आखिर क्यों टल रहा है छत्तीसगढ़ में मंत्रिमंडल का विस्तार…
Getting your Trinity Audio player ready...
|
छत्तीसगढ़ में मंत्रिमंडल विस्तार को लेकर बार-बार उठ रही चर्चाओं और इसके बार-बार टलने की स्थिति ने राजनीतिक हलकों में कई सवाल खड़े किए हैं। मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार ने दिसंबर 2023 में सत्ता संभालने के बाद से ही मंत्रिमंडल विस्तार की संभावनाओं को लेकर सुगबुगाहट बनी हुई है। हालांकि, 16 अप्रैल 2025 तक यह प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकी है, और यह आने वाले दिनों में कब होगा कोई नहीं जानता। इस टालमटोल के पीछे कई राजनीतिक, सामाजिक और रणनीतिक कारण हो सकते हैं।
छत्तीसगढ़ में मंत्रिमंडल विस्तार का बार-बार टलना भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व की रणनीति और स्थानीय नेताओं के बीच सहमति की कमी को दर्शाने लगा है। अभी हाल ही में केंद्रीय गृहमंत्री के छत्तीसगढ़ प्रवास के बाद एक बार फिर मंत्रिमंडल विस्तार को लेकर चर्चाओं को हवा मिली। उनके जाने के बाद छत्तीसगढ़ भाजपा के प्रभारी भी यहां पहुंचे और बैठकों का दौर चला। यह माना जा रहा है कि केंद्रीय नेतृत्व ही मंत्रिमंडल में शामिल होने वाले नामों को अंतिम रूप देगा, क्योंकि प्रदेश स्तर पर सहमति नहीं बन पाई है। अंदर के सूत्र बता रहे हैं कि मंत्रिमंडल विस्तार में सबसे बड़ी बाधा पुराने नेताओं के प्रभाव के चलते उत्पन्न हो रही है।
मसलन अमर अग्रवाल और उप मुख्यमंत्री अरूण साव दोनों ही बिलासपुर से हैं। नेहरू चौक में साव का निवास है और राजेंद्र नगर में अमर अग्रवाल। लखनलाल देवांगन मंत्री हैं पर वे अमर अग्रवाल के करीबी हैं। हाल ही में नगरीय चुनाव में पार्टी के अधिकृत प्रत्याशी के खिलाफ खड़े उम्मीदवार की जीत पर लखनलाल देवांगन ने बधाई दे दी। तो यह मुद्दा तूल पकड़ते देर नहीं लगा। संगठन की ओर से मंत्री को नोटिस भी जारी कर दी गई। इस घटनाक्रम में पर्दे के पीछे उपमुख्यमंत्री साव समर्थकों का भारी दबाव रहा।
मंत्रिमंडल में जगह पाने के लिए पुराने नेताओं में होड़ है। जिसे छिपाने की कोशिश भले ही हो रही है पर सही मायने में क्षेत्रीय नेताओं की महत्वाकांक्षाओं और केंद्रीय नेतृत्व की रणनीति के बीच संतुलन बनाना चुनौतीपूर्ण हो रहा है।
स्थानीय नेताओं की महत्वाकांक्षाओं को देखें तो रायपुर जिले से बृजमोहन अग्रवाल मंत्री बने थे। इनके पास शिक्षा जैसा भारी भरकम विभाग भी था। पर उन्हें लोकसभा सीट से जीत हासिल होने के बाद सुनील सोनी विधायक हैं। पूर्व महापौर और सांसद रहे सुनील सोनी का राजनीतिक अनुभव भी बड़ा है पर पीछे बृहमोहन का वजन होने के कारण, पुरंदर मिश्रा, राजेश मूणत के बीच त्रिकोण तैयार है।
बस्तर से किरण सिंहदेव, दुर्ग से गजेंद्र यादव, बिलासपुर से अमर अग्रवाल और कुरूद विधायक पूर्व मंत्री अजय चंद्राकर, मंत्रिमंडल में शामिल होने की दौड़ में हैं। इन नेताओं के बीच प्रतिस्पर्धा और क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व को संतुलित करने की चुनौती मंत्रिमंडल विस्तार में देरी का एक प्रमुख कारण है।
छत्तीसगढ़ की राजनीति में जातिगत और क्षेत्रीय संतुलन हमेशा से महत्वपूर्ण रहा है। मंत्रिमंडल विस्तार में इस संतुलन को बनाए रखना भाजपा के लिए एक बड़ी चुनौती है। के अनुसार, 2023 में हुए मंत्रिमंडल विस्तार में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC), अनुसूचित जनजाति (ST), अनुसूचित जाति (SC) और सामान्य वर्ग के नेताओं को शामिल किया गया था, जिसमें केवल एक महिला मंत्री (लक्ष्मी राजवाड़े) थी।
वैसे भी छत्तीसगढ़ में इस समय मुख्यमंत्री के बाद या उससे कहीं ज्यादा महत्व विधानसभा अध्यक्ष डा. रमन सिंह का है। ऐसे में यह भी तय माना जा रहा है कि यदि भविष्य में किसी को मंत्री बनना या बनाना हो तो उसकी राह वीआईपी रोड में स्थित विधानसभा अध्यक्ष डा. रमन सिंह के बंगले होकर गुजरेगी। विधानसभा के भीतर तीन बार के मुख्यमंत्री रह चुके डा. रमन सिंह एक गार्जियन के तौर पर मंत्रियों का बचाव करते साफ देखे जा सकते हैं। चाहे विपक्ष का हमला हो या पूर्व कद्दावर मंत्रियों का जो इस समय विधायक हैं उन सभी को विधानसभा अध्यक्ष का संरक्षण बीते सत्र तक मिलता रहा है।
एक बात और हाल ही में निगम और मंडलों में नियुक्तियां हो चुकी हैं। जिन्हें उपकृत किया जाना था किया जा चुका है। अब जिन विधायको को उपकृत किया जाना है उनके लिए प्राथमिकताओं में केवल और केवल मंत्री के तौर पर शपथ का इंतजार है।
छत्तीसगढ़ में मंत्रिमंडल विस्तार पर लग रहा विराम भाजपा की आंतरिक राजनीति, जातिगत-क्षेत्रीय संतुलन की जटिलताओं और रणनीतिक प्राथमिकताओं का परिणाम है। एक अनार सौ बीमार वाली कहावत भी यहां चरितार्थ हो रही है। केंद्रीय नेतृत्व की मजबूत पकड़ और स्थानीय नेताओं के बीच सहमति की कमी के चलते मंत्रिमंडल विस्तार की प्रक्रिया को और जटिल बना दिया है। यह देरी न केवल सरकार की निर्णय लेने की क्षमता पर सवाल उठा रही है, बल्कि विपक्ष को भी इसे राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने का अवसर दे रही है।
सबसे बड़ी बात तो यह है कि शिक्षा जैसा भारी भरकम विभाग इस समय सीधे मुख्यमंत्री के अधीन है। बहुत सारे फैसलों को लेकर शिक्षा विभाग के अधिकारी सीएमओ की ओर मुंह ताकते दिखते हैं। उम्मीद की जा रही थी कि मंत्रिमंडल विस्तार के बाद संभव है शिक्षा विभाग की बागडोर एक बार फिर केदार कश्यप के पास चली जाए। अभी सुशासन तिहार के दौरान प्रदेश भर में समाधान पेटियां लगाकर लोगों से समस्याएं पूछी गईं। इसके बाद अभियान का दूसरा चरण भी चालू होगा।
पहले चरण के दौरान शिक्षा विभाग में लंबित शिक्षकों की भर्ती का मामला भी उठा है। साथ ही यदि किसी मंत्री को हटाने की मांग की गई है तो किसी को मंत्री बनाने के लिए पैरवी भी करने की सूचना है। खैर यदि भाजपा जल्द ही इस मुद्दे को हल नहीं करती, तो यह पार्टी के भीतर असंतोष और जनता के बीच अविश्वास को बढ़ा सकता है। मंत्रिमंडल विस्तार के लिए एक स्पष्ट रोडमैप और समयबद्ध कार्यान्वयन इस स्थिति को सुलझाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम हो सकता है।