायक विचार आया कि ‘हां’ यही तो होता रहा है। पत्रकारिता के साथ। सदैव। चाहे गणेश शंकर विद्यार्थी हों या कई—कई पीढ़ियों के बाद कमल शुक्ला तक… जिसने भी सत्ता के विरूद्ध आवाज उठाई उसे बहुत कुछ सहना पड़ा।
अब वक्त बदल चुका है इस तरह के मामले में अब सीधे तौर पर राजनीतिक सत्ता को रेखांकित करना चाहिए। यानी सत्ता चाहे किसी की भी क्यों ना हो वह अपने खिलाफ आवाज सुनने की ताकत नहीं रखता! चाहे राज्यों की सत्ता हो या केंद्रीय सत्ता। मीडिया सभी ओर दमन का केंद्र बन गया है।
सत्ता यानी वह राजनीतिक ताकत जिसे सरकार चलानी होती है। सरकार यानी वह संस्था जिसमें संवैधानिक शक्तियां सन्निहित होती हैं। सरकार बनती है राजनीतिक पकड़ से। राजनीतिक पकड़ तैयार होती है उसके जमीनी कार्यकर्ता से। कार्यकर्ता यदि केवल राजनीतिक तौर पर ही काम कर रहा हो तो वह उसकी रोजी रोटी के लिए किसी दल का सदस्य बनकर अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह कर रहा होता है।
जब किसी राजनीतिक दल को बहुमत मिलता है तो उस कार्यकर्ता की सरकार होती है। राजनीतिक कार्यकर्ता अब अपने आय अर्जन के लिए राज्य सत्ता का इस्तेमाल राजनीतिक तौर पर शुरू करता है। यही लोकतंत्र की पूरी प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में मीडिया की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता।
मीडिया हर उस राजनीतिक सत्ता के साथ खड़ा होना पसंद करता है जिससे उसकी आय और उम्मीद जुड़ी हो। तभी राज्य सत्ता मीडिया के माध्यम से स्वयं को स्वच्छ और निर्मल स्थापित करने की परंपरा का निर्वाह करता है। सरकार के खिलाफ खबरें बाहर निकलने लगे और सरकार की बदनामी शुरू हो तो सबसे पहले मीडिया को हैंडल करने की कोशिश शुरू होती है।
मीडिया की हैंडलिंग का तरीका सरकार की नीति और नियत के मुताबिक होता है। विपक्ष की आवाज को कितनी जगह दी जानी है यह मीडिया तय करता है। यह लोकतांत्रिक सत्ता का अंतिम सत्य है। चाहे इससे हम खुले तौर पर मुंह फेर लें।
मीडिया में भी कई तरह के लोग होते हैं। बहुतेरे मीडिया संस्थान द्वारा पोषित पत्रकार होते हैं। यानी संस्थान सेवा की कीमत ना दे तो दिक्कतें खड़ी हो जाएं। यही वजह है कि मीडिया संस्थान के अपने नियम और कायदे होते हैं जिसका पालन करते हुए किसी पत्रकार को अपनी पत्रकारिता करनी होती है और समाज का भी ध्यान रखना होता है।
हाल ही में प्रदेश के एक पत्रकार ने यह मुद्दा उठाया कि लॉक डाउन के दौरना प्रदेश में करीब 500 से ज्यादा पत्रकारों की नौकरी चली गई। उनकी पीड़ा यह रही कि इस मसले को किसी ने भी नहीं उठाया। यह सही बात है कि मीडिया में नौकरी सबसे अनिश्चित सेवा है। जब तक हैं तब तक ही हैं। उसके बाद राम जानें।
यह तो वेतनभोगी मीडिया की बात है। पर जो मीडिया बिना वेतन अखबारों में समाचार देती है। जिसकी खबरें राष्ट्रीय सुर्खियां बनती हैं। इसी अवैतनिक मीडिया की आवाज ही कभी—कभी बड़े—बड़े मामलों का खुलासा करती है। वह हमेशा दो धारी तलवार का शिकार होती है। जिसका प्रतिनिधित्व छत्तीसगढ़ में इन दिनों कमल शुक्ला कर रहे हैं। यह ध्यान रखना होगा कि राजनीतिक सत्ता और सत्ता का राजनीतिक चरित्र दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिसके कारण ही समस्याएं गहराती हैं।
हमारी अपनी कमजोरियों का फायदा राजनीतिक सत्ता हमेशा से उठाती रही है। हम पेशे से पत्रकार हैं। पर हमारे इस पेशे से हमारे घर का खर्च चल रहा है या नहीं यह हमसे बेहतर कोई नहीं जानता। आंदोलनरत कितने पत्रकारों को मीडिया संस्थान वेतन देती है? इसका जवाब भी हम सबको पता है। यानी हम पत्रकारिता के पेशे में तो हैं पर जीवन की सबसे बड़ी अर्हता वेतन जिससे घर व परिवार का खर्च चलता है उसका कोई हिसाब सीधे तौर पर बहुतेरे के पास नहीं है।
पत्रकारिता करते हुए करीब 30 बरस हुए। इन तीन दशकों में ग्रामीण एजेंट संवाददाता से लेकर अब तक का सफर तय किया है। इसीलिए कमल शुक्ला को समझ सकता हूं। एक ग्रामीण एजेंट संवाददाता को वेतनभोगी पत्रकार बनने तक में लंबा सफर तय करना होता है। पहले पत्रकार किसी राजनैतिक दल के सदस्य या पदाधिकारी तो नहीं बनते थे। बीते एक दशक में यह बदलाव बड़े पैमाने में देखने को मिल रहा है। हर जिले में बहुत से ऐसे पत्रकार मिल जाएंगे जो घोषित तौर पर किसी ना किसी राजनैतिक दल के मीडिया प्रभारी, पदाधिकारी या कार्यकर्ता होंगे।
यही वह बिंदु है जहां से पत्रकारिता को लेकर विवाद और विषाद की शुरूआत होती है। इसका परिणाम सामने साफ दिखाई दे रहा है कि अब राजनैतिक दल सीधे तौर पर पत्रकारों को अपना राजनैतिक विरोधी घोषित करते हुए पूरे मामले को राजनीतिक बताने का प्रयास करते हैं।
मैं कमल शुक्ला के बहुत से शब्दों से सहमत नहीं हूं।
मेरी असहमति भाषाई मर्यादा को लेकर स्पष्ट है। यह अमर्यादित भाषा घटना से पहले की है या उसके बाद की। यह भी देखा जाना चाहिए। मैं शब्दों की मर्यादा की आड़ में उस घटना से मुंह फेर नहीं सकता जो सबके सामने है। कमल शुक्ला में सौ बुराई होगी। पर जिस मुद्दे के साथ सामने आया है वह पूरी तरह नाजायज भी नहीं है।
हम उत्तर प्रदेश के हाथरस में पुलिस की भूमिका पर सवाल खड़ा कर सकते हैं तो हमें छत्तीसगढ़ पुलिस की उस भूमिका भी करीब से देखना समझना होगा जिसमें थाने के सामने किसी पत्रकार के साथ मार—पीट और गाली—गलौच का विडियो सामने दिख रहा है। हम यदि योगी आदित्यनाथ की भूमिका पर बतौर मुख्यमंत्री सवाल खड़ा कर सकते हैं तो निश्चित तौर पर छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की भूमिका पर भी सवाल खड़ा होगा।
यही कमल शुक्ला हैं जिन पर अपने समाचार पत्र में कार्टून प्रकाशित करने पर पूर्ववर्ती भाजपा सरकार ने राष्ट्रद्रोह का मुकदमा दर्ज करवा दिया था। अब यही भाजपा है और उसके समर्थक कांग्रेस की सत्ता में कमल शुक्ला के साथ खड़े हैं न्याय की मांग को लेकर। तब कांग्रेस कमल शुक्ला के साथ खड़ी थी।
यानी पत्रकारों को समझने की दरकार है कि राजनीतिक मीडिया के माध्यम से अपना हित साधने की कोशिश करते हैं। उनका अंतिम उद्देश्य सत्ता की प्राप्ति होता है।
बहुधा पत्रकारों को ऐसे विद्रुप राजनीति का शिकार होने से बचना चाहिए। उन्हें स्पष्ट तौर पर अपनी पत्रकारिता और मानक की रक्षा के लिए निहित स्वार्थ से उपर उठकर विचार व संघर्ष करना चाहिए। पत्रकार का कोई दल नहीं होता। यदि पत्रकार किसी दलगत राजनीति में शामिल है तो उसे पत्रकार नहीं होना चाहिए। यदि है तो उसका राजनीतिक उद्देश की पूर्ति के लिए साथ भी नहीं देना चाहिए।
इसी प्रदेश में पत्रकार विनोद वर्मा के खिलाफ राज्य सत्ता के स्पष्ट दुरूपयोग को साक्षात देखा था। तब भी पत्रकार आंदोलित हुए थे। जब रूचिर गर्ग ने पत्रकारिता को त्याग कर राजनीतिक दल में शामिल होना स्वीकार किया तो अटपटा लगा था। मैंने तो उनसे निवेदन किया था कि अपनी राह बदल लें। लौट आएं। मैंने कहा था आप पत्रकार ही अच्छे…।
राजनीतिक दल की सदस्यता के बाद उन्होंने भले ही यह मान लिया कि पत्रकार नहीं रहे। पर छत्तीसगढ़ के पत्रकार उन्हें राजनीतिक नेता मानने को तैयार नहीं है। हमे यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि जब कोई व्यक्ति राजनीतिक सत्ता के साथ शामिल हो जाता है तो उसकी भूमिका दलीय आधार पर हो जाती है। यही स्पष्टता ही हमे विवादों से बचाए रखेगी।
अब पत्रकारों की लड़ाई में यदि किसी व्यक्ति को राजनीतिक तौर पर बदनाम करने की कोशिश सिर्फ इसलिए की जाएगी कि वह पहले पत्रकार था। तो मैं इसका विरोध करता हूं। चाहे इस नारा के साथ कमल शुक्ला ही क्यों ना खड़े हों।
पूर्ववर्ती सरकार में हमने एक स्टिंग में साफ देखा था कि जनसंपर्क का अधिकारी एक बुजुर्ग पत्रकार से किस भाषा में बात कर रहा था? क्या यह भूला दिया गया है? इसे कहने का आशय यही है कि सत्ता में जो रहेगा उसे अपने तरह से काम करना होता है। इसी से उसका भविष्य भी सुनश्चित होता है।
सैद्धांतिक पत्रकारिता के अपने खतरे होते ही हैं। बशर्ते सिद्धांत दिखावा की बजाय स्थापित परंपरा का निर्वाह करें। बहुत से पत्रकारों को लेकर आम धारणा है कि वे नशा करते हैं। जिन लोगों के साथ नशा करते हैं उन्हीं के साथ विवाद होता है। सिद्धांत और नैतिकता की अपनी—अपनी परिभाषा हो सकती है पर सर्व ग्राह्यता के लिए भाषाई विद्वता अनिवार्य शर्त है। जिसका पालन करने की सबसे ज्यादा उम्मीद केवल पत्रकारों से ही की जाती है।
यदि सत्ता के साथ पत्रकारिता के संघर्ष को लेकर बात होगी तो हमारी अपनी नैतिकता और सिद्धांत ही हमारी मजबूती सुनिश्चित कर सकते हैं। सत्ता के साथ संघर्ष के दुष्प्रभाव हो सकते हैं अंतत: गलत को ही पराजय स्वीकारना पड़ेगा। यह तभी संभव है जब हम अपने राजनीतिक लाभ के उद्देश्यों की गठरी का बोझ लेकर सत्ता के खिलाफ संघर्ष का दिखावा ना करें…