अब छत्तीसगढ़ बदल रहा है… उसे गांव में बसने वाले लोग साफ दिख रहे हैं…
छत्तीसगढ़ में जमीन से जुड़ती जा रही सरकार…
सुरेश महापात्र।
1 नवंबर 2000 में जब हिंदुस्तान में तीन नए राज्यों का निर्माण हुआ तब मध्यप्रदेश से पृथक होकर छत्तीसगढ़ भी राज्य के तौर पर गठित हुआ। यही करीब डेढ़ बरस पहले छत्तीसगढ़ में पहली बार कांग्रेस की निर्वाचित सरकार काबिज हुई। जरा सोचिए छत्तीसगढ़ निर्माण के बाद इससे पहले कब ऐसा हुआ जब यहां के मौलिक पर्व हरेली को सरकार ने राज्य का पर्व बनाया हो। ना तो ऐसा किया गया ना ही कभी ऐसी सोच दिखाई दी।
अब छत्तीसगढ़ बदल रहा है। उसे गांव में बसने वाले लोग साफ दिख रहे हैं। उसे गांव की व्यवस्था और अर्थव्यवस्था राज्य की अर्थव्यवस्था की बुनियाद दिख रही है। खेती—किसानी को मजबूरी ना बनाते हुए मजबूत करने का माध्यम बनाने की कोशिश दिख रही है। किसान का मजबूर होकर मजदूर बनना छोड़कर मुख्यधारा का व्यक्ति बनाने की दिशा में प्रयास दिख रहा है।
पहली सरकार के मुख्यमंत्री अजित प्रमोद जोगी ने तब एक नारा दिया था ‘अमीर धरती के गरीब लोग’ पर समय कम था। नए राज्य की स्थापना के बाद पूरी प्रशासनिक इकाईयों का गठन और राज्य के बंटवारे में मिली संपत्ति का निर्धारण के साथ जिम्मेदारियों के निर्वाह के लिए सरकार को मिला 3 बरस का समय ज्यादा नहीं था। तब राज्य परिवहन निगम जैसी एक सफेद हाथी जैसी व्यवस्था भी संचालित थी। जिससे छुटकारा पाना और सड़क यातायात के लिए यात्रियों को बेहतर विकल्प देना भी बड़ा फैसला था। इस जैसे कुछ फैसले तो लिए गए। पर सरकार के अहंकार ने बहुत कुछ खराब कर दिया। नारे अच्छे दिए गए पर यह खांचे में बिठाए नहीं जा सके।
इसके बाद 2003 में छत्तीसगढ़ में नए युग का सूत्रपात हुआ। भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी। मुख्यमंत्री के तौर पर डा. रमन सिंह को बड़ा अवसर मिला। इसके बाद 2018 तक पूरे 15 बरस तक सरकार ने काम किया। यह किसी भी सरकार को काम करने के लिए मिलने वाला पर्याप्त समय माना जाना चाहिए।
इन 15 बरस में इक कमी से महसूस होती रही कि विकास की अवधारणा पर बहुत से काम हुए फिर भी कुछ ऐसा था जो छूट रहा था। जिसे समझना आसान नहीं था पर मन में एक कसक तो थी ही। केवल सड़क, पुल—पुलिया और भवनों के बन जाने भर से विकास का क्रम पूरा नहीं हो जाता। बल्कि सवाल यह था कि इन विकास की योजनाओं के बीच कुछ छूट रहा था तो वह प्योर छत्तीसगढ़ की महक ही था जिसे नजरअंदाज किया गया। यदि भाजपा सरकार चाहती तो डेढ़ दशक में समूचे छत्तीसगढ़ की शिक्षा व्यवस्था को पटरी पर ला सकती थी। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मुख्यधारा से जोड़ सकती थी। उद्योग और उत्पादन के मामले में एमओयू जैसे दिखावे से परे कुछ बड़ा हासिल कर दिखा सकती थी। पर ऐसा नहीं हुआ।
उल्टे जो भी योजना लागू की गई उसमें क्रियान्वयन का भारी अभाव रहा। यदि राजधानी को बस्तर से जोड़ने वाली केशकाल घाट को ही देख लें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि 15 बरस में इस दिशा में सरकार ने काम पूरा क्यों नहीं किया? यह उसकी प्राथमिकता में था ही नहीं। जबकि यह प्राथमिकता में होना चाहिए था। इसी तरह से बस्तर में शिक्षा को लेकर तमाम प्रयोग हुए पर यदि दंतेवाड़ा जिले के जावांगा एजुकेशन सिटी को छोड़ दें तो कुछ नया दिखाने लायक नहीं है।
किसी एक कलेक्टर के व्यक्तिगत प्रयास से किए गए कार्यों पर भले ही सरकार अपनी पीठ थपथपावा ले पर यह मानना ही चाहिए कि सरकार ने इस निर्माण के लिए अपने बजट से कितना दिया यह बताया ही नहीं जा सकता। यह तो किसी एक जिलाधिकारी के विवेक पर था कि वह परिक्षेत्रीय विकास निधि की राशि को किस काम के लिए उपयोग में लेता है।
इसी तरह से चिकित्सा और अन्य मामलों में भी स्पष्ट दिखता है। यदि एनएमडीसी ने मेडिकल कॉलेज के लिए आर्थिक मदद नहीं दी होती तो यह भी अधर में ही अटका रहता। बस्तर से जुड़ा हूं मैनें प्रत्यक्ष देखा है इसलिए यह दावे के साथ कह सकता हूं। इन तथ्यों को पूर्व सरकार की आलोचना के तौर पर ना लेकर एक उदाहरण के लिए प्रस्तुत करने की कोशिश है। यह बताने के लिए कि यदि पहले मुख्यमंत्री को लगता था कि छत्तीसगढ़ की धरती अमीर है और यहां के लोग गरीब हैं… तो यह महज जुमला नहीं था। बल्कि हकीकत में ऐसा ही था।
जब पहले निर्वाचित मुख्यमंत्री के तौर पर डा. रमन सिंह आए तो उनकी प्राथमिकताएं क्या रहीं? केवल सरकार चलाना या किसी एक दिशा में आगे बढ़कर कुछ ऐसा करना जिससे यह स्थापित किया जा सके कि डेढ़ दशक का यह हासिल है। तेंदूपत्ता, वनोपज और बस्तर के आदिवासी समेत सारे मसलों पर मध्यप्रदेश के दौर से ही काम चल रहा था। दो रुपए किलो चावल योजना को छोड़ दें तो कोई ऐसी योजना नहीं है जिसकी राष्ट्रीय स्तर पर छत्तीसगढ़िया पहचान मिली हो।
पूर्ववर्ती रमन सरकार को बस्तर में एक बड़ा मौका मिला जब टाटा स्टील ने निवेश के लिए सहमति दी। इसके लिए भूअर्जन की प्रक्रिया बड़ी कठिनाई से पूरी की गई। पर सरकार मैदान में फेल हो गई। दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव ने बस्तर के हिस्से का सबसे बड़ा अवसर खो दिया। टाटा और अन्य कंपनियों के बीच में बड़ा अंतर है। इसके काम करने की शैली जनता से जुड़ी हुई ही रहती है। टाटा ने 10 हजार करोड़ के निवेश के लिए एमओयू किया था। परियोजना फेल हो गई।
यदि लोग कहेंगे कि रमन सरकार ने नगरनार में एनएमडीसी के लिए स्टील प्लांट की आधारशिला रखवाई। तो यह बता दूं कि मध्यप्रदेश के दौर में इसकी शुरूआत हो चुकी थी। अजित जोगी के कार्यकाल में कलेक्टर रिचा शर्मा के रहते सन 2002 में भूअर्जन की प्रक्रिया पूरी की गई थी। यानी इसकी प्रक्रिया पहले से ही चल रही थी।
यह बताने का आशय यह है कि अब छत्तीसगढ़ में नई सरकार अपनी नई दिशा तय करते हुए विकास की राह पकड़ने की तैयारी कर रही है। भूपेश बघेल के मुख्यमंत्री बनने के बाद कई फैसलों ने चौंकाया। शुरू में तो यह लगा कि सरकार अपनी दिशा से दिग्भ्रमित हो रही है। पर ऐसा लग रहा है कि धीरे—धीरे सही दिशा की ओर बढ़ना शुरू कर दिया है।
भूपेश सरकार के लिए आने वाले 2 बरस ही हैं जब कुछ करके दिखाना होगा। पहला बरस चुनाव के साथ खत्म हो गया। दूसरे बरस का पहला हिस्सा कोरोना के संक्रमण ने लील लिया है। ऐसे में जब नई योजनाएं जमीन पर दिखना शुरू हुई हैं विशेषकर जिनसे छत्तीसगढ़िया महक मिले तो अच्छा लगना स्वाभाविक है।
रायपुर के नवभारत में एक किसान गोविंद पटेल का आलेख पढ़ा। उसमें उन्होंने जिन चिंताओं का जिक्र करते गोधन योजना का जिक्र किया है उसे पूर्ण मानना ही सही लग रहा है। देखें लिंक
पीढ़ियों को फायदा देगी गोधन न्याय योजना…
इस आलेख को पढ़ने के बाद यह विचार बलवती हुई कि छत्तीसगढ़ में सरकार को ग्रामीण अर्थव्यवस्था को ध्यान में रखकर ही काम करना चाहिए। यदि गरीबी दूर करनी है तो अंतिम तौर पर सच्चा गरीब गांव में ही रहता है जिसके पास खेती का जमीन है फिर भी वह मजदूरी के लिए राह ताक रहा है। उस जमीन के मालिक किसान को सही खेती और खेती में पैदावार की सही कीमत मिल जाए तो उसे दो रुपए किलो चावल की जरूरत नहीं होगी। वह ब्याज में पैसे लेकर अपना जमीन किसी जमींदार को बेचने मजबूर नहीं होगा।
गांव का पैसा ही शहर में लौटेगा और इससे व्यापार बढ़ेगा। व्यापार का चक्र बिना गांव को धुरी माने पूरा नहीं हो सकता। शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क और शुद्ध पेयजल जनता को मुहैया करवाना सरकार की नैतिक जिम्मेदारी है। इसके अलावा मुफ्तखोरी से हटाकर लोगों के लिए रोजगार के अवसर मुहैया करवाने की जिम्मेदारी भी सरकार ही है। छत्तीसगढ़ में नई सरकार ने वास्तव में नई दिशा दिखाने की शुरूआत की है। बस इस शुरूआत को सतत संचालित होते रहने और सुशासन की राह पर चलने की जरूरत सरकार की है।