‘बस्तर की बेटी’ लता के सहारे भाजपा सियासत के सूत्र तलाश रही है… इसके किंतु—परंतु और परिणाम…
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विशेष टिप्पणी। सुरेश महापात्र।
भारतीय जनता पार्टी में जगत प्रकाश नड्डा ने अपनी नई टीम का ऐलान कर दिया है। यह साफ है कि यही टीम 2024 के लोक सभा चुनाव तक कायम रहेगी। इस टीम में छत्तीसगढ़ से तीन लोगों को जगह मिली है। इसमें पूर्व मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह, राज्य सभा सांसद डा. सरोज पांडे और पूर्व मंत्री लता उसेंडी को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी गई है। कुल 13 उपाध्यक्ष नड्डा की टीम में शामिल हैं इसमें से तीन छत्तीसगढ़ के हैं।
पूर्व मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह इससे पहले की टीम में भी राष्ट्रीय उपाध्यक्ष की जिम्मेदारी संभाल रहे थे। पर उनका उपयोग किसी भी राष्ट्रीय संगठनात्मक प्रक्रिया में किया गया हो ऐसा देखने को नहीं मिला। इससे साफ हुआ कि वे जिस राज्य के तीन बार के निर्वाचित मुख्यमंत्री रहे उस राज्य में उनकी भूमिका को तरजीह देना दिखाते हुए नेपथ्य में कहीं डाल दिया गया।
डा. रमन यदा—कदा छत्तीसगढ़ के सीएम भूपेश के किसी मसले पर मीडिया पर टिप्पणी करते दिखते हैं। पार्टी की बैठकों की जारी तस्वीरों में वे दिखते हैं पर 2018 के पहले वाले रमन बीते साढ़े चार बरस में कभी नहीं दिखे! इसकी निश्चित तौर पर अंदरूनी कथा कहानी होगी। डा. रमन ने अपने हिसाब से छत्तीसगढ़ का पूरा दौरा कर विपक्ष में बैठी भाजपा के कार्यकर्ताओं को ताकत देने पहुंचे हों ऐसा भी नहीं देखने को मिला।
बावजूद इसके उन्हें दुबारा पार्टी ने राष्ट्रीय उपाध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी है तो कुछ तो जरूर तय किया होगा। परंतु इस बार दुर्ग जिले की भाजपा नेत्री राज्य सभा सांसद डा. सरोज पांडे को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाकर उनके समकक्ष खड़ा कर दिया गया है। इससे बड़ी बात तो यह है कि डा. रमन के मंत्रीमंडल सहयोगी सुश्री लता उसेंडी को भी इसी पद से नवाजा गया है। इससे साफ है कि राजनीति में पद के हिसाब से डा. रमन का ओहदा भले ही दिखने में बड़ा है पर पहले से कमजोर कर दिया गया है।
इस तरह से भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में बस्तर का एक चेहरा यकायक बड़ा दिखाने की कोशिश की गई है। यह सुश्री लता उसेंडी का चेहरा है। भाजपा ने उन्हें यह पद बस्तर में भाजपा को मजबूत करने की नीयत से सौंपा होगा यह स्पष्ट लग रहा है। पर सुश्री उसेंडी के भरोसे क्या भाजपा बस्तर में भरपाई करने में कामयाब हो सकेगी? यह बड़ा सवाल है।
वर्तमान में बस्तर संभाग में कांग्रेस के एक पीसीसी अध्यक्ष सांसद दीपक बैज, दो मंत्री कवासी लखमा, मोहन मरकाम, दो नेता लखेश्वर बघेल, मिथिलेश स्वर्णकार को मंत्री का दर्जा, पांच नेताओं विक्रम मंडावी, संतराम नेताम, राजीव शर्मा, चंदन कश्यप, शिशुपाल सोरी को राज्य मंत्री का दर्जा मिला हुआ है। बस्तर ने कांग्रेस को सभी 12 सीटें दी थी तो सीएम भूपेश ने भी प्रतिनिधित्व देने में कोई कमी नहीं की है यह आंकड़े बता रहे हैं।
इसके उलट भाजपा के पास बीते 15 बरस की सत्ता में जमीनी कार्यकर्ता अब मंचासीन नेता का रूप धर चुके हैं। जमीन पर काम करने के लिए कार्यकर्ताओं की टीम को सक्रिय करने के लिए पीएम नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह का ही आसरा है। पीएम मोदी हाल ही में बस्तर पहुंचे थे। इसके पहले और उसके बाद गृहमंत्री अमित शाह बैक टू बैक दो बार बस्तर पहुंच चुके हैं। छत्तीसगढ़ भाजपा संगठन के प्रभारी ओम माथुर पूरे प्रदेश का भ्रमण कर चुके हैं। उन्होंने जमीन में जाकर कार्यकर्ताओं से संवाद स्थापित किया है। स्पष्ट है वे समझ रहे होंगे कि कुछ नया करने पर ही परिणाम सकारात्मक आएगा।
संभव है ऐसे में भाजपा के पास नया चेहरा और नई उर्जा की जरूरत पूरा करने के लिए लता उसेंडी एक बेहतर विकल्प प्रतीत हुईं हों।प्रत्यक्ष तौर पर इनका राजनीतिक विरोध समूचे बस्तर में कहीं भी दिखाई नहीं देता है। अब तक गुटीय राजनीति से परे रहकर लता उसेंडी ने अपनी पहचान बनाई है। जिसके दम पर वे फिलहाल कोंडागांव विधानसभा क्षेत्र में सक्रिय हैं। एक बार भी ऐसा नहीं लगा कि वे अपने विधानसभा से बाहर निकलकर बस्तर में भाजपा का नया चेहरा स्थापित हों!
बस्तर भाजपा की राजनीति में कश्यप परिवार का वर्चस्व रहा है। 1972 में पहली बार बलीराम कश्यप अविभाजित मध्यप्रदेश में विधायक के तौर पर चुनकर पहुंचे। 1992 तक वे लगातार चुने जाते रहे। मंत्री रहे फिर 1998 के बाद सन 2009 तक कुछ चार बार बस्तर से लोक सभा में पहुंचे। दिनेश कश्यप सांसद, केदार कश्यप लगातार 15 बरस तक मंत्री रहे। स्व. चंद्रशेखर कश्यप जिला पंचायत अध्यक्ष और स्व. तानसेन कश्यप जनपद अध्यक्ष रहे, वर्तमान में बलीराम कश्यप की पुत्रवधु वेदवती कश्यप जिला पंचायत अध्यक्ष हैं। इस तरह से कश्यप परिवार बस्तर में अपनी राजनीतिक दबदबा बनाकर रखा है। इस परिवार की धुरी में बीते 51 बरस से बस्तर में राजनीति संचालित हो रही है।
इसके उलट बस्तर से सटे अबके कोंडागांव जिले से 1990 में कोंडागांव विधानसभा से मंगल राम उसेंडी विधायक चुने गए। वे अविभाजित मध्यप्रदेश सरकार में 1993 कोडागांव के विधायक रहे। कोंडागांव में कांग्रेस के सबसे बड़े खेवनहार मानकूराम सोढ़ी रहे वे लगातार पांच बार सांसद निर्वाचित हुए। उनके बेटे शंकर सोढ़ी ने 1993 और 1998 में लगातार दो बार विधानसभा का सफर तय किया। 2003 में सोढ़ी परिवार को शिकस्त देते हुए मंगलराम उसेंडी की बेटी लता उसेंडी पहली बार विधायक निर्वाचित हुईं। मंत्री पद भी मिला।
इसके बाद 2008 में भी वे विधायक चुनी गईं और मंत्री रहीं। 2013 में पराजित हुईं पर रमन सरकार से कैबिनेट मंत्री का दर्जा मिला रहा। बहन किरण उसेंडी कोंडागांव में पालिका अध्यक्ष निर्वाचित हुईं। कोंडागांव की राजनीति में उसेंडी और सोढ़ी परिवार का लंबे अरसे तक दबदबा बना रहा। पर 2013 के बाद लगातार दो बार जीत हासिल कर मोहन मरकाम ने एक बड़ी चुनौती दी है। 2013 और 2018 के विधानसभा चुनाव में मोहन मरकाम ने लता उसेंडी को लगातार दो बार पराजित किया। इस बार अंतर बेहद मामूली रहा करीब दो हजार मत। सो यह उम्मीद तो थी ही कि लता उसेंडी कोंडागांव से पुन: प्रत्याशी होंगी।
2018 के चुनाव परिणाम के बाद भाजपा के भीतर आदिवासी क्षेत्र को लेकर भारी बेचैनी है। ऐसा होना लाजिमी ही है। क्योंकि भारी मोदी लहर में जब छत्तीसगढ़ के 11 में से दो सीट कांग्रेस के खाते में गए तो इसमें से एक बस्तर की है। जिसमें सांसद दीपक बैज हैं। जो अब पीसीसी चीफ बना दिए गए हैं। यदि भाजपा के भीतर झांके तो कश्यप परिवार के आगे किसी की भी बखत दिखाई नहीं देती।
पैसा, संगठन और गुट के समर्थकों के आधार पर सबसे मजबूत दिखने वाले इस परिवार के प्रति कार्यकर्ताओं की नाराजगी क्यों है? इस सवाल का संभवत: जवाब तलाशने की कोशिश की जा रही है। राजनीतिक तौर पर यदि बस्तर में जो नुकसान पहुंचा है उसकी नेपथ्य में वजह कश्यप परिवार ही है तो किसी दूसरे को आगे करने की रणनीति का हिस्सा लता के चेहरे में दिखाने के कोशिश साफ है।
पर यदि बिना किसी लाग लपेट के बात कही जाए तो लता उसेंडी से बस्तर में भाजपा बिखरने से बच जाएगी इसकी उम्मीद करना गलत होगा। लता उसेंडी की राजनीति का तरीका कभी भी अफेंसिव नहीं रहा। वे कभी बस्तर के मुद्दों पर खुलकर बात नहीं करती हैं। यदि कहती भी होंगी तो वे मुख्य धारा की मीडिया में जगह नहीं पाती रही।
बीजापुर, कोंटा और दंतेवाड़ा के साथ मध्य बस्तर में कहीं भी लता उसेंडी के कार्यकर्ताओं का अपना समर्थक समूह दिखाई नहीं दिया है। बीजापुर में महेश गागड़ा, मध्य बस्तर, दंतेवाड़ा और कोंटा में केदार की पकड़ साफ है। वे कभी नहीं चाहेंगे कि उनके करीबी किसी दूसरे नेता के साथ खड़े दिखें।
छत्तीसगढ़ में बस्तर और सरगुजा के दो ऐसे गढ़ हैं जहां भाजपा को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा है। दोनों क्षेत्र आदिवासी बहुल हैं। इसके लिए चेहरों की तलाश जोर शोर से चल रही है। भाजपा ने लता उसेंडी के तौर पर जो प्रयोग किया है इसकी सफलता में संदेह किया जाना चाहिए। बस्तर में कांग्रेस को फिलहाल नुकसान साफ दिखाई दे रहा है। सभी 12 सीटें दुबारा कांग्रेस को मिलेगीं यह असंभव है। बस भाजपा को अपने प्रत्याशियों के चेहरों के चयन के समय 2018 जैसी मूर्खता से बचने की जरूरत है।
बीते समय में टिकट बंटने के साथ ही जनमानस में परिणाम को लेकर कयासों का दौर शुरू हो गया था। प्रशासन के भरोसे चलने वाली विकास यात्रा की भीड़ के आगे उस समय सीएम डा. रमन जनता का मूंड भांपने में विफल रहे। जिन्होंने हकीकत बताई उन्हें किनारे लगा दिया। जिसका परिणाम साफ दिखाई दे रहा है। अभी भी यही लग रहा है कि भाजपा अपने भाग से ही निपटने की तैयारी को अमल में लाने की कोशिश कर रही है। उसे समझना होगा जनता के लिए मुद्दों के साथ जनता का मूंड भांपने की सियासत में जमीन पर खड़ा कार्यकर्ता महत्वपूर्ण है ना कि मुखौटे!