बस्तर में माओवादियों के साथ संघर्ष का लंबा इतिहास रहा है। इसमें ना जाने कितने लोगों की मौत दर्ज है। किसे शहीद कहें और किसे मौत? यह भी बड़ा सवाल रहा है। चार दशक पुराने इस माओवादी इतिहास में बस्तर एक अघोषित युद्ध क्षेत्र की तरह ही रहा है।
अब पहली बार ऐसा साफ दिखाई दे रहा है कि बस्तर में लंबे समय तक बैकफुट पर रहे सशस्त्र बलों का आत्मबल कामयाबी से बढ़ा है। हर उस इलाके में सशस्त्र बलों का अब दबदबा साफ दिखाई दे रहा है। कोई पहाड़ी इलाका हो या घने जंगल का क्षेत्र या वे मैदानी इलाके जहां माओवादियों की मंजूरी के बगैर किसी का कदम रखने का साहस ही नहीं था।
अब बस्तर में माओवाद के खिलाफ एक प्रकार से बड़ी जीत का समय है। यह समय है माओवाद समस्या से आदिवासियों की मुक्ति का। यह समय है बस्तर के लिए नए आयाम तलाशने और तराशने का। हमारी पीढ़ी के लिए यह देखना बेहद सुखद ही है कि बस्तर अब शांति का टापू बनने की राह पर है।
बस्तर में दर्ज हजारों मौतों में सबसे ज्यादा बेगुनाहों का खून शामिल रहा है। चाहे वे आदिवासी युवा हों या रोजगार के लिए सुरक्षा बलों का हिस्सा बनने वाले युवा जो देश के विभिन्न राज्यों से आकर बस्तर में अपनी सेवा दे रहे थे। बस्तर में इस समय माओवाद के खिलाफ सबसे बड़े जन आंदोलन का दो दशक का सफर पूरा हो गया है।
इस सफर को जिसने भी अपनी आंखो से देखा है। उसकी कहानियां सुनीं है वह बेहतर महसूस कर सकता है कि इस दौर में बस्तर की जमीन पर जो कुछ हो रहा है वह कितना सुकून देने वाला है।
मुझे यह लिखने में कोई गुरेज नहीं है कि यह बड़ी बात है कि इस समय राज्य में एक आदिवासी मुख्यमंत्री है जिसने बस्तर की तकदीर बदलने की जिम्मेदारी संभाल रखी है। आदिवासी मुख्यमंत्री होने के फायदे और नुकसान दोनों को साफ महसूस किया जा सकता है।
बस्तर में जिस तरह से आदिवासी क्षेत्र की सुरक्षा, विकास और संसाधनों के उपयोग को लेकर पहल हो रही है यह पहली बार जमीन पर दिखाई दे रहा है। यही वजह है कि बड़ी संख्या में आदिवासियों को विश्वास सरकार पर दिखाई दे रहा है और वे दशकों पुराने अपने माओवादियों के साथ रिश्ते को तोड़कर मुख्यधारा में शामिल होने की राह पर आगे बढ़ रहे हैं।
बस्तर में अबूझमाड़ का इलाका आजादी के बाद से अब तक अछूता रहा। बाहरी दुनिया से पूरी तरह अनभिज्ञ यह इलाका माओवादियों के लिए सबसे सुरक्षित पनाहगाह साबित होता रहा। इस इलाके में कई थाने ऐसे भी रहे कि जहां थानों में भी माओवादियों की हुकूमत चलती रही। वहीं दक्षिण पश्चिम बस्तर का वह इलाका जहां से सलवा जुड़ूम जैसा आंदोलन खड़ा हुआ।
यह सही है कि इस अभियान के दौरान माओवादियों के खात्मे के नाम पर आदिवासियों पर ज्यादती की घटनाएं बहुत बढ़ी। एसपीओ की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला ऐतिहासिक रहा। ज्यादती की घटनाओं के कारण ही सुप्रीम कोर्ट ने सलवा जुड़ूम जैसे अभियान को तत्काल बंद करने का आदेश दिया।
पर इस समय बस्तर में चल रही एंटी माओवादी गतिविधि में बहुत बड़ा अंतर है। यह अंतर साफ दिखाई दे रहा है। यह अंतर जमीन पर महसूस किया जा रहा है। डिस्ट्रिक्ट रिजर्व ग्रुप के तहत भर्ती किए गए डीआरजी जवानों का बस्तर के जंगल, पहाड़ और नदियों से पुराना रिश्ता रहा है। ये जवान उत्साहित भी हैं साथ ही चप्पे—चप्पे से वाकिफ भी।
इसके अलावा बस्तर में सीआरपीएफ के लिए जवानों की भर्ती की गई। यानी बसतर में तैनात फोर्स में बस्तर के युवा शामिल हैं। इन युवाओं में बहुत से ऐसे भी हैं जो माओवादी संगठन से नाता तोड़कर विश्वास हासिल करने में कामयाब रहे।
माओवादियों की सशस्त्र क्रांति ने बस्तर का बहुत नुकसान किया है। कोई ऐसा इलाका नहीं है जहां इनकी गोलियों के शिकार होकर बस्तर की माटी लहुलूहान ना हुई हो। रक्त पात का ऐसा खेल जिसे देखकर रूह कांप जाए। यह जिसने भी अपनी आंखो से देखा है इसकी सच्चाई जानी हो उसे साफ लग रहा है कि बस्तर में इस समय जो हो रहा है यह सब उसी अति का अंत जैसा है।
बस्तर में लोगों में इस बात की खुशी भी है कि बस्तर में माओवाद से मुक्ति की राह पर तेजी से आगे कदम बढ़ाया जा रहा है। ये कदम अब थमना नहीं चाहिए। मई का महीना शुरू हो चुका है आज से ठीक 24 दिन बाद यानी 25 मई को माओवादियों ने कांग्रेस की पूरी लीडरशिप को मार डाला था। यह दुर्दांत हत्यारे नक्सलियों की कारस्तानी थी।
उन्होंने यह तक नहीं समझा कि उनके इस हमले में कितने बेगुनाह लोगों को जान से मारने में थोड़ी भी हिचक नहीं रही। ऐसे में सभी यही सोच सकते हैं कि कम से कम माओवाद के खिलाफ इस लड़ाई में कांग्रेस का निष्पक्ष समर्थन होना ही चाहिए।
2013 में इस हादसे के बाद भी प्रदेश में कांग्रेस की सरकार नहीं बन पाई। 2018 में लोगों से अवसर दिया पर कांग्रेस की सरकार ने इस क्षेत्र में माओवादियों के खिलाफ जमीन पर संघर्ष करके यह नहीं जताया कि वे इसका समूल नाश करने को तैयार हैं।
सोच और समझ के साथ क्रियान्वयन में राजनीतिक दलों का अपना—अपना रणनीतिक विचार हो सकता है। पर यह मूल तौर पर स्पष्ट है कि बस्तर में चाहे कांग्रेस हो या भाजपा दोनों ही राजनीतिक दलों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया गया है।
इस समय बस्तर के उस हिस्से में सबसे बड़ी विजय गाथा दर्ज की गई है जहां अबूझमाड़ के बाद माओवादियों ने अपनी शरणस्थली बनाकर रखा था। यह इलाका बस्तर के तेलंगाना राज्य की सीमा से सटा है। इस इलाके में पहाड़ियों की श्रृखंला है। यह घने जंगलों वाला पहाड़ी इलाका है।
यहां तक कभी फोर्स के पहुंचने की ताकत ही नहीं थी। चार दशक बाद अब यहां फोर्स की दमक है। माओवादियों के शीर्ष कमांडर और तमाम बड़े लीडरों के लिए यह सबसे सरल मार्ग रहा है। जब वे बस्तर में किसी बड़ी वारदात को अंजाम देते और बड़ी आसानी के साथ या तो यहां शांति से ठहरकर उस हमले का प्रभाव देखने का आनंद उठाते थे।
इसी इलाके में पड़ता है वह इलाका भी जहां अप्रेल 2010 में माओवादियों ने हिंदुस्तान के सबसे बड़े सशस्त्र बल सीआरपीएफ की पूरी कंपनी को अपने छल से मात दे दिया था। 76 जवानों की शहादत अब तक कोई भी नहीं भूला है।
इसी इलाके में आदिवासी बेटा हेमंत मंडावी जो जगरगुंडा का थानेदार था उसने जगरगुंडा से दोरनापाल तक आदिवासियों के लिए राहत की राह आसान करने की कोशिश की थी उसके साथ आठ जवानों को इसी जंगल में छल से माओवादियों ने मार दिया था।
इसी इलाके के अर्पलमेटा नामक पहाड़ी इलाके में 28 जवानों को अपने फांस में फांसकर माओवादियों ने मार दिया था। 48 घंटे के बाद जवानों के शवों को बाहर लाया जा सका था। इस तरह के सैकड़ों जघन्य घटनाओं का साक्षी बस्तर रहा है। चिंगावरम में एक यात्री बस को बारुद से उड़ाने की घटना को कौन भूला होगा भला?
एर्राबोर में आदिवासियों के राहत शिविर में आगजनी कर सभी को मार डालने की साजिश कोई कैसे भूल सकता है? इन सभी घटनाओं के दौरान ऐसा कभी भी दिखाई नहीं दिया कि जब माओवादियों के खिलाफ किसी भी संगठन ने हिंसा रोककर शांति वार्ता की राह पर चलने की पहल की हो!
इन सभी घटनाओं का प्रत्यक्षदर्शी होने के कारण मुझे लगता है कि बस्तर में नक्सलवाद के खिलाफ चल रहे इस प्रयास को सरकार का सरंक्षण मिलना चाहिए। जवान जंगल के भीतर, पहाड़ के उपर और नदियों से होकर उन इलाकों में घुस रहे हैं जहां प्रवेश निषेद्ध का पर्चा चस्पा कर दिया गया था।
बस्तर में होने वाली मुठभेड़ों में सशसत्र बलों की अब यह भी जिम्मेदारी बढ़ गई है कि किसी भी कीमत पर किसी भी बेगुनाह का खून ना बहे। भरसक प्रयास हो कि जो भी लोग माओवादी संगठन से जुड़े हों उन्हें यह विश्वास दिलाया जाए कि उन्हें सरकार का संरक्षण प्राप्त होगा। उनके लिए सरकार सकारात्मक तौर पर स्वागत करने के लिए तैयार हैं।
बस्तर में तेंदूपत्ता का काम सरकार ने अब सीधे अपने हाथों में ले लिया है। सारे फड़ों में अब वन विभाग सीधे संग्राहकों से तेंदूपत्ता लेकर उन्हें भुगतान करेगी। इसका बोनस भी देगी। इससे तेंदूपत्ता के नाम पर ठेकेदारों से जो भी राशि माओवादी संगठन वसूलता था उस पर रोक लगेगी।
अब वैसे भी ज्यादातर इलाकों में माओवादियों की धमक कम होती दिख रही है तो विभाग को ईमानदारी के साथ संग्रहण करके आदिवासियों को सीधा लाभान्वित कर सकता है। इससे भी विश्वास की बहाली होगी।
अब जब बस्तर में बदलाव का दौर चल रहा है। ऐसे समय में जब माओवादी संगठन पूरी तरह बैकफुट पर है तब यदि शांतिवार्ता का प्रस्ताव आ रहा है तो इसे स्वीकार करने की जरूरत है ही नहीं। कम से कम कांग्रेस को ऐसे किसी शांतिवार्ता के प्रस्ताव से दूर रहकर अपने शहीद नेताओं के प्रति सम्मान को बचाने का प्रयास करना चाहिए।
दुर्भाग्य तो यह है कि इस समय जब गिने—चुने राज्यों में कांग्रेस की सरकार है यदि वह भी अपने नेतृत्व में ऐसे किसी शांति प्रस्ताव को लेकर आगे बढ़ने की कोशिश कर रही है तो उसे भूलना नहीं चाहिए कि माओवादियों ने अपने अब तक के इतिहास में केवल और केवल हिंसा के रास्ते भय पैदा करने की कोशिश की है।
छत्तीसगढ़ में इस समय आदिवासी नेतृत्व विष्णुदेव साय मुख्यमंत्री हैं। वे आदिवासी हैं और आदिवासियों के भावनाओं को उनके पिछड़ेपन को और आदिवासी इलाकों के विकास की मूलभूत जरूरतों को बेहतर समझ सकते हैं।
हाल ही में जब उन्होंने बीजापुर इलाके के कर्रेगुट्टा की पहाड़ी पर माओवादियों के खिलाफ चल रहे आपरेशन के सातवें दिन राजधानी में समीक्षा की तो यह साफ कर दिया कि पूरी सरकार का ध्यान आदिवासी क्षेत्र में हो रहे हर उस कदम पर है जिसका सरोकार अंतत: आम आदिवासी और आम नागरिक ही है।
इस अभियान में विशेषतौर पर यह ध्यान देने की जरूरत है कि किसी भी स्थिति में किसी भी बेगुनाह को मुसीबत में ना डाला जाए। कम से कम मुठभेड़ों में किसी भी ऐसे व्यक्ति की मौत दर्ज ना हो जो वास्तविक मुठभेड़ में हथियार के साथ शामिल ना हो…