Kanak Tiwari ने पत्रकारिता पर दो अत्यंत महत्वपूर्ण आलेख लिखे… भारतीय पत्रकारिता के मौजूदा दौर पर यह लेख और उसकी टिप्पणियां संजोकर रखने लायक हैं…
फेसबुक वॉल से…
सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर हर तरह के लोग और समूह हैं। कुछ विचारवान लेखक, पत्रकार और वैचारिक तौर पर विचारधारा से जुड़े प्रख्यात लेखक भी इसका हिस्सा हैं। इनमें से एक ऐसे ही गांधीवादी और कांग्रेस विचारधारा से जुड़े वरिष्ठ अधिवक्ता, पूर्व पत्रकार, लेखक और प्रखर विचारशील वक्ता कनक तिवारी भी हैं। दर्जनों पुस्तकें लिखीं हैं। इन्होंने दो खंडों में भारतीय पत्रकारिता की वर्तमान दशा और दिशा पर लेख लिखा। इस लेख को वरिष्ठ पत्रकार रूचिर गर्ग ने अपनी वॉल पर शेयर किया। इस लेख को पढ़ने के बाद उसमें की गई टिप्पणियों ने यह एहसास कराया कि यह दर्ज कर लिया जाना चाहिए। इस लेख और जवाबी टिप्पणियों को वेब में लेने के लिए लेखक कनक तिवारी जी से अनुमति ली है। इसे पढ़ने के बाद संजोकर रख लेना चाहिए…
Ruchir Garg
हमारे समय के महत्वपूर्ण टिप्पणीकार,वरिष्ठ लेखक और जाने माने वकील Kanak Tiwari जी ने पत्रकारिता पर दो अत्यंत महत्वपूर्ण आलेख लिखे हैं।
पत्रकारिता की दशा और दुर्दशा को समझने के लिए,पत्रकारिता के संकट,उसके अपने संघर्ष और ढोल पत्रकारिता के बीच सत्ता की लय पर नृत्य करने से इंकार करती पत्रकारिता को समझना हो तो इन्हें जरूर पढ़िए।
निश्चित ही यह विषय बहुत व्यापक है लेकिन कनक जी के आलेख इस प्रश्न पर वैचारिक खलबली मचाते हैं।
दूसरा आलेख शेयर कर रहा हूं , पहले का लिंक कमेंट बॉक्स में देखिए :
आप चाहें तो यह विनिबंध सुरक्षित रख लीजिएगा
पत्रकार का सरकारी या पेशेवर धर्म नहीं होता। इस अर्थ में वह नास्तिक और मूर्तिभंजक होता है। उसकी आस्था या आस्तिकता विचार के प्रति होती है, व्यक्ति के प्रति नहीं। वह भाषा और अभिव्यक्ति गढ़ता है। इससे ही उसका चरित्र लिखा जाता है। उस पूरे अभियान को मैट्रिक फेल नेताओं और आक्सब्रिज के स्नातक नौकरशाहों की जुगलबंदी ने ‘बुद्धू के बक्से‘ को देश का प्रवक्ता बनाकर चुनौती दे रखी है। टेलीविजन गरीब और ग्रामीण इलाकों में सूचनाएं और शिक्षा देने के नाम पर जाॅब चार्नाेक की सी मासूमियत लेकर आया था। अब ‘गाॅड सेव दी किंग‘ गा रहा है। इलेक्ट्राॅनिकी भारतीयता के विकास में खलनायक की भूमिका में भी विकसित की जा रही है। उससे देश की देह पर क्या क्या नहीं थूका जा रहा है? टेलीविजन श्रुतियों और स्मृतियों जैसी परम्परा का वंशज है।
प्रिंट और इलेक्ट्राॅनिक मीडिया का काम वैसे तो रचनाधर्मिता की नस्ल का ही है। अखबारों और खबरिया चैनलों का मकसद केवल सूचनाएं देना, रिपोर्टें बनाना या अपनी राय थोपना नहीं है। प्रत्येक मीडिया-स्त्रोत की अपनी एक सोच, शब्दावली और अभिव्यक्ति की शैली सहित समाज के प्रति प्रतिबद्धता होती है। मुक्तिबोध के शब्दों में इसमें कई बार अभिव्यक्ति के खतरे उठाने होते हैं। इंडियन एक्सप्रेस समूह ने आपातकाल के दौरान अपने मालिक रामनाथ गोयनका के नेतृत्व में साहसी पत्रकारिता का नायाब उदाहरण प्रस्तुत किया था।
हाल के वर्षों में मीडिया कर्म में बेहद गिरावट आई है। संवाददाता के स्तर पर कम, मालिकों के स्तर पर बहुत ज्यादा। पहले तो विज्ञापन लेना और अनुकूल समाचार छापना गणित के समीकरण की तरह था। यह अब बीते जमाने की बात है। अब संवाददाता और संपादक की विज्ञापनकबाड़ू या इच्छाधारी भूमिका ही नहीं रही। अब महाप्रबंधक सीधे चुनाव के उम्मीदवारों और उद्योगपतियों और नौकरशाहों वगैरह से थोक में डील करते हैं। बने बनाए समाचार संवाददाताओं के मत्थे कलंक की तरह मढ़ दिये जाते हैं। जिन पार्टियों और उम्मीदवारों को लेकर जीतने की गारंटीशुदा भविष्यवाणियां की जाती हैं, वे औंधे मुंह या चारों खाने चित होते हैं। संबंधित मीडिया अपनी मिथ्या रिपोर्टिंग के लिए खेद तक प्रकट नहीं करता बल्कि अगले ही दिन से विजयी पार्टियों और उम्मीदवारों का खैरख्वाह बन जाता है।
अब तो पैकेज डील होता है। कुछ मुख्यमंत्री देश में नंबर एक बता दिए जाते हैं। कुछ सच्चे व्यक्तियों की चरित्र हत्या या चरित्र दुर्घटना कर दी जाती है। अमेरिका और यूरोप जैसे शोषक देशों की संस्कृति को अप्रत्यक्ष बढ़ावा मिलता रहता है। इलेक्ट्राॅनिक मीडिया स्टंट फिल्मों की किस्म के समाचार दिखाता रहता है। समाचार पत्रों में एक साथ त्रासदी, हास्य-प्रहसन और धारावाहिक सड़ी गली खबरों का पाठ होता रहता है। देश के किसानों, पीड़ित महिलाओं, शोषित बच्चों, बहादुर सैनिकों, चरित्रवान वरिष्ठ नागरिकों, वास्तविक स्वयंसेवी संस्थाओं और प्रचार तथा निंदा से दूर रहकर काम करने वाले समाजसेवकों को समाचारों के योग्य नहीं समझा जाता। समाचार पत्रों को पढ़ने और दूरदर्शन के चैनलों को देखने से चटखारे ले लेकर चाट खाने का मजा आता है। अन्यथा उसे समाज का सुपाच्य और विटामिनयुक्त भोजन होना चाहिए।
कोलकाता से प्रकाशित अंगरेजी अखबार ‘टेलीग्राफ‘, प्रसिद्ध अखबार ‘हिन्दू‘, कभी कभार ‘इंडियन एक्सप्रेस‘ वगैरह में सरकार को आईना दिखाने वाले समाचार रहते हैं। ‘टेलीग्राफ‘ ने ठीक लिखा कि नरेन्द्र मोदी ने बहुत कुशलतापूर्वक देश की मीडिया को दो फांकों में बांट दिया है। एक अखबार कई झूठी खबरें छापकर जनता की तकलीफों को देखने के बदले सोता रहता है। अपना नाम लेकिन ‘जागरण‘ रखता है। एक अखबार सूर्य की तरह उजाला करने की कोशिश में ‘भास्कर‘ कहलाता है। कभी कभी सरकारी दबाव के कारण उन बादलों में छिप जाता है जिनमें भारतीय सेना के राडार प्रधानमंत्री के अनुसार छिप जाते हैं। फिर पाकिस्तान की फौजें राडार को देख नहीं पातीं। ‘न्यूज़ क्लिक‘ से जुड़ी छापेमारी के खिलाफ रोश प्रदर्षित करने में प्रेस क्लब की बैठक में बड़े अखबारों के सम्पादक गायब थे। जबकि 1975 में इन्दिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल के विरोध मार्च में कुलदीप नैयर, बी. जी. वगीज़, अरुण शौरी वगैरह जैसे शीर्ष पत्रकार शामिल हुए थे।
फिर भी प्रधानमंत्री के चेहरे पर न तो शिकन है और न मुंह से कोई आवाज़ निकलती है। ऐसा नहीं है कि उन्हें वाचालता नहीं आती। वे भारत के ताज़ा इतिहास के सबसे ज्यादा वाचाल राजनीतिक नेता हुए हैं। वे कम बोलना तो जानते ही नहीं। खासकर उन सब मुद्दों पर जहां उन्हें अपनी गुडविल और टी आर पी बढ़ाने की तबीयत होती है। व्यापक इंसानी मसलों पर वे चुप्पी काढ़ लेते हैं। भले ही लोगों का कितना ही नुकसान क्यों न हो जाए। हो भी रहा है।
पुण्य प्रसून बाजपेयी को भी एक साजिश के तहत उनके नियोक्ता चैनल से हटने पर मजबूर होना पड़ा। अब वे भी अपने साथियों की तरह यू ट्यूब पर बेहद सक्रिय, संघर्षशील और दो टूक कहने की हिम्मत और आदत रखते हैं। कभी मैंने उनसे विनोद में कहा था कि उत्तर भारत में जातिवाद के खिलाफ सबसे पहला संघर्ष कबीर और रैदास के गुरु स्वामी रामानंद ने किया था। यह संयोग है कि स्वामी रामानंद के पिता का नाम भी पुण्यप्रसून बाजपेयी ही था।
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Anurag Dwary
एक सवाल मेरा भी है, क्या पत्रकारिता सिर्फ संपादकीय या राजनीतिक दलों पर टीप है … क्या हर दिन समाज के सरोकार की खबरें हाशिये पर चली जाएंगी और चर्चा मोदी जी के लिये ताली और गाली पर होगी, क्या देश समाज एक शख्स के आसपास की कहानी सुनना चाहता है … यक़ीनन जो जो विषय उठाये गये वो अहम हैं लेकिन क्या बाकी विषयों पर पूरी मेहनत से काम करने की अब जगह नहीं बची है … कभी कभार हम लोग भी निराश होते हैं, थकते हैं … क्या करें …
Ruchir Garg
Anurag Dwary यहां चर्चा एक तरह से उन बातों की है जिनसे हिंदुस्तान की पत्रकारिता प्रभावित हुई,बदनाम हुई,अपनी धार खोने लगी।दूसरी बात,समाज के सरोकार भी तो पत्रकारिता के विषय कहां रहे ? आपने सही सवाल किया कि क्या देश समाज एक शख्स के आसपास की कहानी सुनना चाहता है ? यकीनन नहीं पर दुर्भाग्य से कथित मुख्यधारा तो आमतौर पर इसी कहानी के इर्दगिर्द ठहरना चाहती है।
Kashif Choudhary
#कनक_तिवारी जी नामचीन लेखक, वकील हैं. इस दृष्टि से जब उनके लेख को हम पढ़ते हैं तो उम्मीद होती है कि न्यायपरक होगा लेकिन अफसोस कि उनके इस लेख में एकतरफा झुकाव स्पष्ट दिखता है. तिवारी साहब आरोप लगा रहे हैं कि मोदी ने देश के मीडिया को दो भागों में बांट दिया है. क्या यह नेहरू, इंदिरा और राजीव के युग में नहीं बंटा था. बीबीसी को तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी ने अपने बंगले में बुलाकर इंटरव्यू देने से इंकार कर दिया था. मतलब जो सरकार के खिलाफ हैं, भड़ास निकाल रहे हैं, सिर्फ वही पत्रकारिता कर रहे हैं. दिल्ली में केजरीवाल के बंगले में एक राज्यसभा सांसद महिला से क्या क्या नही हुआ, मगर इन बड़े नामचीन के मुंह में कुछ नही फूटा! बस्तर में ना जाने कितने पत्रकार जेल में डाल दिए गए, कई जान जोखिम में डालकर पत्रकारिता कर रहे हैं, छत्तीसगढ़ में तीन-तीन पत्रकारों की हत्या हुई. आज तक न्याय नही मिला, तिवारी जी किसी का तो नाम जोड़ते. क्या दलित और वामपंथी विचारधारा को पुष्ट करने वाले ही असल पत्रकार हैं. #अनुराग_द्वारी जी की चिंता से सहमत हूं मैं. हजारों पत्रकार सोशल-नेशनलिज्म वाली पत्रकारिता कर रहे हैं लेकिन उनके नाम याद नही रहे क्योंकि वे आपकी विचारधारा के साथ नही हैं. माफ करिएगा, आपकी और तिवारी जी की टिप्पणी ‘सिलेक्टिव जर्नलिज्म’ से ज्यादा कुछ नही है. आपको यह लेख इसलिए अच्छा लगा क्योंकि ये सभी पत्रकार आपकी विचारधारा वाले खेमे से हैं बस.
DrAnil Dwivedi सही कह रहे हैं आप…और #pankaj_jha जी भी! सारा मसला तो सिर्फ विचारधारा और खेमे का ही तो है!बाकी तो सब बढ़िया चल रहा है!
DrAnil Dwivedi देश की मीडिया को दो भागों में बांटने वाली बात मैंने टेलीग्राफ अखबार को उद्धरित करते हुए कही है। वह मेरा कथन नहीं है। बाकी कथन मेरा तो है। मैं गोदी मीडिया का शत्रु हूं ऐसा कह सकते हैं आप और बहुत पत्रकारिता मैंने की है। शायद आपको मालूम नहीं है। वैसे मेरा उसूल यही है कि अपनी प्रोफाइल लॉक करके कोई मेरी पोस्ट पर टिप्पणी करेगा तो उसे मैं ब्लॉक करूंगा। प्रोफाइल खोलिए फिर अच्छे से बात करेंगे।
पंकज कुमार झा
एक मित्र के बताने पर फिलहाल टिप्पणी ही पढ़ पाया हूं, दोनों लेख बाद में कभी पढ़ता हूँ। हालाँकि बिना इन दोनों लेखों को पढ़े भी लेख के विषय वस्तु की कल्पना कर सकता हूँ। इतना अधिक स्पष्ट है आजकल सभी कलमजीवियों का पक्ष कि मजमून समझने के लिए अब लिफाफा तक खोलने की आवश्यकता नहीं होती।
दोनों लेख और मेरे पूर्ववर्ती की टिप्पणी का लब्बोलुआब एक वाक्य में कहा जा सकता है कि – ‘सच्ची पत्रकारिता का आशय एक ऐसी विधा से है, जो भाजपा को ध्वस्त कर दे। जो मोदी को देश निकाला दे दे।
यह पत्रकारिता की नयी परिभाषा है जो गढ़ने की कोशिश पिछले कुछ वर्षों के दौरान हुई है। और क्या ही कहें।
जरा सी ताकत मिल जाने पर पिछले पांच वर्ष में मीडिया और पत्रकारों के साथ यहां क्या-क्या किया गया, यह जनसामान्य तक को बेहतर पता है।
एक एक शीर्षक तक डिसाइड करने वाले, पत्रकारों को बर्बरता से पीटने वाले, उनकी गाड़ी में ड्रग्स डाल कर जेल में ठूंस देने वाले, बुलडोजर चला कर घर खोद और तोड़ देने वाले, बिजली कटौती तक की बात करने पर राजद्रोह लगा देने वाले पक्ष के लोग अगर आज मीडिया की कथित पक्षधरता का रोना रोते हैं, तो क्या ही कहा जाय।
लंबी बहस हो सकती है इस पर हालांकि फेसबुक इसका उचित मञ्च नहीं है, फिर भी आश्चर्य तो लगता ही है इस अरण्य रोदन पर।
दुःखद है कि लोकतांत्रिक तरीके से मुकाबला नहीं कर पाने वाले, जनता से बुरी तरह ख़ारिज हो जाने वाले लोग अपने अंतिम आस के रूप में यह उम्मीद करते हैं कि 10 ऐसे हारे थके अधेड़, जिन्होंने जीवन भर सत्ता की रोटी पर पलते हुए पक्षधारिता की हो, वे यू ट्यूब पर कुछ भीड़ एकत्र कर भारत का, भारत के लोकतंत्र का मुकाबला कर लेंगे, ऐसे लोग जो स्वयं एक पंच का चुनाव तक नहीं जीत सकते वे, विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को हांक लेंगे, यह ऐसा ही है जैसे निरमल बाबा की हरी चटनी खा लेने से किरपा आ जाने का मुगालता हो या किसी सुदूर देश में लिखे मार्क्स या मजहब की कोई पुस्तक रट लेने से भारत को समझ लेने का दावा हो।
दुनिया आपकी सोच से काफी अधिक आगे बढ़ चुकी है नेता जी। अब चंद अंगुलियों पर नाचने वाला तंत्र संभव नहीं है। अब हर नागरिक बुद्ध की तरह आपसे पूछने को तत्पर है – मैं तो ठहर गया, तुम कब ठहरोगे अंगुलिमाल?
पुनश्च : आज तिवारी जी का लेख शेयर करने से अधिक आवश्यक उस दिन इनके पक्ष में खड़ा रहना उपयोगी हो सकता था जब बड़े बेआबरू करके तब के उन्मत्त सत्ता के कूंचे से निकाले गये थे ये लेखक। जीवन भर जिस समूह के लिये अपनी प्रतिभा खर्च करते रहे थे कचहरी से लेकर अखबारों के दफ्तर तक, सभा सम्मेलनों से लेकर सेमिनारों तक… लेकिन जब काठ की हांडी गलती से चढ़ गयी थी एक बार और अच्छे दिन जरा आ ही गये थे, तब दशकों की सेवा का फल दूध की मक्खी बना देने में निकला था, आवश्यक तब था कथित ‘निष्पक्षों’ का उमड़ पड़ना, किंतु कौरव सभा से अधिक चुप्पी देखी गयी थी। है न?
पंकज कुमार झा जी : कनक तिवारी जी ने आज की पत्रकारिता-पत्रकारों को ‘दलाल’ शब्द की संज्ञा दी है. बुरा नही लगता है क्योंकि कुछ तो हैं भी पत्रकारिता में. लेकिन आपकी टिप्पणी पढ़ने के बाद मन में सवाल यह कौंधा है कि आज का पत्रकार जिसे दलाल कहा जा रहा है— वह इतना चालाक क्यों नही हो सका कि वह प्रत्येक राजनीतिक दल-विचारधारा वाली सरकार में ‘एडजस्ट’ हो जाए या ‘लाभ का पद’ हासिल कर ले! कैसे सीखा जा सकता है यह हुनर! इसे दलाली कहते हैं या चालाक होना. कमाल का चातुर्य है यह.
राजेन्द्र बाजपेयी जगदलपुर
कनक जी का लेख पत्रकारिता के मूक और दरबारी भाट के चरित्र का बोध कराता है ।
निसन्देह मालिकों और जनरल मैनजरों की स्वार्थ परक भूमिका इसके लिए काफी हद तक जिम्मेदार है ।
आदरणीय कनक जी के लेख पढ़कर गन्दगी में सनी वर्तमान बदबूदार पत्रकारिता को लेकर घिन व उबकाई आने लगती है ।
स्वयम का परिचय पत्रकार के रूप में देना अंदर से अपराध बोध सा लगता है ।
खैर हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता की भांति इस पर जितनी चर्चा की जाए कम है ।