तो यह तय मान लेना चाहिए कि नक्सल मुक्त बस्तर की डेडलाइन 31 मार्च 2026 ही है…
सुरेश महापात्र।
नक्सल मोर्चे पर अविश्वसनीय सफलता के बाद माओवादियों का गढ़ ढहता दिखाई दे रहा है। बस्तर में बड़ी तेजी के साथ परिस्थितियाँ बदलती दिखाई देने लगी। इसके पीछे का रहस्य एक ऐसी कहानी है जो न केवल रणनीतिक कौशल और नेतृत्व की दृढ़ता को दर्शाती है, बल्कि सामाजिक-आर्थिक बदलाव और स्थानीय समुदायों के विश्वास को जीतने की शक्ति को भी उजागर करती है।
छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में नक्सलवाद का खात्मा लंबे समय से एक असंभव सपना माना जाता था। यह क्षेत्र माओवादियों का गढ़ रहा है, जहां घने जंगल, दुर्गम इलाके और स्थानीय समुदायों पर माओवादियों का प्रभाव सुरक्षाबलों के लिए हमेशा चुनौती रहा है। लेकिन हाल के दो वर्षों में जो बदलाव देखने को मिला है, वह अभूतपूर्व है। आइए, इस सफलता के पीछे के प्रमुख कारणों को विस्तार से समझें।
बस्तर में नक्सलवाद के खिलाफ मिली इस अविश्वसनीय सफलता के पीछे कई कारक एक साथ काम कर रहे हैं—दूरदर्शी नेतृत्व, रणनीतिक बदलाव, स्थानीय समुदायों का विश्वास, विकास और सुरक्षा का समन्वय, और माओवादियों के सूचना तंत्र को तोड़ना।
नेतृत्व और रणनीतिक बदलाव
नवंबर 2023 में छत्तीसगढ़ में विष्णुदेव साय को मुख्यमंत्री के रूप में चुना जाना एक अप्रत्याशित लेकिन दूरदर्शी कदम था। विष्णुदेव साय एक आदिवासी नेता हैं, जिनका सार्वजनिक जीवन में कोई विवाद नहीं रहा। वे एक सौम्य, सरल और संस्कारी राजनेता के रूप में जाने जाते हैं, जिन्होंने कभी गुटीय राजनीति में हिस्सा नहीं लिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय नेतृत्व ने उन पर भरोसा जताया, क्योंकि वे एक ऐसे नेता थे जो संगठन के अनुशासन के प्रति समर्पित थे और व्यक्तिगत वर्चस्व की राजनीति से दूर थे।
छत्तीसगढ़ में लंबे समय से एक आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग थी, खासकर बस्तर और सरगुजा जैसे आदिवासी बहुल क्षेत्रों में। विष्णुदेव साय का चयन इस मांग को पूरा करने के साथ-साथ स्थानीय समुदायों के बीच विश्वास पैदा करने की दिशा में एक बड़ा कदम था। उनके नेतृत्व में सुरक्षाबलों और प्रशासन ने एकजुट होकर नक्सलवाद के खिलाफ अभियान को तेज किया। गृहमंत्री अमित शाह ने मार्च 2026 तक नक्सलवाद को खत्म करने का जो संकल्प लिया था, उसे विष्णुदेव साय ने जमीन पर उतारने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
सुरक्षाबलों की रणनीति में बदलाव
सुरक्षाबलों ने अपनी रणनीति में व्यापक बदलाव किया, जो इस सफलता का एक प्रमुख कारण बना। पहले जहां मुठभेड़ों के बाद अक्सर सवाल उठते थे कि कहीं किसी बेगुनाह को तो नहीं मार दिया गया, वहीं अब हर ऑपरेशन से पहले पुख्ता खुफिया जानकारी जुटाने पर जोर दिया गया। माओवादियों की गतिविधियों पर सूक्ष्म निगरानी शुरू की गई। उनके मूवमेंट, मुलाकातें, रूट और दूरी जैसे हर पहलू को बारिकी से दर्ज किया जाने लगा।
इसके लिए आधुनिक तकनीक का भी सहारा लिया गया, जैसे ड्रोन, सैटेलाइट इमेजरी और इंटेलिजेंस नेटवर्क को मजबूत करना। हर ऑपरेशन को गोपनीयता के साथ अंजाम दिया गया ताकि माओवादियों को भनक तक न लगे। इस रणनीति ने सुरक्षाबलों को माओवादियों के खिलाफ सटीक कार्रवाई करने में मदद की, जिसके परिणामस्वरूप नंबाला केशव राव जैसे बड़े नेताओं को मार गिराने में सफलता मिली।
स्थानीय समुदायों का विश्वास जीतना
बस्तर में माओवादियों का प्रभाव कम करने के लिए सबसे बड़ा कदम था स्थानीय आदिवासी समुदायों का विश्वास जीतना। लंबे समय से बस्तर में सुरक्षाबलों पर फर्जी मुठभेड़ों और आदिवासियों की हत्या के आरोप लगते रहे हैं। माओवादी इन आरोपों का फायदा उठाकर स्थानीय लोगों को अपने पक्ष में करते थे। लेकिन इस बार सरकार ने एक अलग रणनीति अपनाई।
नियद नेल्ला नार योजना की शुरुआत इस दिशा में एक मील का पत्थर साबित हुई। इस योजना के तहत यह स्पष्ट किया गया कि जहां भी सुरक्षाबलों का कैंप स्थापित होगा, उसके 5 किलोमीटर के दायरे में सभी तरह के विकास कार्यों को प्राथमिकता दी जाएगी। सड़क, बिजली, पानी, स्कूल, अस्पताल जैसी बुनियादी सुविधाओं को तेजी से पहुंचाया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि जहां पहले कैंप लगाने के खिलाफ प्रदर्शन होते थे, वहीं अब स्थानीय लोग इन कैंपों को अपने क्षेत्र के विकास का आधार मानने लगे।
इसके साथ ही, सरकार ने आदिवासियों के बीच जागरूकता अभियान चलाए। उन्हें बताया गया कि माओवादी उनके विकास के सबसे बड़े दुश्मन हैं, क्योंकि वे स्कूल जलाते हैं, सड़कें बनने नहीं देते और इलाके को हिंसा की आग में झोंकते हैं। धीरे-धीरे स्थानीय समुदायों ने माओवादियों का साथ छोड़ना शुरू किया और सुरक्षाबलों का समर्थन करना शुरू कर दिया।
माओवादियों के सूचना तंत्र को तोड़ना
माओवादियों की ताकत उनके सूचना तंत्र में थी। स्थानीय लोग डर के कारण उनकी मदद करते थे और सुरक्षाबलों की गतिविधियों की जानकारी उन्हें दे देते थे। लेकिन जब स्थानीय समुदायों का भरोसा सरकार की ओर बढ़ने लगा, तो माओवादियों का यह नेटवर्क कमजोर पड़ने लगा। जो लोग पहले डर के कारण माओवादियों का साथ देते थे, वे अब खुलकर सुरक्षाबलों के साथ सहयोग करने लगे।
इसके अलावा, सुरक्षाबलों ने माओवादियों के समर्थकों को चिह्नित करने और उनके खिलाफ कार्रवाई करने की रणनीति भी अपनाई। इससे माओवादियों का मनोबल टूटने लगा और उनकी गतिविधियां सीमित होने लगीं।
विकास और सुरक्षा का समन्वय
इस अभियान की सफलता का एक बड़ा कारण विकास और सुरक्षा के बीच बेहतर समन्वय रहा। पहले जहां सुरक्षाबलों के ऑपरेशन और विकास कार्य अलग-अलग चलते थे, वहीं अब दोनों को एक साथ जोड़ा गया। नियद नेल्ला नार योजना के तहत कैंप स्थापित होने के साथ-साथ विकास कार्यों को प्राथमिकता दी गई। इससे न केवल स्थानीय लोगों का जीवन स्तर सुधरा, बल्कि सुरक्षाबलों को भी ऑपरेशन में मदद मिली।
उदाहरण के लिए, सड़कों का निर्माण होने से सुरक्षाबलों की पहुंच उन दुर्गम इलाकों तक हो गई, जहां पहले माओवादी आसानी से छिप जाते थे। बिजली और संचार सुविधाओं के विस्तार ने खुफिया जानकारी जुटाने में मदद की। स्कूल और अस्पतालों के निर्माण ने स्थानीय लोगों को यह भरोसा दिलाया कि सरकार उनके हित में काम कर रही है।
माओवादियों का आत्मसमर्पण और गिरफ्तारी
इस रणनीति का एक और सकारात्मक परिणाम यह रहा कि बड़ी संख्या में माओवादियों ने आत्मसमर्पण करना शुरू कर दिया। ऑपरेशन ब्लैक फॉरेस्ट के बाद 54 नक्सलियों की गिरफ्तारी और 84 नक्सलियों के आत्मसमर्पण ने माओवादी आंदोलन को और कमजोर किया। आत्मसमर्पण करने वाले माओवादियों को पुनर्वास और मुख्यधारा में लाने के लिए सरकार ने योजनाएं बनाईं, जिससे अन्य माओवादियों को भी आत्मसमर्पण के लिए प्रेरणा मिली।
केंद्रीय और राज्य सरकार का तालमेल
इस सफलता के पीछे केंद्रीय और राज्य सरकार के बीच बेहतर तालमेल भी एक बड़ा कारण रहा। गृहमंत्री अमित शाह ने जहां इस अभियान को राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व और संसाधन प्रदान किए, वहीं मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने इसे स्थानीय स्तर पर लागू करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। दोनों स्तरों पर एक साफ लक्ष्य था—मार्च 2026 तक नक्सलवाद को खत्म करना। इस लक्ष्य के प्रति दोनों सरकारों की प्रतिबद्धता ने सुरक्षाबलों और प्रशासन को एकजुट कर दिया।
विष्णुदेव साय जैसे आदिवासी नेता का नेतृत्व और नियद नेल्ला नार जैसी योजनाओं ने इस अभियान को न केवल सैन्य सफलता दी, बल्कि सामाजिक-आर्थिक बदलाव का एक मॉडल भी प्रस्तुत किया। यदि यह गति बनी रही, तो मार्च 2026 तक बस्तर से नक्सलवाद का खात्मा एक ऐतिहासिक उपलब्धि होगी, जो न केवल छत्तीसगढ़ बल्कि पूरे देश के लिए एक मिसाल बनेगी।