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बस्तर में नक्सलवाद को अब तीन हिस्सों में याद रखा जाएगा…  जब केंद्रीय गृहमंत्री पुवर्ती में रात बिताकर ऐलान करेंगे कि हमने जो कहा था कर दिखाया…

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सुरेश महापात्र। 

यदि केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की भविष्यवाणी सही साबित होती है तो बस्तर मार्च 2026 तक नक्सल मुक्त हो जाएगा। इस राह में फिलहाल लग रहा है कि मंजिल हासिल होने से हम कुछ ही दूरी पर खड़े हैं। चार दशक पुराने माओवाद प्रभावित लाल आतंक के इस कोर क्षेत्र में मुक्ति संघर्ष की राह इतनी आसान भी नहीं है जितना राजधानी में बैठकर लगता है। बस्तर में इसी के साथ माओवादियों के इतिहास को तीन हिस्सों में जाना जा सकेगा। पहला जब वे अपना इलाका मजबूत करते रहे। दूसरा तब जब 2023 से पहले हर उस अभियान को माओवादियों में तबाह कर दिया जो उनके खिलाफ था। तीसरा अब जब केंद्रीय गृहमंत्री पुवर्ती में माओवादियों के सर्वोच्च लीडर के गांव में रात बिताकर ऐलान करेंगे कि हमने जो कहा था कर दिखाया…।

बस्तर संभाग के तारलागुड़ा इलाके में पहली बार बारुदी विस्फोट में जवानों की शहादत हुई। इससे करीब दो दशक पहले तक माओवादियों का आधार इलाका बस्तर के घने जंगलों में पसर रहा था। तब के आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र की सीमा से सटे बस्तर के इलाकों में माओवादियों की पैठ होने लगी। पता ही नहीं चला कि कब अब के नारायणपुर जिला के अबूझमाड़ और सुकमा जिले के चिंतलनार में माओवादियों ने अपनी किलेबंदी कर ली! यानी बस्तर का समूचा इलाका माओवाद के चपेट में समाता चला गया। हजारों की संख्या में मौतों के आंकड़े बस्तर की इस धरा में दर्ज है।

1999 में पहली बार खबर बाहर आई कि माओवादियों ने अपने इलाके के लिए जमीन का पट्टा, राशनकार्ड तक जारी कर दिया है और अपने आधार इलाके में सामानांतर सरकार चलाने लगे हैं। इसके लिए बकायदा लेव्ही की वसूली हो रही थी। विकास कार्यों में माओवादियों का सीधा हस्तक्षेप होने लगा। किस तरह के निर्माण होंगे और किस तरह के निर्माण पर पाबंदी होगी यह सब नक्सल संगठन तय करने लगा।

माओवादियों को अपने आधार इलाके में पक्की सड़क, पुल और बरसाती नालों में पुलिया के साथ छत वाले भवन नामंजूर थे। यही वजह थी कि माओवाद प्रभावित इलाकों में इसके चलते ना तो बिजली पहुंच पाई और ना ही स्वास्थ्य सुविधाएं। अंदरूनी इलाकों में हिंदुस्तान के नागरिक को बुनियादी नागरिक सुविधाओं से वंचित होना पड़ता रहा। यह सब कुछ वर्ष 2000 में पृथक छत्तीसगढ़ बनने तक कायम रहा।

इससे ठीक पहले 25 मई 1998 को बस्तर का पहला विभाजन अविभाजित मध्यप्रदेश के दौर में किया गया। केरल राज्य से बड़े भूभाग पर बसे बस्तर जिले के तीन टुकड़े प्रशासनिक दृष्टिकोण से किए गए उत्तर बस्तर कांकेर जिला बना, दक्षिण बस्तर दंतेवाड़ा जिला और बस्तर का मध्य हिस्सा बस्तर जिला के तौर पर सिकुड़ गया।

सही मायनों में देखा जाए तो यह पहली शुरूआत थी कि बस्तर के सभी हिस्सों के समान विकास के लिए प्रशासनिक सिस्टम को लोगों के करीब तक पहुंचाया जाए। इसके बाद नए राज्य के तौर पर छत्तीसगढ़ का उदय होना माओवाद प्रभावित इलाकों में सरकार की सीधी पहुंच के लिए सबसे बड़ा प्रयास साबित हुआ।

इस समय तक बस्तर के अबूझमाड़ में माओवादियों ने अपना अभेद्य किलेबंदी कर दी जिससे महाराष्ट्र के सीमावर्ती इलाकों से होते हुए दक्षिण—पश्चिम बस्तर अब के बीजापुर जिले तक इंद्रावती के दूसरे छोर में बारसूर, भैरमगढ़, भोपालपटनम का एक बड़ा इलाका उनके कब्जे में शामिल हो गया। इधर इंद्रावती नदी के इस बार एनएच से सटे सभी कस्बों में माओवादियों की दखल बढ़ने लगी। एनएच के पांच सौ मीटर के भीतर से होते हुए बस्तर की दक्षिण सीमा में आंध्र प्रदेश से सटे कोंटा तक माओवादियों ने अपना इलाका घोषित कर दिया।

इस इलाके में दोरनापाल से जगरगुंडा के बीच में चिंतलनार में माओवादियों ने अपनी राजधानी घोषित कर दी। इसी इलाके में एक गांव पुवर्ती भी है जहां माओवादियों के सर्वोच्च लीडर हिड़मा का निवास रहा। यानी एक ऐसी किलेबंदी जिसमें माओवादियों की सहमति के बगैर परिंदा भी पर नहीं मार सकता। इस इलाके में जब—जब फोर्स अंदर दाखिल होने की कोशिश की तब—तब बड़ा नुकसान उठाना पड़ा। इसी चिंतलनार से सटे ताड़मेटला में 2010 में 76 जवानों की शहादत को शायद ही कोई अब तक भूला हो।

वर्ष 2003 के जून तक माओवादियों ने दंतेवाड़ा से अरनपुर होकर जगरगुंडा इलाके में घाट पर चट्टानों की दीवार खड़ी कर दी। गहरे गढ्ढें कर दिए। जगरगुंडा उस दौर में दक्षिण बस्तर का सबसे बड़ा बाजार लगता था। जो पूरी तरह बंद हो गया। दोरनापाल से करीब 50 किलोमीटर दूर बसे जगरगुंडा तक पहुंचने वाले सारे पुल—पुलिए ध्वस्त कर दिए गए। यानी सड़क पहुंच के सारे रास्ते बंद हो गए। इसी जगरगुंडा से बीजापुर, कोंटा, दंतेवाड़ा का सीधा जुड़ाव होता था।

यानी बस्तर के एक तिहाई हिस्से में माओवादियों ने अपना पूरा कब्जा कर लिया। कोंटा इलाके में कई बार फोर्स ने अपने सर्चिंग आपरेशन के दौरान बड़ी संख्या में शहादत दी है। इस इलाके में यह तय करना असंभव हो गया कि कौन सामान्य नागरिक और कौन माओवादी? इसी बीच जून 2005 में दक्षिण पश्चिम बस्तर बीजापुर इलाके में माओवादियों के खिलाफ आदिवासियों का विरोध जमीन पर दिखने लगा।

बैठकों का दौर शुरू हो गया और आदिवासियों में माओवादियों और फोर्स दोनों के खिलाफ जबरदस्त आक्रोश सामने आया। ग्रामीणों का आरोप था कि ‘माओवादी सरकारी काम होने नहीं देते और अंदरूनी इलाकों में सर्चिंग में जाने वाली फोर्स से आम जनों पर दबाव बढ़ता। मुठभेड़ों के बाद माओवादी ग्रामीणों के खिलाफ जनअदालत लगाकर जुल्म करते और फोर्स अंदरूनी इलाकों में माओवादियों के शक में मारपीट करती।’

इस घटनाक्रम ने समूचे बस्तर में सबसे बड़े बदलाव की बुनियाद रख दी। पूरा इलाका अघोषित युद्धक्षेत्र में तब्दील हो गया। मौतों के आंकड़े इस कदर बढ़ने लगे कि हिसाब करना भी दूभर हो गया। तीन दर्जन से ज्यादा कैंप बनाकर जान बचाने के लिए अंदर से बाहर आने वाले आदिवासियों को शरणार्थी बनाकर रखा गया। हजारों की तादात में लोग बेबस जिंदगी में जीवन यापन करने को मजबूर हो गए। बस्तर पूरी तरह से दो हिस्सों में बंट गया। इसके बाद माओवादियों के लिए ‘अंदरवाले’ शब्द का प्रयोग होने लगा।

सलवा जुड़ूम अभियान को लेकर मानवाधिकार संगठनों और सरकार के बीच सीधी लड़ाई होने लगी। मानवाधिकार संगठनों के प्रति बाहरी इलाकों में यह दुर्भाव खड़ा हुआ कि वे केवल एक तरफा हिंसा और पीड़ितों के लेकर अपनी बात कर रहे हैं। माओवादियों की हिंसा में मारे जा रहे लोगों के प्रति उनका नजरिया नकारात्क क्यों है? क्या माओवादियों की हिंसा में जान गंवा रहे लोगों को न्याय नहीं मिलना चाहिए? यह सबसे बड़ा सवाल खड़ा होता रहा। इस घटनाक्रम के बीच बस्तर के कई गांव वीरान होते चले गए।

जान बचाने के लिए लोग या तो सीमावर्ती आंध्र प्रदेश में शरणार्थी बनकर रहने लगे या सलवा जुड़ूम कैंप में शिफ्ट हो गए। जो बच गए वे माओवादियों के आधार इलाकों में उनके आश्रम में रहने लगे। दरअसल माओवादियों के आश्रय में जाने वाले ज्यादातर लोगों को यह लग रहा था कि उन्हें अपनी जमीन पर काम करना है। वे यदि उसे छोड़कर चले जाएंगे तो उनकी आजीविका कैसे चलेगी?

इस पूरे घटनाक्रम को यदि समझे तो अब साफ दिखाई देता है कि बस्तर में माओवादियों के प्रभाव के बढ़ने के साथ ही इसका सीधा प्रभाव अंदरूनी इलाकों के विकास पर सीधे तौर पर पड़ा। विकास कार्यों के लिए माओवादियों की पाबंदी का सीधा प्रभाव आम जनमानस पर पड़ने लगा। लोगों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, राशन जैसी बुनियादी सुविधाओं को पहुंचाने में बाधा आने लगी। 21वीं सदी में भी बस्तर की आधी आबादी आदिम युग में जीने के लिए बाध्य होने लगी। सलवा जुड़ूम अभियान शुरूआती दौर के बाद यकायक बढ़ी नक्सली हिंसा के साथ में जुलाई 2006 में एर्राबोर कैंप में माओवादी हमला ने छत्तीसगढ़ सरकार को बैकफुट पर लाकर खड़ा कर दिया।

यानी करीब एक बरस के भीतर ही माओवादियों के खिलाफ उठ खड़े हुए सबसे बड़े अभियान में सरकार के हिस्से नाकामी हाथ लगी। इसके बाद एक बार फिर माओवादियों में अपने इलाके की किलेबंदी तेजी से शुरू की। अपने आधार इलाके को मजबूत करना शुरू कर दिया। 2006 के बाद से लेकर 2023 तक माओवादियों के खिलाफ चलाए जाने वाले अभियानों में फोर्स को काफी नुकसान उठाना पड़ा।

पर बीते एक बरस में बस्तर का इलाका पूरी तरह बदला—बदला सा दिखाई दे रहा है। एक—एक कर माओवादियों का किला ढहता दिखाई दे रहा है। फोर्स का कब्जा लगातार बढ़ता जा रहा है। माओवादियों के आधार इलाकों में सरकारी मशनरी बेरोकटोक पहुंचती दिखाई दे रही है। सरकार को फिलहाल बड़ी सफलता माओवादियों के साथ मुठभेड़ों में मिल रही है। फोर्स के पास सटीक जानकारी पहुंच रही है और जिस तरह से घेरेबंदी के बाद मुठभेड़ में माओवादी मारे जा रहे हैं यह फोर्स की कामयाबी को बताने के लिए पर्याप्त है। इस तरह से इससे पहले बस्तर में कभी देखने को नहीं मिला।

चिंतलनार और जगरगुंडा के उस इलाके में माओवादियों के सर्वोच्च लीडर हिड़मा के गांव में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह रात्रि विश्राम करेंगे यह एक सपने के साकार होने और माओवादियों के खात्मे के लिए सरकार की प्रतिबद्धता का साक्षात प्रमाण होगा। यह इस पीढ़ी के ज्यादातर लोगों को समझ में शायद ही आए पर जिन्होंने बस्तर का माओवादी खूनी इतिहास अपने आंखों से देखा है उनके लिए यह किसी सपने के पूरे होने जैसा है। जिस इलाके में फोर्स को कदम रखने में दिक्कत थी उस इलाके में सरकार के कब्जे का इससे बड़ा प्रमाण कोई नहीं दिखा सकता।

इससे पहले भी माओवादियों के खिलाफ अभियान चलाए गए पर एक बरस का वक्फा कभी बीत भी नहीं पाया और सरकार को बैकफुट पर आना पड़ा था। पर इस बार साफ दिखाई दे रहा है कि यह माओवादियों के सफाए का ही अभियान नहीं है बल्कि उन अंदरूनी गांव में सरकार की सीधी दखल और लोगों के प्रति सरकार की जवाबदेही को दिखाने का अभियान है। स्वास्थ्य, शिक्षा, राशन, पेयजल और पक्की सड़कों के साथ सरकार अंदर तक पहुंच रही है।

दिसंबर 2023 में जब छत्तीसगढ़ में सीधे—सादे विष्णुदेव साय ने मुख्यमंत्री की शपथ ली तो दिखाई दिया कि छत्तीसगढ़ जैसे दुरूह प्रदेश के लिए सरकार ने एक कमजोर चेहरे को मुख्यमंत्री बनाकर भूल कर दिया है पर माओवाद प्रभावित इलाके की बदलती तस्वीर सौम्य आदिवासी चेहरे के पीछे आदिवासियों के लिए उनकी उद्विग्नता को प्रदर्शित कर रही है।

सही मायने में छत्तीसगढ़ की दो बड़ी समस्याएं हैं पहली माओवाद और दूसरी भ्रष्टाचार यदि इन दो समस्याओं का निपटारा जमीन पर दिखाई देने लगे तो मान लें कि विकास के सारे पैमाने पूरे होते दिखाई देने लगेंगे।