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मुख्यमंत्री भूपेश के दो बरस के बाद… कहां पहुंचे हम!

-दिवाकर मुक्तिबोध

मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के नेतृत्व में छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार को दो वर्ष पूर्ण हो गए। 17 दिसम्बर 2018 को प्रचंड बहुमत के साथ कांग्रेस सत्तारूढ़ हुई तथा प्रदेश एक नयी राह पर चल पडा जो तरह-तरह की चुनौतियों एवं जन अपेक्षाओं से भरा था। नयी सत्ता के मार्ग पर कांटे ही कांटे बिछे हुए थे।

सरकार के सामने पहली चुनौती थी चुनावी घोषणा पत्र में जनता से किए गए वायदों को पूर्ण करना। दूसरी चुनौती थी उस नौकरशाही को दुरुस्त करना जिस पर पन्द्रह वर्षों के भाजपा शासन में भगवा रंग पूरी तरह चढा हुआ था। तीसरी चुनौती थी भ्रष्ट कार्यों का परीक्षण, जांच पडताल व भ्रष्ट अफसरों का सार्वजनिकीकरण ताकि जनता उन चेहरों को पहचान सके। नयी सरकार ने इन तीनों मोर्चों पर ताबडतोड कार्रवाई शुरु की।

चूंकि किसानों की कर्ज माफी सहित कुछ संकल्पों को दस दिनों के भीतर पूरा करना था, इसलिए इसे प्राथमिकता दी गई। पूर्ववर्ती भाजपा सरकार ने खजाना खाली कर दिया था और ऐसी हालत में शासन पर राज्य के 16 लाख 65 हजार किसानों को धान के समर्थन मूल्य अठारह सौ रुपये में करीब सात सौ रूपए प्रति क्विंटल की वृद्धि के साथ भुगतान करने का बडा बोझ था। धान के समर्थन मूल्य में वृद्धि का यही मुद्दा चुनाव में कारगर साबित हुआ था और कांग्रेस को पन्द्रह वर्षों बाद सत्ता नसीब हुई थी।

भूपेश बघेल सरकार ने किसानों की कर्ज माफी के साथ सबसे पहले इसी वायदे को पूरा किया व किसानों के बैंक खातों में किस्तों में रकम डालनी शुरू की। उसने तत्परता से काम शुरू किया। सिर्फ शराब बंदी को छोड़कर करीब-करीब सभी मुद्दों पर सरकार ईमानदार रही तथा इन दो वर्षों में उसने जनता से किए गए लगभग सभी वायदे पूरे कर दिए। दूसरी चुनौती थी नौकरशाही से भगवा रंग उतारने की, सो ट्रांसफर व पोस्टिंग के जरिए यह कवायद तत्काल प्रारंभ की गई जो अभी भी जारी है जबकि तीसरी चुनौती लगभग ठंडे बस्ते में चली गई है।

सरकार ने बडे जोर-शोर के साथ अनेक निर्माण कार्यों में घपले के आरोपों व अन्य भारी भरकर वित्तीय अनियमितताओं के मामलों में जांच बैठाई व इसमें लिप्त अधिकारियों को बेनकाब किया। प्रारंभिक जांच के आधार पर पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह व उनके दामाद को भी अर्दब में लाया गया था पर समय सरकता गया और मामले नैपथ्य में चले गए। हालांकि फाइलें बंद नहीं हुई हैं और कुछ महत्वपूर्ण मामले अदालतों में हैं।

सरकार के दो वर्षों का लेखा-जोखा दसियों पन्नों का है। अनेक पन्ने सुनहरे हैं तो कुछ श्याही गिरने से काले पड गए हैं किन्तु पढने में आते हैं। लोग इन्हें पढ भी रहे हैं। दबी जुबान से चर्चा भी करते हैं। फिर भी उन्हें लगता है कि विषम परिस्थितियों के बीच सरकार काम कर रही है और ठीक कर रही है। उनका ख्याल है कि तंत्र बहुत सुधरा नहीं है लेकिन गाडी पटरी पर आ गई है अतः अभी तो सरकार को पासिंग मार्क्स दे देने चाहिए। शेष अगले तीन साल में तय करेंगे कि वह उम्मीदों की कसौटी पर पूर्णतः खरी उतरी कि नहीं, उसे मेरिट के मार्क्स दें कि नहीं।

यकीनन आने वाले दिनों में जनता इसकी मार्किंग विशुद्ध रूप से इस आधार पर करेगी कि सरकार के कामकाज से गरीबों, गरीब आदिवासियों, हरिजनों, शिक्षित बेरोजगारों, मजदूरों तथा छोटी जोत के किसानों का कितना भला हुआ है। सरकारी योजनाओं का लाभ सही अर्थों में उन्हें मिल रहा है कि नहीं तथा इनसे जुडे छोटे-छोटे काम बिना रिश्वत दिए हो रहे कि नहीं।

हालांकि रिश्वतखोरी से खुद को मुक्त रखना किसी भी व्यवस्था को संभव नहीं है लेकिन यदि सरकार की इच्छाशक्ति हो तो निचले स्तर के भ्रष्टाचार को कम या खत्म किया जा सकता है। सरकारी नौकरी में अंतिम पायदान पर बैठा पटवारी बिना पैसा लिए कोई काम नहीं करता। शासन-प्रशासन से सम्बद्ध दर्जनों ऐसे काम है जो लोगों की जिंदगी से जुडे हुए हैं। पर बिना लेनदेन के कोई कार्य सिद्ध नहीं हो सकता।

कमजोर प्रशासनिक व्यवस्था व भोगे हुए यथार्थ के आधार पर सरकार व पार्टी के बारे में राय ये ही लोग बनाते हैं। इस मुद्दे पर कांग्रेस सरकार के बारे में लोगों की राय अच्छी नहीं बन रही है। प्रायः हर आदमी कहता है कि लूट-खसोट मची हुई है। और सबसे ज्यादा परेशान पार्टी के लोग कर रहे हैं। लेकिन भूपेश बघेल सरकार के अब तक के कामकाज पर किसी नतीजे पर पहुंचने के पूर्व यह देखना भी जरूरी होगा कि राज्य की परिस्थितियां व चुनौतियां क्या थीं और सरकार ने इसका सामना किस तरह किया।

विश्व-व्यापी महामारी कोरोना की बात करें तो इस एक वजह से ही छत्तीसगढ़ सहित सभी राज्य सरकारों को उनके कामकाज का मूल्यांकन करते वक्त कुछ रियायत दी जा सकती है क्योंकि शासन-प्रशासन का पूरा ध्यान, पूरी ताकत, उसकी समूची मशीनरी लोगों की जान की रक्षा में, बीमारी का मुकाबला करने में व माकूल व्यवस्थाएं बनाने में लगी हुई थी। इसलिए शुरू के करीब छै महीनों को मूल्यांकन के दायरे से बाहर किया जा सकता है।

यानी यदि कामकाज का हिसाब करना है तो डेढ साल का किया जाना चाहिए। तथापि व्यावहारिक दृष्टि से बात दो साल की ही होगी।दो वर्षों में सरकार ने क्या किया ? उत्तर होगा -काफी कुछ। सांस्कृतिक नाद के साथ बघेल ने किसानों, खेतिहर मजदूरों, वनोपज संग्रहकर्ताओं, शिक्षित बेरोजगारों, सरकारी कर्मचारियों, शिक्षकों, अनुसूचित जातियों, जनजातियों के उत्थान पर, जीवन से जुड़ी उनकी जरुरतों पर ध्यान केंद्रित किया। उनके लिए योजनाएं बनीं और एक-एक करके वे कागजों से बाहर आईं। उन पर अमल शुरू हुआ। लेकिन योजनाओं का लाभ जरूरतमंदों को कितना मिल पा रहा है, यह बहस का विषय है।

राजनीति से अलग हटकर बात करें तो अनेक मुद्दों पर लोग सरकार से अप्रसन्नता जाहिर करते हैं तो अनेक पीठ भी थपथपाते हैं। यह स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। असंतोष की सुगबुगाहट गांवों की अपेक्षा शहरों में अधिक सुनाई देती है पर इस एक बात पर व्यापक सहमति है कि बघेल सरकार नयी दृष्टि वाली सरकार है जो सबसे ज्यादा चिंता सर्वहारा वर्ग की कर रही है। लोग कहते हैं कि योजनाएं बहुत अच्छी हैं अतः सरकार को वक्त देना चाहिए।

सरकार के एजेंडे में प्राथमिकता नये छोटे उद्योगों की स्थापना के जरिए रोजगार की सुनिश्चितता, गांवों के बहुमुखी विकास एवं उसकी अर्थ व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने की है। प्रमुखतः खेत-खलिहान ,कृषि, वनसंपदा व ग्रामीण रोजगार के ईर्दगिर्द बुनी गई इन योजनाओं की मंथर गति व निगरानी के अभाव पर जरूर सवाल खडे किए जा सकते हैं। चाहे वह नरवा, गरुआ, घुरवा, बारी योजना हो या पौनी पसारी बाजार योजना अथवा गायों के लिए गौठान।

फिलहाल सरकारी कागजों पर सभी योजनाएं ज्यादा आकर्षक, ज्यादा प्रभावशाली नजर आती हैं। इनमें कुछ तो अनूठी हैं। मसलन छत्तीसगढ़ गोधन न्याय योजना। गाय का गोबर खरीदने वाला छत्तीसगढ़ देश का पहला राज्य है।चूंकि सरकार की प्राथमिकता ग्रामीण विकास है अतः शहरों में आधारभूत संरचनाओं की चंद नयी योजनाओं को छोड़ दें तो पूर्ववर्ती भाजपा सरकार के उन्हीं कामों को पूरा किया जा रहा है जो अधूरे पडे थे। दरअसल विकास कार्यों में सबसे बड़ी अडचन पैसों की है।

राज्य की वित्तीय स्थिति खराब है और केन्द्र से भी उसे अपेक्षित मदद नहीं मिल रही है। भाजपा सरकार ने पन्द्रह वर्षों के अपने शासनकाल में शहरों के विकास पर ज्यादा ध्यान दिया था। उसने राजधानी की भी शक्ल पूरी तरह बदल दी। इसलिए राजधानी सहित अन्य शहरों में आधारभूत संरचनाओं के विकास की गति भले ही धीमी हो पर लोगों के लिए यह कोई मुद्दा नहीं है जिस पर असंतोष व्यक्त किया जाए। कांग्रेस सरकार के लिए यह राहत की बात है।

इन सबके बीच सबसे महत्वपूर्ण है भूपेश बघेल की राजनीति, उसकी व्यूह रचना और स्वयं का परिपक्व, चतुर व दृष्टि सम्पन्न राजनेता के रूप में राष्ट्रीय फलक पर उभरना। कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति में भूपेश बघेल अब एक महत्वपूर्ण नेता हैं। प्रादेशिक राजनीति में उन्होंने अपने प्रमुख विपक्ष भारतीय जनता पार्टी का जो हाल कर रखा है, उससे उबरने में उसे पता नहीं कितना वक्त लगेगा। बघेल ने उसे चार दशाब्दी पूर्व की स्थिति में पहुंचा दिया है जब छत्तीसगढ़ से भाजपा के इने गिने लोग विधानसभा में पहुंच पाते थे।

कांग्रेस की उस दौर में जैसी मजबूत स्थिति थी , वैसी अब यहां है। विधानसभा के कुल 90 में से 70 कांग्रेस विधायकों के इस नेता को कोई आंतरिक चुनौती नहीं हैं। वरिष्ठ मंत्री टी एस सिंहदेव नेतृत्व से असंतुष्ट हो सकते हैं पर कुछ करने की स्थिति में नहीं हैं। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की जो हालत है, उसे देखते हुए केन्द्रीय नेतृत्व छत्तीसगढ़ की मजबूत सरकार को किसी भी प्रकार का झटका देना पसंद नहीं करेगा। मुखिया को बदलने व नया नेतृत्व देने की उम्मीद करना फिजूल है।

भले ही इसे लेकर अफवाहों का बाजार कितना ही गर्म क्यों न हो। यकीनन भूपेश बघेल पूरे कार्यकाल के मुख्यमंत्री हैं।बघेल की राजनीति का एक और पहलू है छत्तीसगढ़ के स्वाभिमान को आगे रखते हुए अपनी ठेठ छत्तीसगढिय़ा लोक नायक की छवि गढना। इसके लिए लोक-संस्कृति व लोकोत्सव को उन्होंने आधार बनाया है। राज्य की सांस्कृतिक विरासत के उन्नयन व संरक्षण का लक्ष तो खैर महत्वपूर्ण है ही, अधिक महत्वपूर्ण है तीज-त्यौहारों पर सरकारी आयोजन व उसमें सहभागिता जो भूपेश बघेल कर रहे हैं।

इससे उनकी एक अलग छवि तो बनती है जो जन-प्रियता व वोटों की राजनीति की दृष्टि से भले ही फायदेमंद हो पर बडा खतरा इसके अतिरेक से छत्तीसगढिय़ा व गैर छत्तीसगढिया की भावना को बल मिलने की आशंका है जिसे उभारने की कोशिश पहले भी होती रही है हालांकि राज्य में साम्प्रदायिक सदभाव व एकता का वातावरण बेजोड़ है,अक्षुण्ण है।

राजनीति में अपनी छवि बनाने, लोकप्रियता हासिल करने या जन-जन का नेता बनने लोक संस्कृति एक अच्छा माध्यम जरूर हो सकती है पर अंततः छवि कार्यों से ही बनती क्योंकि संस्कृति रोटी नहीं देती। गरीबों की रोटी की समस्या जो हल करेगा वहीं आखिर तक राज करेगा , इस वेद वाक्य को मुख्यमंत्री भूपेश बघेल विस्मृत नहीं कर सकते। दो साल बीत गए हैं, अब अगले तीन साल उनकी सत्ता के लिए महत्वपूर्ण रहेंगे।

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