शांति वार्ता की पेशकश : बस्तर के नक्सली इतिहास में जब-जब दबाव बढ़ा तब-तब वार्ता की पहल हुई पर नतीजा सिफर रहा…
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गणेश मिश्रा।
प्रदेश ही नही बल्कि देश भर में शांति वार्ता को लेकर अब तक नक्सलियों की ओर से करीब 4 बार पर्चे के माध्यम से प्रस्ताव आ चुका है और उससे भी बड़ी बात की नक्सलियों के इन चारों प्रस्तावों का प्रदेश के गृहमंत्री व उप मुख्यमंत्री विजय शर्मा हर बार जवाब दे चुके हैं इस बार तो अंतिम प्रस्ताव पर गृहमंत्री ने यहां तक कह दिया कि नक्सली अपनी ओर से जब तक किसी को अपना प्रस्तावक बनाकर नही भेजते तब तक वार्ता कैसे सम्भव है?
उन्होंने कहा कि माओवादियों को सरकार से चर्चा करना है तो सरकार तैयार है। परंतु माओवादी वार्ता को लेकर प्रेस नोट में जिस समिति की बात कर रहे हैं न ऐसी कोई समिति है और न ही किसी समिति को मैं जानता हूँ!
अंत मे उन्होनो यह भी कहा कि बंदूक का जवाब बंदूक से होता है चर्चा से नही! जिसका सीधा सीधा मतलब है कि जब तक नक्सली बन्दूक नही छोड़ देते तब तक शांति वार्ता कदापि संभव नही है और जायज भी है कि सिर्फ पत्रवार्ता से शांतिवार्ता कभी भी सम्भव नही हो सकता ये सिर्फ और सिर्फ जुबानी जंग तक ही सीमित होकर राह जाएगी।
अगर नक्सली वास्तव में शांति वार्ता चाहते हैं तो होना यह चाहिए कि नक्सली पर्चों की जगह 2004 में आंध्रप्रदेश की तर्ज पर अपनी ओर से शांतिवार्ता के लिए कुछ चुनिंदा लोगो को अपना प्रस्ताव लेकर सरकार के पास भेजना चाहिए। जो शांति वार्ता में शामिल नही होंगे पर नक्सलियों की ओर से सिर्फ शांति वार्ता के प्रस्तावक मात्र होंगे।
इस खूनी जंग के बीच अब तक ऐसा कोई भी कदम नक्सलियों की ओर से नजर नही आया। केंद्र और प्रदेश में भाजपा की सरकार बनने के बाद और उससे बड़ी बात केंद्रीय मंत्री अमित शाह के नक्सलवाद के खात्मे को लेकर मार्च 2026 का डेड लाइन तय कर दिया है।
इसके बाद से पिछले करीब 15 महीनों में नक्सलियों के सेंट्रल कमेटी से लेकर बस्तर सब जोनल ब्यूरो के प्रभारी ने शांति वार्ता और युद्ध विराम को लेकर करीब 4 बार शांति वार्ता का प्रस्ताव भेजा है। सारे प्रस्ताव सशर्त हैं और दूसरी ओर सरकार शर्तो को लेकर वार्ता के लिए तैयार नही है।
अब सवाल यह है कि क्या कभी सरकार और नक्सली पत्र वार्ता से ऊपर उठकर वास्तविक वार्ता की ओर बढ़ पाएंगे? क्या ये खूनी खेल खत्म हो पायेगा? या क्या कभी जल जंगल और जमीन के इस खूनी संघर्ष के बीच जवानों और बेकसूर ग्रामीणों शहादत और हत्याओं पर विराम लग पायेगा? और क्या कभी इस बात से पर्दा उठ पायेगा कि शोषित, पीड़ित, प्रताड़ित, वर्ग-संघर्ष, पूंजीपति और जमीदारी के खिलाफ शुरू हुआ नक्सल आंदोलन आखिर क्यों खूनी संघर्ष में तब्दील हो गया?
कैसे पूरा संगठन लेव्ही वसूली करने लगा,जानकार बताते है कि नक्सली हिंसक होने के साथ साथ तेंदूपत्ता ठेकेदार, उद्योगपतियो के अलावा हर वर्ग से संगठन चलाने के नाम से बड़े पैमाने पर लेव्ही वसूली में लगा हुआ है। जिसका 90 फीसदी हिस्सा आंध्र और तेलंगाना के बड़े नक्सली नेताओ की झोली में जाता है।
जिसका खुलासा कई बार करोड़ों रुपये लेकर आत्मसमर्पण करने पहुंचे नक्सली नेताओ ने भी किया है। उसके बाद सवाल अब यह भी उठता है कि फर्जी मुठभेड़ों का हवाला देकर जंगलों में प्रवेश पाने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ता और समाझसेवी भी आज इस शांतिवार्ता से दूर नजर आ रहे हैं। जबकि इन्हें आगे आकर युद्धविराम पर सार्थक चर्चा करनी चाहिए ताकि बस्तर में किसी निर्दोष का खून न बहे और शांति स्थापित हो सके।
अगर शांतिवार्ता की बात हो रही है तो सरकार और नक्सलियों को पत्रवार्ता और जुबानी जंग से ऊपर उठकर सन 2004 में आंध्रप्रदेश में नक्सलियों की ओर से किये गए शांतिवार्ता के प्रस्ताव और वार्ता के पहल को जरूर याद करना चाहिए। जहां शांति वार्ता के लिए सबसे पहले नक्सलियों की ओर से आंध्र प्रदेश से ही कुछ प्रस्तावक सरकार के पास भेजे गए थे।
जिसके बाद नक्सल नेता आरके उर्फ अक्की राजू के नेतृत्व में नक्सलियों के चुनिंदा नेता सरकार के साथ वार्ता के लिए एक टेबल पर बैठे थे भले ही वह वार्ता विफल हो गयी। उस दौरान सार्थक पहल की गई थी उसके बाद 21 अप्रेल 2012 में सुकमा कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन का नक्सलियों ने अपहरण कर लिया था और उनकी रिहाई के लिए भी नक्सलियों की ओर से मध्यस्ता के लिए बीडी शर्मा और प्रोफ़ेसर हरगोपाल को नियुक्त किया गया था।
जिसके बाद ही 3 मई 2012 को उन्हें रिहा किया गया था,उसी तरह कोबरा जवान राकेश्वर मन्हास के अपहरण के बाद भी नक्सलियों की ओर से तीन सदस्यीय वार्ताकार नियुक्त किये गए थे और एक जनअदालत में CRPF जवान को रिहा किया गया।
अब सवाल यह उठता है कि क्या इस बार सरकार से शांति वार्ता के लिए नक्सली नेता इसी तरह शांति वार्ता और युद्ध विराम के लिए वार्ताकार नियुक्त नही कर सकते जो सरकार के पास जाएं और नक्सली नेताओ की ओर से वार्ता के लिए जायज मांग और बात रख सकें।
नक्सली नेताओं और सरकार को यही लगता है कि सिर्फ पत्रवार्ता और जुबानी जंग से युद्धविराम हो जाएगा और प्रदेश समेत देश भर में शांति बहाली हो जाएगी?
आज बस्तर समेत पूरे देश में नक्सलवाद और शांति वार्ता को लेकर एक नई बहस छिड़ चुकी है लोग शांति वार्ता और युद्ध विराम को लेकर कई प्रकार की बातें करने लगे हैं। शांति वार्ता और युद्ध विराम से पहले इस बात को भी जानना जरूरी है कि आखिर 45 सालों से बस्तर में व्याप्त नक्सलवाद, हिंसा और खूनी खेल किस तरह बस्तर में प्रवेश किया था और कैसे अपनी जड़ें जमाते हुए देखते ही देखते उन लोगों ने देश भर में अपना वर्चस्व कायम किया?
बात 1980 के दशक की है नक्सल नेता कोसा, रमन्ना, सायन्न, सुधाकर ,वीरन्ना, कुमार अन्ना और गोपन्ना जैसे कुल सात नक्सल नेता 49 लोगों के दल के साथ एक दो नाली बंदूक, दो पिस्टल और 40 गोलियों के साथ भोपालपटनम के भद्रकाली होते हुए बस्तर में प्रवेश किया। देखते ही देखते यह सात लोगों से 49 सदस्यीय दल ने पूरे देश में नक्सलवाद और नक्सलियों की फौज खड़ी कर दिया।
बस्तर आने वाले उन सात नक्सली नेताओं में से कई लोग तो मारे जा चुके हैं, एक या दो नक्सली नेता अब भी जीवित हो सकते हैं परंतु जो लोग मारे जा चुके हैं। जो जीवित हैं उन्होंने अपने जैसे कई नक्सली नेता बस्तर में खड़े कर दिए और उसके बाद यह आंदोलन विचारधारा से परे उठते हुए हिंसात्मक हो चुका और अब स्थितियां ऐसी है कि उस हिंसा को रोकने के लिए युद्ध विराम और शांति वार्ता की पहल भी नक्सलियों की ओर से ही की जा रही है। नक्सलियों की ओर से अब तक कोई भी ठोस पहल होता हुआ नजर नहीं आ रहा।।
नक्सलवाद को करीब से जानने वाले और अपनी नौकरी का लगभग आधे से ज्यादा समय नक्सल मोर्चे पर तैनात रहकर नक्सलियों से लोहा लेने वाले बस्तर में पदस्त एक आईपीएस अफसर का मानना है कि “नक्सलियों की ओर शांति वार्ता को लेकर गंभीरता न दिखाना यही साबित करता है कि नक्सली शांतिवार्ता के लिए पर्चे जारी कर महज सरकार को दिग्भर्मित कर रहे हैं और जब जब सरकार और सुरक्षा बल के जवान नक्सलवाद पर हावी होती है तब तब नक्सली शांति वार्ता का स्वांग रचते है!”
अगर वास्तव में नक्सली शांतिवार्ता चाहते है तो गंभीरता के साथ उन्हें या उनका प्रतिनिधि मंडल को सरकार के साथ एक टेबल में आना चाहिए। जब तक मुखबिरी के नाम पर निर्दोष ग्रामीणों की हत्या नक्सली बंद नहीं करेंगे तब तक बात आगे नहीं बढ़ सकती। बस्तर के आदिवासी जिन जंगलों में स्वतंत्र होकर विचरण करते हैं। पारंपरिक आखेट के लिए जिन पहाड़ियों में जाते हैं उन सारे इलाकों में जगह जगह आईडी लगाकर आदिवासियों की जान लेना ये कोई विचारधारा नही है। यह समझने की दरकार है नक्सलियों के लिए…
– लेखक गणेश मिश्रा बीजापुर इलाक़े में दशकों से सक्रिय जमीनी पत्रकार हैं।