यहां सरकार नहीं नक्सली देते हैं परमिशन, साधारण सी बैरिकेंटिंग में सभी के लिए संदेश “प्रवेश निषेध”! नक्सलगढ़ रिपोर्टिंग के लिए पहुंचे पत्रकार को खाली हाथ लौटना पड़ा…
- युकेश चंद्राकर सागमेट्टा से लौटकर.
अभी कुछ समय पहले की ही बात है। नक्सली नेता गणेश उइके ने बाकायदा प्रेस नोट जारी कर पत्रकारों को नक्सल आधार इलाकों में बेख़ौफ़ और स्वतंत्र होकर रिपोर्टिंग के लिए कहा था। यह खबर अख़बारों, टीवी न्यूज चैनल्स पर भी आई।
अब शायद हम पत्रकार बस्तर के उस पहलू को सामने ला सकेंगे जो बस्तर का वर्तमान है, यही एक ख़याल ज़ेहन में कौंधा। बस फिर क्या था, मैंने पतासाजी शुरू की। पता चला कि एक इलाका ऐसा है जहां जाने के लिए पुलिस के पसीने छूट जाते हैं, वहां विकास के नाम पर हैण्डपम्प हैं!
गनीमत है लोगों की प्यास तो बुझ रही है। खैर, अब सफर बीजापुर से बस्तर के बीहड़ों को चीरते हुए महाराष्ट्र की सीमा तक जाने का तय हुआ। मैं और मेरे साथी कैमरामैन देवेंद्र कावरे ने बगैर समय गवाएं अपनी बाइक पर सफर शुरू किया…
“भैया आज बड़े बड़े लीडर मिल सकते हैं, डर लग रहा है”
मेरे कैमरापर्सन ने अपना डर आखिर मेरे सामने रख दिया ।
मैं एक पल के लिए ठिठक गया और फिर मैंने जवाब दिया –
” चलो, सफर का मज़ा लो”
बाइक पर हम दोनों तक़रीबन 43 डिग्री की धूप में हाफ टी शर्ट और जीन्स पहने निकले थे। तेज़ धूप, गर्म हवाओं के थपेड़ों से मूड ठीक नहीं था और मैं ड्राइव कर रहा हूँ!
नेशनल हाइवे 63 पर 15 किलोमीटर का सफर तय कर बाएं रास्ते का रुख लिया, सड़क पक्की है तो सिर्फ चिलचिलाती धूप रही है। लगभग 40 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद हम कच्चे रास्ते तक पहुंचे।
हमें पहले से ही पता था कि इस बार रिपोर्टिंग के लिए काफी दूर तक जाना था। वहां की परिस्थितियां कैसी होंगी यह भी पता नहीं था। भीषण गर्मी का समय यह देखते हुए सुबह से ही हमने काफी तैयारियां कर ली थीं। अपने बैग में कैमरा आदि के साथ खाने—पीने का सामान भी रख लिया था।
कुटरू, वही इलाका जहां से सलवा जुडूम की शुरुआत हुई थी।
5 मिनट रुककर मैंने दोबारा राइडिंग शुरू की। पथरीले सड़क को रौंदते हुए कुछ दूर जाने के बाद हम “रानीबोदली” पहुंचे, वही रानीबोदली जहां 55 जवानों को नक्सलियों ने जिन्दा जला दिया था।
इतिहास चीखता है कि ये इलाका खून की होली में नहाया हुआ है। हमने फरसेगढ़ पहुंचकर कुछ केले और पानी लिया। कुछ देर छाँव में गुजारने से पसीना धीरे धीरे बहने लगा था और अब पहुँचने की जल्दबाजी भी थी।
दोपहर करीब 1 बजे फरसेगढ़ से निकलकर महाराष्ट्र की सीमा से लगे छत्तीसगढ़ के आखरी गाँव सागमेटा पहुंचे। यहां दाखिल होते इसके पहले वीरान पूरी तरह उजड़ा गाँव नज़र आया।
मन में सवाल कौंधा जब सलवा जुडूम का दौर था, इस तरह न जाने कितने गाँव उजड़े बिखरे?
बड़ी बात यह है कि फरसेगढ़ से सागमेटा के लिए करीब 15 किलोमीटर लंबी सड़क बनाने का काम शुरू हो चुका है। फरसेगढ़ से करीब तीन किलोमीटर तक मिट्टी की सड़क बन गई है। आगे की राह पगडंडी जैसा है।
मन में सवाल आया इस तरफ सड़क बनाने का काम चल रहा है! हैरानी की बात है। जिस इलाके में नक्सलियों से पूछे बिना परिंदा तक पर नहीं मार सकता उस इलाके में सड़क? ये तो ख़ुशी की बात है।
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हम तकरीबन 15 किलोमीटर जंगली पगडंडियों से गुजरकर इस गाँव पहुंचे। यही सागमेटा का प्रवेश द्वार है। यहां नक्सलियों ने बैरिकेटिंग कर दी है। बैरिकेटिंग पुलिस स्टाइल वाली ना होकर महज एक लकड़ी का आड़ है… जिसे अपनी किस्मत तलाशनी हो वह बिना सोचे उसे पार कर सकता है… समझदारी दिखानी है तो किसी पूछताछ के लिए इंतजार किया जा सकता है। क्योंकि गोलियां बिना कुछ पूछे अपना काम कर देती हैं…
बैरिकेटिंग के बीचों बीच एक बोर्ड है जिस पर नक्सलियों ने विधानसभा चुनावों के बहिष्कार की अपील लिखी है… अब तो लोकसभा चुनाव भी निबट रहे हैं लेकिन ये बोर्ड यहां से हटाने की हिम्मत बहरहाल किसी में नहीं है।
हां, इस चस्पा पर्चे का अस्तित्व उसके बाद आने वाले चुनावों तक बना रहेगा। जब तक की प्रकृति ही इसे नष्ट ना कर दे…
हम सागमेट्टा के एक घर में रुके। शाम तक इंतजार करने पर नक्सलियों के दो मेम्बर हमसे मिलने आए। उन्होंने हमारे आने की वजह पूछी तो हमने बता दिया कि हमें इस इलाके की रिपोर्टिंग करनी है।
इतने में वे दोनों गोंडी भाषा में कुछ बातें करने लगे। उनकी बातचीत ख़त्म होने पर उन्होंने कहा कि इसके लिए आपको दादा लोगों (बड़े नक्सलियों) से परमिशन लेना पड़ेगा। मैंने उन्हें समझाने की पूरी कोशिश की कि पत्रकारों के लिए गणेश उइके ने प्रेस नोट जारी कर कहा है कि पत्रकार नक्सल आधार इलाकों में निर्भीक, स्वतंत्र होकर रिपोर्टिंग कर सकते हैं।
लेकिन इन बातों के बावजूद भी वे कहने लगे कि उन तक ये बात नहीं पहुंची है इसलिए हमें नक्सलियों के डीवीसी के नाम खत लिखना होगा।
डीवीसी यानि डिविजनल कमांडर इसके अधीन एरिया कमांडर होते हैं। अनुमान के मुताबिक फरसेगढ़—सेंड्रा डीवीसी के अधीन कम से कम 18 एरिया कमांडर शामिल होंगे। जिसमें सागमेटा एरिया कमांडर का इलाका भी शामिल है।
मैंने देरी किये बिना कागज़ कलम उठाया और इलाके के कमांडर के नाम एक खत लिख दिया, अब उनके जवाब का इंतज़ार है ।
इसके पहले भी कई बार इस तरह की घटना घटी है तो मैं सोचने लगा कि आखिर क्यों कुछ लोग सच से भागना चाहते हैं ? चाहें वे राजनेता हों या बस्तर के नक्सली । एक वाकया याद आ रहा है..
कुछ साल पहले, इसी तरह के एक दूसरे नक्सल प्रभावित इलाके में जब मैं और मेरा भाई पहुंचे थे तब नक्सलियों ने हमारे कैमरे को बंदूक और हम दोनों को पुलिस के जवान समझकर 22 बंदूकें हम पर तानकर हमसे पूछताछ की थी। तब भी मुस्कुराया था, तब भी हमें रिपोर्टिंग करने नहीं दिया गया था और आज भी वही हाल है।
इसका मतलब क्या हम ये समझ लें कि नक्सली जो प्रेस नोट जारी करेंगे वही छापा जाए, वही दिखाया जाए जैसा बाकि नेता चाहते हैं?
फिलहाल कुछ सवाल हैं
क्या नक्सली पत्रकारों के सवालों से घबरा रहे हैं?
क्या नक्सली पत्रकारिता की आज़ादी का मतलब नहीं समझते?
क्या नक्सली नहीं चाहते कि जो सच बारूद के ढेर पर सांस लेते बस्तर का पूरा सच सामने आए?
मेरा मानना है
नक्सलियों का इस तरह से पत्रकारों को खुलकर पत्रकारिता नहीं करने दिया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है । नक्सल संगठनों को पत्रकारिता पर से अपनी बन्दूक हटानी होगी. नहीं तो हम कलम, कैमरा माइक के सिपाही मजबूर होकर खामोश तो कभी नहीं बैठेंगे…