पीढ़ियों को फायदा देगी गोधन न्याय योजना…
गोविंद पटेल.
बात 1995 की है, मेरे गांव में करीब 100 गाय कत्लखाने ले जाते हुए पकड़ीं गईं थीं, गौरक्षकों ने उसे गांव के किसानों को बांटने का फैसला किया, तो लोगों की लाइन लग गई. गाय के साथ किसान की फोटो ली गई और एक तख्ती लगाई गई ‘अमानत’. यानी यदि गायों का कोई कानूनी वारिस हुआ, तो अमानत वापस ले ली जाएगी. यह तो 25 साल पहले की परिस्थिति थी, जिसमें किसानों को गाय एक संपत्ति और वैभव की चीज लगती थी. ढाई दशक बाद किसान के खेतों के साथ उनके घरों की परिस्थितियां बिलकुल बदल चुकीं हैं. आज की स्थिति में कोई किसान गाय नहीं पालना चाहता. बल्कि किसान अपनी गायों को दूसरों को मुफ्त में देना चाहते हैं, पर कोई लेना नहीं चाहता है. यही कारण है कि अब हर गांव की सड़कों पर गाय का झुंड बैठा नजर आता है. लोग जिसे गाय को लक्ष्मी का दर्जा देते थे, वही गांव वाले उसे खदेड़ने लगे हैं.
आखरी यह समस्या क्यों आई? इसके तीन मुख्य कारण रहे हैं पहला चारागाह की सिकुड़ती जमीन. दूसरा चरवाही और बरवाही का नहीं मिलना और तीसरा खेती का आधुनिकीकरण और रासायनिकरण. तो फिर इस समस्या का समाधान क्या है, जिससे किसान गाय पालें और हमारे आहार जहरीले रसायनें से मुक्त हो सकें. एक बड़ी विडंबना यह भी है कि हमारी सरकार ने यूरिया जैसे जहरीले रसायन किसानों को बेचने कारखाने से लेकर सोसाइटी तक पूरा तंत्र बना रखा है. इसे किसान खरीद सकें इसके लिये उर्वरक ऋण भी मिलता है.
यही नहीं देश में 73 हजार करोड़ रुपए की सब्सिडी यूरिया पर दी जाती है. पर लोगों को हासिल क्या हो रहा है? धीरे-धीरे हमारे अनाज अपनी पोषकता खो रहे हैं, उनमें रसायन की विषाक्तता आ रही है. जमीन की उर्वरता भी नष्ट हो रही है. आहार में फैलते जहर पर हर कोई चिंता जाहिर करता है. हर कोई जैविक उत्पाद की बात करता है, परंतु इस दिशा में कोई प्रयास नहीं दिखता. किसान यदि अपने खेत में यूरिया डालता है, तो सरकार की ओर से तीन से चार रूपए प्रति किलो की सब्सिडी पर यूरिया आसानी से उपलब्ध हो जाता है. लेकिन वह यदि गोबर खाद का उपयोग करना चाहे, तो उसे कोई अनुदान या ऋण नहीं मिलता.
गौ पालन ऐसा क्षेत्र है जो हमेशा से उपेक्षित रहा है. लेकिन गांव में गोबर आय का जरिया भी रहा है. गोबर से बना छेना (कंडा) ढाई रुपए नें आज भी बिकता है. एक ट्रैक्टर ट्रॉली गोबर खाद खरीदना हो, तो डेढ़ से दो हजार रूपए में मिलती है. लेकिन अभी तक इस क्षेत्र में कोई पहल नहीं हुई. दरअसल गौवंश को लेकर उतनी गंभीरता से आज तक किसी ने काम नहीं किया, जबकि हमारे प्रदेश में हर दो व्यक्तियों पर एक गौवंश है. 19वीं पशुगणना के अनुसार छत्तीसगढ़ में डेढ़ करोड़ मवेशी हैं. इनमें से 98 लाख गौवंश हैं. इनमें से 48 लाख नर है और 50 लाख मादा. 50 लाख गायों में भी केवल 31 लाख दूध देने योग्य हैं. यानी 70 लाख गौवंश का कोई उपयोग नहीं हो रहा है. गोधन न्याय योजना इस दिशा में उठाया गया ठोस कदम है.
हालांकि गोबर खरीदी का निर्णय भी लोगों तो आश्चर्यचकित करने वाला लग रहा है, लेकिन किसी भी नई व्यवस्था को तैयार करने के पहले एेसा संशय स्वाभाविक है. प्रदेश में जब पहली बार तेंदूपत्ता खरीदी की व्यवस्था लागू हुई तब क्या इस तरह के सवाल नहीं उठे रहे होंगे? आज आदिवासियों के आय का बड़ा स्रोत तेंदूपत्ता संग्रहण है. इसी तरह जब धान खरीदी की सरकारी व्यवस्था नहीं बनी थी तब किसानों को समर्थन मूल्य से आधी कीमत पर धान बेचना पड़ता था. एमएसपी पर धान खरीदी की व्यवस्था शुरू हुई, तो कई दिक्कतें भी आईं. धान के दाने पानी में डुबोकर देखने के जुगाड़ से फजीहत भी हुई, लेकिन व्यवस्था बनने में समय लगता है. आज किसानों तक उनके उत्पाद का उचित मूल्य देने का एकमात्र विकल्प धान खरीदी है.
आज स्थिति यह है कि धान खरीदी ही सरकार बनाने के लिये मुख्य चुनावी मुद्दा होता है. गोधन न्याय योजना में गोबर खरीदने का जिम्मा गोठान समितियों को दिया गया है. स्वसहायता समूह को उससे वर्मी कंपोस्ट बनाने और किसानों को बेचने का जिम्मा यूरिया बेचने वाली सहकारी समितियों को ही दिया गया है. सरकार ने इस योजना के लिये वित्तीय व्यवस्था भी की है. छत्तीसगढ़ सरकार का यह फैसला बहुत चुनौतियों भरा है. लोकप्रिय बने रहने के लिये इससे भी आसान योजनाएं बनतीं आई हैं और सरकारी धन का अपव्यय होता रहा है. गोधन न्याय योजना को धरातल पर लाने में लगन और कठिन परिश्रम की आवश्यकता होगी. निश्चित रूप से यह योजना सफल रही, तो न केवल ग्रामीण अर्थव्यवस्था सुधरेगी, बल्कि कृषि और लोगों की सेहत सुधारने के लिये क्रांतिकारी कदम साबित होगा. लोग फिर से गाय को लक्ष्मी के रूप में रखने प्रेरित होंगे.
मनरेगी जैसा फायदा दे सकती है योजना : यदि गोबर खरीदने की व्यवस्था भी धान खरीदी की तरह सफल हो गई तो इसका फायदा पीढ़ियों को मिलेगा. अनाज के साथ मिट्टी को भी जहरीले रसायनों से मुक्त हो सकेगी. इस योजना के लिये सरकार ने लोगों की भागीदारी अधिक रखी है, यह ठीक वैसा ही काम होगा, जिसमें सीमेंट-कांक्रीट नजर नहीं आएगा, पर मनरेगा जैसा अधिक से अधिक लोगों को रोजगार देगा. इस योजना को अमलीजामा पहनाने में आलोचनाएं खूब होंगी, लेकिन सरकार ने इन आलोचनाओं की परवाह नहीं की, बल्कि जैविक खेती के साथ ग्रामीण संस्कृति को पुनर्जीर्वित करने दुष्कर संकल्प लिया है।