#between naxal and force माओवादियों पर दबाव और सलवा जुड़ूम का प्रभाव…
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- सुरेश महापात्र।
घटनाओं के इसी क्रम के बाद आदिवासियों का आक्रोश पुलिस और माओवादियों दोनों के लिए उबलने लगा। (4) आगे पढ़ें
दंतेवाड़ा जिले में माओवादी और सिस्टम का एक विचित्र गठबंधन अप्रत्यक्ष तौर पर शुरू से ही संचालित होता दिखता रहा। प्रशासन ने कभी उन इलाकों में ज्यादा दखल की कोशिश ही नहीं की जहां माओवादियों की धमक है। वे सुरक्षा के विश्वास के साथ ही संचालित होने पर भरोसा करते रहे।
सलवा जुड़ूम के बाद बीजापुर के एक इलाके में आग तो पूरी तरह लग ही चुकी थी। बीजापुर के अंतर्गत चार विकास खंड शामिल हैं। इसमें भैरमगढ़, उसूर, बीजापुर और भोपालपटनम। काफी बड़ा इलाका है। यहां सलवा जुड़ूम भैरमगढ़ और उसूर विकास खंड से बाहर पूरी तरह नहीं ही निकल सका। फिर भी बीजापुर के सीमित क्षेत्र में इसका प्रभाव रहा। भोपालपटनम का इलाका सलवा जुड़ूम के प्रभाव से पूरी तरह अछूता रहा। इसकी वजह थी स्थानीय स्तर पर नेतृत्व करने के लिए कोई सीधे तौर पर सामने नहीं आया।
उन दिनों मैं दैनिक भास्कर की रिपोर्टिंग के लिए दंतेवाड़ा से प्रतिदिन सुबह मोटर साइकिल से निकल जाता और शाम तक किसी भी इलाके में हो रही किसी भी तरह की गतिविधि की रिपोर्टिंग कर लौट आता। दूसरे दिन अखबार में खबर देखकर दिल में तसल्ली होती। संभवत: दैनिक भास्कर में सबसे लंबे अवधि तक प्रथम पृष्ठ पर लगातार 16 दिन बाइ लाइन छपने वालों में गिने चुने पत्रकारों में से मैं एक रहा।
यह आत्म प्रशंसा के लिए नहीं बता रहा बल्कि उस दौरान रिपोर्टिंग का भूत इस कदर हावी रहा कि दो—ढाई सौ किलोमीटर चलने में दिक्कत ही नहीं होती थी। हो सकता है मैं इस मुहीम में अकेला ना रहा हूं पर दैनिक भास्कर ने इस खबर को पहले ब्रेक की थी। तब प्रदीप कुमार संपादक रहे। उन्हें भी शुरूवाती दौर में यह विश्वास ही नहीं था कि बस्तर में आदिवासी माओवादियों के खिलाफ खड़े हो सकते हैं। यही वजह है कि काफी करीब से इस घटनाक्रम को देखता रहा।
सलवा जुड़ूम हिंसक हो चुका था। समर्थक और विरोधी दो हिस्सों में बंट गए थे। तब बीजापुर के विधायक राजेंद्र पामभोई ने इस अभियान का साथ नहीं दिया था। यही वजह थी कि जुड़ूम का विस्तार थमने लगा। बीजापुर इलाके में माओवादियों के ताबड़तोड़ हमलों ने सरकार को बैकफुट पर लाकर खड़ा कर दिया। वह पूरी तरह डिफेंसिव मोड पर रही। महेंद्र कर्मा नेता प्रतिपक्ष थे उन्हें यह पता भी नहीं चला कि जिस मुद्दे पर सरकार को घेरना चाहिए उस मुहिम में वे चक्रव्यूह का हिस्सा बन चुके हैं।
भैरमगढ़ के महेश गागड़ा, विक्रम मंडावी और अजय सिंह सलवा जुड़ूम के दौर में अगुवाई करने वालों में शामिल रहे। एक प्रकार से वे उस दौर में सलवा जुड़ूम के उन प्रत्यक्षदर्शियों में शामिल हैं जिन्होंने जमीनी हकीकत को करीब से देखा है। कुटरू इलाके के शिक्षक मधुकर राव भी इस अभियान के सक्रिय भागीदारों और अगुवा के प्रथम पंक्ति का हिस्सा रहे। इन पर फिर कभी बात विस्तार से करने की कोशिश की जाएगी।
सलवा जुडूम के दौर में एक पत्रकार के तौर पर संघर्ष की पराकाष्ठा को मैंने अपनी आंखों से देखा है। वहां परिस्थितियां ऐसी रही कि सलवा जुडूम के समर्थक बैठकों में ही वहां कथित संघम को लेकर पिटाई शुरू कर देते। भीड़ भी साथ खड़ी हो जाती। गांव के भीतर बहुत ही भयानक हालात निर्मित होने लगा।
एक बार मैं बीबीसी के फैजल मोहम्मद के साथ बीजापुर जिले के संतोषपुर में ऐसी ही एक बैठक में रिपोर्टिंग करने पहुंचा था। वहां दोनों ने बहुत कुछ देखा। बीजापुर से करीब 20 किलोमीटर का पूरी तरह कच्चा फासला तय किया गया। बीजापुर के पत्रकार साथियों में बाबू भाई अब दुनिया में नहीं हैं। इसके अलावा एक—दो और साथी थे जिनके साथ हम मोटर साइकिल पर सवार होकर संतोषपुर पहुंचे थे।
सभा के दौरान फैजल वहां मौजूद लोगों का आडियो रिकार्ड करते रहे। सवाल जवाब होता रहा। फिर बैठक शुरू हुई उसी बैठक में हमारे ही सामने कई ऐसे लोग खड़े हुए जिन्होंने स्वीकार किया कि वे माओवादियों के साथ रहे हैं अब आत्मसमर्पण करते हैं। वहीं एक—दो ऐसे भी थे जिन्होंने स्वीकार नहीं किया पर उनके ही लोगों ने उन्हें पहचान लिया इसके बाद उनकी सोटाई (मारपीट) की गई। जिसके बाद उन्होंने भी समर्पण स्वीकार किया।
ऐसे ही एक बैठक भैरमगढ़ के ताकिलोड़ में हुई। जहां रात को सलवा जुडूम के पदयात्री पहुंचे थे। बैठक में शामिल होने के लिए राज्य के गृहमंत्री रामविचार नेताम भी पहुंचे थे। वहां सभा के दौरान एक पेड़ के नीचे प्रेशर बम फट गया। इस प्रेशर बम को माओवादियों ने सलवा जुडूम से पहले गांव खाली करने के बाद जगह—जगह प्लांट किया था। एक पेड़ के नीचे सुरक्षा कर्मी तैनात था। उसके पैर के नीचे यह प्रेशर बम था। जो पांव के हरकत में आते ही फट गया। सुरक्षा कर्मी गंभीर रूप से घायल हो गया।
इस दौरान ताकिलोड गांव पूरी तरह खाली था। घायल जवान को हेलिकाप्टर से दंतेवाड़ा लाया गया। मैं उसी हेलिकाप्टर में सवार होकर ताकिलोड़ पहुंच गया। कार्यक्रम के दौरान रिपोर्टिंग करने के बाद लौटते हुए मैनें देखा वहां खाली घरों को सलवा जुड़ूम समर्थकों ने आग लगा दिया था। गांव में कोई नहीं था। सारे लोग पहले ही जंगल के भीतर भाग चुके थे।
मेरे वहां पहुंचने से पहले बैठक में क्या हुआ था यह तो देखा नहीं पर गृहमंत्री रामविचार नेताम के साथ हेलिकाप्टर में रायपुर जाने का विकल्प मैंने ठुकरा दिया था। मैंने पैदल ही जुडूम के पदयात्रियों के साथ जाना तय किया। फिलहाल मुझे यह याद नहीं है कि फासला कितना लंबा था। पर ताकिलोड़ से भैरमगढ़ के चिहका घाट पहुंचने में करीब तीन घंटे लगे थे। रास्ते में मिट्टी की सड़क दिखी थी।
कई जगहों पर पगडंडियों के सहारे हमने रास्ता पार किया। सुरक्षा में तैनात जवान सुरक्षित दिखने वाले सड़क की जगह ऐसे पगडंडियों से चलने के लिए प्रेरित करते। उनका इशारा साफ था कि यदि हम इसका ध्यान नहीं रखे तो माओवादियों के किसी प्रेशर बम एंबुश का शिकार हो सकते हैं। इन पगडंडियों के और सड़क के बीच—बीच में माओवादियों द्वारा गढ्ढा खोदकर बनाए गए एंबुश को करीब से देखा। गढ्ढे में नुकीले लोहे के सरिया गाड़े गए थे।
जिसे पत्तों से ढांका गया था। उस इलाके के जुड़ूम में आत्मसमर्पित संघम सदस्य सबसे आगे चल रहे थे। मैं कलेक्टर केआर पिस्दा के साथ चल रहा था। तब मैनें पहली बार किसी कलेक्टर को अपने कंधे पर एके47 टांगे देखा था। रास्ते में हम बहुत से सी बातें करते जा रहे थे। कलेक्टर केआर पिस्दा सलवा जुड़ूम के दौर में कई बार गांव—गांव में चलते सलवा जुडूम अभियान के पदयात्री के तौर पर हिस्सा बनते रहे।
यह बताने का आशय आप समझ सकते हैं कि सलवा जुड़ूम को लेकर सत्ता व विपक्ष के साथ शासन—प्रशासन से लेकर सड़क तक किस तरह का माहौल रहा। इसका सीधा प्रभाव वहां रहने वाले आदिवासियों पर पड़ना स्वाभाविक ही था। यह तय करना कठिन हो गया कि कौन गलत और कौन सही? हत्याएं दोनों ओर से हो रही थी।
गांव के भीतर माहौल खराब हो रहा था। लोग भयभीत होकर सड़क किनारे सरकार के आसरे पहुंचने लगे थे। हजारों आदिवासी बीजापुर जिले के भैरमगढ़ और उसूर ब्लाक से ही कैंप में आकर रहने लगे थे। कैंप में रहने वाले युवा आदिवासियों के लिए ना कोई योजना थी और ही कोई व्यवस्था।
आनन फानन में राहत शिविर में रहने वाले हजारों लोगों के लिए रसद का जुगाड़ किया गया। इसके बाद बदलते हुए मौसम के साथ उनके लिए टीन—टप्पर के साथ अस्थाई निवास की सुविधा दी जाने लगी। भीड ज्यादा हो गई तो वहां गंदगी के लिए व्यवस्था, चिकित्सा के लिए व्यवस्था की जाने लगी। इस बीच करीब दो से तीन महीने का वक्त व्यतीत हो गया। सलवा जुड़ूम अपने गति में था।
भीड़ अब हथियार साथ लेकर निकलने लगी। कैंप के युवाओं को सबसे सामने रखा जाने लगा। उनके लिए रास्ता तलाशने की कोशिशें शुरू हुईं। अंदर से बाहर निकले युूवा आदिवासी बेहद आक्रोशित थे। वे माओवादियों को जड़ से मिटाने के लिए आतुर थे। वे गांव लौटने की बजार सरकार के शिविरों रहकर ही मुकाबला करना चाहते थे। (5)
युवाओं की इस भीड़ में कितने माओवादी प्लांट हो रहे थे इसका अंदाजा किसी को नहीं था। …आगे पढें
क्रमश: