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मुद्दा : तिरूपति लड्डू मामले में जो हो रहा है वह दूषित प्रसाद खाने से भी ज्यादा घिनौना…

सुरेश महापात्र।

राजनीति में एक स्थापित सत्य है कि यह दो शब्दों का मिलन है जिसमें ‘राज’ और ‘नीति’ शामिल हैं। बीते कुछ समय से राजनीति की विद्रुपता चरम पर है। ‘राज’ अपनी ‘नीति’ स्थापित करने के लिए जिस तरह से घिनौना होता जा रहा है उससे हर तथ्य पर अब संदेह होने लगा है। ऐसा ही संदेह विश्वप्रसिद्ध तिरूपति बालाजी मंदिर के प्रसादम को लेकर उत्पन्न कर दिया गया है।

जिन लोगों ने बीते कुछ बरसों में प्रसिद्ध ​तीर्थ स्थल में पूजा अर्चना की और वहां का भोग प्रसाद ग्रहण किया वे अपनी भावनाओं को नियंत्रित नहीं कर पा रहे हैं।

वे स्वयं को भगवान के भरोसे छोड़ें या अपने अराध्य के प्रति निष्ठा बनाकर रखें और यह मानें कि ‘ईश्वर’ ने यदि ऐसा कुछ हो जाने दिया हो तो भी वह ‘ईश्वरीय’ ही है। बीते कुछ दिनों से तिरूपति प्रसादम वाले मामले को लेकर जिस तरह से बातें हो रही हैं वे ना केवल घिनौनी हैं बल्कि राजनीति का चरम भी है। इससे आगे की कल्पना बेमानी जैसी है।

इस मसले को लेकर मेरे अविवेकी मन में भी कुछ सवाल हैं मसलन यदि चंद्राबाबू केवल राजनीति ही कर रहे हैं तो उन्होंने पवित्र मंदिर का आसरा क्यों लिया? यदि पूर्व सीएम जगनमोहन रेड्डी को यह पता था कि कम दर पर लिए जाने वाला यह ‘घी’ अशुद्ध है तो तिरूपति मंदिर प्रशासन के उन सभी ब्राम्हण सेवादारों ने इसे लेकर आपत्ति क्यों नहीं उठाई? क्या दुनिया के अमीर खजाने वाली इस मंदिर में अलौकिक शक्ति का वास नहीं है जिसने ऐसा होने से ना रोका?

इस मामले के सामने आने के बाद जिस तरह से जानकारी बाहर आ रही हैं उससे दो बड़े सवाल हैं पहला यह कि किसी भी तरह से अ​पवित्र घी के सीधे प्रवेश में किसी एक व्यक्ति के फैसले से यह कतई संभव नहीं है। यानि यदि जगनमोहन रेड्डी ने पवित्र देवस्थान को अपवित्र करने की साजिश रची भी तो वे अपने अकेले के दम पर ऐसा कर ही नहीं सकते! इसके लिए उन्हें उन ब्राम्हण सेवादारों की सहमति के लिए बा​ध्य करना होता… क्या उन्हें ऐसा करने के लिए बाध्य किया गया?

खैर इन सवालों का जवाब ढूंढने से पहले हमें यह जानना होगा कि क्या यह सब कुछ इतनी आसानी से संभव हो सकता है? अब तक जो कुछ भी देखने और समझने में आया है उससे साफ है कि ऐसा हो पाना असंभव की हद तक कठिन है! यदि अपवित्र घी से प्रसादम के निर्माण और भोग से जुड़े इस मसले को देखें तो कई बातें इस बात की चुगली कर रही हैं।

मसलन जुलाई में जिस तथ्य की जानकारी सीएम चंद्राबाबू नायडू को मिली उन्होंने तत्काल प्रसादम निर्माण की पूरी प्रक्रिया को सीज किए बगैर घी के टेंडर की प्रक्रिया की ओर क्यों बढ़ना उचित समझे? वे प्रसादम निर्माण की प्रक्रिया को तत्काल प्रभाव से बाधित कर दो—चार दिनों तक जब तक नई व्यवस्था लागू नहीं हो जाती तब तक प्रसादम के वितरण को बंद करवा सकते थे? ऐसा उन्होंने क्यों नहीं किया? यदि उन्होंने ऐसा नहीं किया तो दूषित प्रसादम के वितरण को निष्प्रभावी नहीं करने की जिम्मेदारी तो चंद्राबाबू पर भी समान रूप से बनती है।

दुख की बात है कि इस दौर में सब कुछ भीड़ के हवाले है। चंद्राबाबू ने अपने विधायकों की बैठक में दो माह बाद इस तथ्य की इस तरह से जानकारी दी जैसे वे धीरे से हवा में आग लगाना चाहते हों! इतने संवेदनशील मामले में किसी मुख्यमंत्री द्वारा इस तरह से बर्ताव क्या सवालों के घेरे में नहीं होना चाहिए?

आंध्रप्रदेश सरकार इस समय मामले के देशव्यापी विमर्श और चिंता के केंद्र में आने के बाद जिस तरह से सवाल उठा रही है इसकी भी निंदा करना चाहिए। क्योंकि जिस समय यानि दो माह पहले जब जानकारी मिली तो क्या मुख्यमंत्री ने अपने ही उपमुख्यमंत्री पवन कल्याण को भी इस बात की जानकारी नहीं दी? तिरूपति में लाखों दर्शनार्थी पहुंचते हैं। सभी की इच्छा होती है कि वे वहां का प्रसादम लेकर ही आएं। लोग प्रसादम लेकर आते हैं और अपने परिचित हर संबंधी को प्रसादम देते हैं। यह गौरवशाली परंपरा है।

इस परंपरा में अब इतना बड़ा संदेह खड़ा कर दिया गया है कि मंदिरों में मिलने वाले हर तरह के प्रसाद में अब शुद्धता का संदेह खड़ा हो जाएगा। देश में हिंदु राष्ट्रवादी राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व की सरकार है। इसका नेतृत्व हिंदु हृदय सम्राट नरेंद्र मोदी कर रहे हैं। इस मामले में अब तक केंद्र सरकार ने जो रवैया अपनाया है इससे साफ जाहिर है कि सरकार को इस विवाद की बुनियाद पर ही संदेह है। सरकार इस मसले पर खुलकर कुछ भी कहने बताने और करने को तैयार नहीं दिख रही है। ऐसा क्यों?

मुझे लगता है कि ऐसा करना मजबूरी है। सबसे बड़ी मजबूरी हिंदु धार्मिक आस्था के मामले में किसी भी तरह की जल्दबाजी से धार्मिक भावनाओं के आहत होने का बड़ा खतरा है। लोग अभी सशंकित हैं पर उन्हें अभी भी उम्मीद है कि भगवान करे कि यह सब कुछ उतना बड़ा सच ना हो जैसा मीडिया में यकायक खड़ा कर दिया गया। यानी मिलावट के मामले में कम से कम घी के साथ सोया, नारियल, मूंगफल्ली जैसे तेल की मिलावट तक ही तथ्य हो… कम से कम फिश आयल और सुअर की चर्बी जैसा कुछ ना हो?

 खैर इन सवालों का जवाब ढूंढने से पहले हमें यह जानना होगा कि क्या यह सब कुछ इतनी आसानी से संभव हो सकता है? अब तक जो कुछ भी देखने और समझने में आया है उससे साफ है कि ऐसा हो पाना असंभव की हद तक कठिन है! यदि अपवित्र घी से प्रसादम के निर्माण और भोग से जुड़े इस मसले को देखें तो कई बातें इस बात की चुगली कर रही हैं।

मसलन जुलाई में जिस तथ्य की जानकारी सीएम चंद्राबाबू नायडू को मिली उन्होंने तत्काल प्रसादम निर्माण की पूरी प्रक्रिया को सीज किए बगैर घी के टेंडर की प्रक्रिया की ओर क्यों बढ़ना उचित समझे? वे प्रसादम निर्माण की प्रक्रिया को तत्काल प्रभाव से बाधित कर दो—चार दिनों तक जब तक नई व्यवस्था लागू नहीं हो जाती तब तक प्रसादम के वितरण को बंद करवा सकते थे? ऐसा उन्होंने क्यों नहीं किया? यदि उन्होंने ऐसा नहीं किया तो दूषित प्रसादम के वितरण को निष्प्रभावी नहीं करने की जिम्मेदारी तो चंद्राबाबू पर भी समान रूप से बनती है।

इसके इतर एक और मामला राजनीति को लेकर मन में संशय उत्पन्न कर रहा है। कई बरस पहले जब तमिलनाडू में डीएमके की सरकार का तख्तापलट हुआ था और एआईडीएमके यानि जय ललिता मुख्यमंत्री बनीं थी। उसके बाद नेशनल टीवी पर एक दृश्य सभी ने देखा था कि तमिलनाडू में पूर्व मुख्यमंत्री एम करूणानिधि को किस तरह से पुलिस घसीटते, उठाते गिरफ्तार करते हुए दिखाई दी थी। दक्षिण में राजनीति भी दक्षिण की सिनेमा की तरह ही करिश्माई होती है।

जैसा हम सोच नहीं सकते उससे परे जाकर सिनेमा के पर्दे पर दिखाया जाता है। बॉलीवुूड भी दक्षिण सिनेमा से प्रभावित हो चुका है अब ​सिनेमाई रोमांस के बीच में दक्षिण टाइप फाइट से ही फिल्मे हिट हो रही हैं। वहां राजनीति भी इसी तरह की है। दक्षिण में आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ​तमिलनाडू, कर्नाटक की राजनीति को करीब से देखें​गे तो वहां वैचारिक मतभेद की जगह वैचारिक वैमन्यस्यता साफ दिखाई देता है। यानि सत्ता हासिल होने के बाद पूर्व की सत्तारूढ़ पार्टी को पूरी तरह नेस्तनाबूत कर देना। इस इलाके में राजनीति की रवायत है।

आंध्र प्रदेश में एन चंद्राबाबू नायडू ने सत्ता हासिल करने से पहले जगनमोहन रेड्डी के दौर में क्या कुछ नहीं भोगा? यह भी सर्वविदित है। अवसरवादी राजनीति के प्रतिबिंब में चंद्राबाबू और जगनमोहन एक ही साइड में खड़े हैं। उनमें प्रतिद्वंदिता चरम पर है। केंद्र की राजनीति में चंद्राबाबू शामिल हैं। राज्य में उनकी साझेदार पार्टी भाजपा है। केंद्र में एनडीए की सरकार में जगनमोहन रेड्डी का पूर्ण समर्थन बीते दस बरस से है। इस बार भी वे साथ ही हैं। 

ऐसे में राज्य में राजनीति हिंदु केंद्रित कर जगनमोहन को ठिकाने पर लगाने की रणनीति या कूटनीति का हिस्सा भी तिरूपति माला से एक तार की तरह ही जुड़ा हो! क्या यह संभव नहीं लगता? यदि ऐसा है तो इस समय तिरूपति मंदिर के प्रसादम की आड़ में चल रही राजनीति से​ घिनौना कुछ भी नहीं है।