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महामारी के बीच बस्तर में हिंसा : कुछ सुलगते सवाल

राजेंद्र तिवारी. वरिष्ठ पत्रकार/संपादक।

छत्तीसगढ़ के सर्वाधिक उग्रवाद प्रभावित बस्तर रेंज के पुलिस महानिरीक्षक सुंदर राज पी. का हाल ही में एक बयान आया है। उन्होंने अपने इस बयान में दावा किया है कि बस्तर के 8000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को नक्सलियों के कब्जे से मुक्त करा लिया गया है।

पुलिस महानिरीक्षक के उक्त बयान के बाद नक्सलियों के प्रवक्ता विकल्प ने भी बयान जारी किया है। 22 अप्रैल को जारी इस बयान में विकल्प ने आरोप लगाया है कि सुरक्षाबलों द्वारा ड्रोन से उनके ऊपर हमले कराए जा रहे हैं। प्रवक्ता ने बोतालंका एवं पालमगुंडेम ग्राम में हुई बमबारी की तस्वीरें तक मीडिया के लिये जारी कर दी है।

देश के अन्य हिस्सों की तरह छत्तीसगढ़ भी कोरोनावायरस की महामारी से जूझ रहा है । इससे बस्तर भी अछूता नहीं है। यहां भी लगातार मौतें हो रही हैं। आदिवासी बहुल्य इलाका होने के बावजूद कोरोना बस्तर में भी कहर बरपा रहा है।

फलस्वरूप बस्तर संभाग के सभी सात जिले लॉकडाउन में चल रहे हैं। लेकिन लॉकडाउन के वावजूद यहां निरंतर हिंसा जारी है। यद्यपि पुलिस का दावा है कि नक्सली अपने कमजोर होते आधार के कारण बौखलाहट में हिंसक कार्रवाई कर रहे हैं। बहुत जल्द नक्सलवादियों को बस्तर से खदेड़ने का दावा भी पुलिस कर रही है।

सरकारी दावों की बानगी देखिए ।34 वर्षो पूर्व 1988 में बस्तर के दंतेवाडा को पुलिस जिला बनाया गया था। मध्यप्रदेश के तत्कालीन गृहमंत्री कैप्टन जयपाल सिंह ने उस समय यह कहा था कि दंतेवाड़ा के पुलिस जिला बन जाने के बाद नक्सली समस्या का आसानी से निदान ढूंढ लिया जाएगा। सर्व विदित है कि इसके उपरांत नक्सली समस्या समाप्त होने के बजाय निरंतर बढती चली गई।

तत्कालीन मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा ने वाई.के.एस. नेताम नामक एक अफसर को दंतेवाड़ा में बतौर पुलिस अधीक्षक पदस्थ किया था। श्री नेताम आदिवासी थे, इसलिए श्री वोरा को यह भरोसा था कि नक्सली समस्या को वे बेहतर ढंग से हैंडल कर पाएंगे। लेकिन बात नहीं बनी। श्री नेताम के बाद आलोक टंडन इस पुलिस जिले में पदस्थ किए गए तो उन्होंने आत्महत्या कर ली। कहा जाता है कि उस जमाने के दबंग अफसर अयोध्या नाथ पाठक ने उन्हें नक्सली मुद्दे पर फटकार लगाई थी। श्री टंडन इस फटकार को झेल नहीं पाए। वैसे श्री टंडन के आत्महत्या के वास्तविक कारणों का आज तक पता नहीं चल पाया है।

दरअसल उस जमाने में बस्तर को अविभाजित मध्यप्रदेश का कालापानी माना जाता था। यह आम मान्यता थी कि बस्तर की पदस्थापना दण्ड स्वरूप होती है। संभवत इसी वजह से श्री टंडन अपनी पदस्थापना के बाद से लगातार व्यथित भी थे। वैसे अयोध्या नाथ पाठक कई -कई दिनों तक बस्तर के जंगलों में डेरा डाले पड़े रहते थे। उन्होंने स्वयं दो नक्सलियों को मारा था।

अंग्रेजी साहित्य पर अच्छी पकड़ रखने वाले श्री पाठक काफी हद तक जुनूनी अफसर माने जाते थे। लेकिन यह भी सच है कि उस जमाने में पुलिस विभाग के आला अफसर पत्रकारों को नक्सली घटनाओं से संबंधित समाचारों को बढ़ा चढ़ाकर प्रकाशित करने का आग्रह किया करते थे।

इसके पीछे उनकी मंशा बस इतनी रहती थी की विभाग को ज्यादा से ज्यादा सुविधाएं सरकार से हासिल हो जाये। सुविधाएं हासिल करने के मकसद में पुलिस विभाग सफल तो हो गया किंतु नक्सली समस्या उसके गले की फांस बन कर रह गई ।

प्रारंभ में नक्सली आंध्र प्रदेश की पुलिस से बचने के लिए बस्तर के सीमावर्ती दुर्गम स्थलों में आकर छुपा करते थे। बस्तर के आदिवासियों का भी इनकी गतिविधियों से कोई विशेष सरोकार नहीं हुआ करता था। समस्या की शुरुआत 1969 में दक्षिण बस्तर के कोंटा से तब हुई जब लाल झंडों वाली एक साइकिल रैली कोंटा में निकली । चूंकी उस जमाने में नक्सलियों का संगठन प्रतिबंधित नहीं था। इसलिए जिला प्रशासन ने इस साइकिल रैली को कोई विशेष तवज्जो नहीं दिया।

इसका लाभ उठाकर सीपीआईएमएल नामक इस संगठन के सदस्य धीरे- धीरे अपनी पैठ बस्तर में बनाना प्रारंभ कर दिया। कोंटा के बाद महाराष्ट्र के किनारे- किनारे सिरोंचा और मट्टीमारका होते हुए नक्सली भोपालपटनम तक पहुंचने लगे। इसके बाद आदिलाबाद से आवापल्ली और बीजापुर तक नक्सलवादियों की आमदरफ्त शुरू हो गई ।

पीपुल्स वार ग्रुप जब प्रतिबंधित हुआ तब तक इस संगठन ने बस्तर में अपने सात दलम गठित कर लिये थे। सरकारी रिपोर्टों के अनुसार उस समय बस्तर में नक्सलियों की कुल संख्या 126 थी । इनमें सबसे कम संख्या वाला दलम केशकाल था जिसमें कुल 7 नक्सली थे। मद्देड दलम में नक्सलियों की कुल संख्या 21, कोंटा दलम में 27, बैलाडीला दलम में 33, नेशनल पार्क उर्फ कुटरु दलम में 28, अबूझमाड़ दलम में 11 व भामरागढ़ दलम में नक्सलियों की संख्या मात्र 10 थी। सरकारी रिपोर्टों में माना गया था की दलम में शामिल नक्सलियों की संख्या घटती बढ़ती रहती है। एक दलम के सदस्यों की अधिकतम संख्या 5 और न्यूनतम संख्या दो आंकी गई थी। सन् 1985 से 1990 तक नक्सलियों के विरुद्ध मात्र 196 अपराध पुलिस द्वारा पंजीबद्ध किए गए थे।

अपराध के विवरण इस प्रकार थे – हत्या के 16, हत्या के प्रयास के 22, 21 मामले डाकाजनी के ,9 लूट, 3 अपहरण, 38 आगजनी, 18 मारपीट, व 69 अन्य प्रकार के अपराध शामिल थे।सन् 1988 के बाद नक्सली हिंसा में तेजी आ गई। फलस्वरूप पुलिस और नक्सलियों के बीच मुठभेड़ भी प्रारंभ हो गई। इस मुठभेड़ में छह नक्सली मारे गए थे। पुलिस की सख्ती के कारण 18 नक्सली पकड़े भी गए और पांच ने आत्मसमर्पण कर दिया था। पुलिस गश्ती दलों द्वारा मुठभेड़ के बाद थ्री नाट थ्री के 5 राइफल, 315 बोर की एक राइफल ,12 भरमार बंदूक , चार देसी कट्टा 6 देसी गोले, 26 डेटोनेटर ,64 देसी बम और 339 कारतूस भी उस जमाने में जप्त किए गए थे।

उन्हीं दिनो जिला केंद्रीय जेल जगदलपुर में बंद नक्सली नेता रमन्ना अपने दो अन्य साथियों के साथ जेल से भाग निकलने में भी कामयाब हो गया था। ज्ञात हो कि क्षेत्रफल में केरल प्रांत से भी बड़े बस्तर जिले में दंतेवाड़ा पुलिस जिला का गठन मध्य प्रदेश सरकार ने नक्सली समस्या पर अंकुश लगाने के लिए किया था। इस पहले प्रयोग के बाद से बस्तर में लगातार प्रयोग जारी है। कभी आस्था अभियान तो कभी जन जागरण अभियान बस्तर के जंगलों में चलाया गया।

छत्तीसगढ़ के अस्तित्व में आने के बाद सलवा जुडूम अभियान पूरे देश में चर्चित हुआ ।दावे प्रति दावे भी किए जाते हैं किंतु नक्सली समस्या को समाप्त करना तो दूर नियंत्रित करना भी कठिन होता गया। वर्तमान में बस्तर 7 जिलों में विभाजित है। प्रत्येक 5 किलोमीटर की दूरी पर अर्धसैनिक बलों के कैंप स्थापित किए जा चुके हैं। पुलिस थाने और चौकियां इसके अलावा हैं।

इसके बाद भी हिंसा में किसी प्रकार की कमी नहीं आई है। एक सरकारी आंकड़े के अनुसार छत्तीसगढ़ बनने के बाद से लगभग 2000 निर्दोष नागरिक इस हिंसा के चपेट में अपनी जान गवा चुके हैं। प्रत्येक वर्ष करोड़ों रुपए नक्सली समस्या पर फूंके जाने के बावजूद अब समस्या के निदान के लिए ड्रोन का सहारा लिया जा रहा है। सेना के हेलीकॉप्टर तक बस्तर में तैनात किए गए हैं ।

समस्या की विकरालता का अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को बस्तर में अधिकारियों के साथ अलग से बैठक करनी पड़ी। विगत 3 अप्रैल को बीजापुर जिले में नक्सलियों के हमले में 22 जवान शहीद हो गए थे। राकेश्वर सिंह मन्हास नामक एक जवान को नक्सलियों ने अगवा कर लिया था जिसे बाद में रिहा कर दिया। यह जवान जम्मू कश्मीर का रहने वाला था।

लेकिन इस घटना के एक सप्ताह बाद सब इंस्पेक्टर मुरली ताती को नक्सलियों ने अगवा करने के बाद निर्ममता पूर्वक मार डाला। 26 अप्रैल के भारत बंद के दरमियान एक यात्री रेलगाड़ी को गिराने की कोशिश नक्सलवादियों द्वारा की गई। आधा दर्जन से ज्यादा वाहनों को भी फूंक डाला गया।

उत्तर बस्तर के कांकेर जिले में अर्धसैनिक बलों के एक कैंप पर देसी रॉकेट लॉन्चर से हमला हुआ। कुल मिलाकर नक्सलियों के हमले लगातार जारी है। 1988 से पहले जो स्थिति थी आज उससे बिल्कुल भिन्न और नक्सलवादी मजबूत स्थिति में है। नक्सलियों के पास अपना मिलिट्री दलम है। दूरस्थ गांव के आदिवासियों का उन्हें जन समर्थन भी प्राप्त है।

यही कारण है कि तथाकथित ड्रोन हमले के बाद ग्रामीण खुलकर विरोध में आ गए और सार्वजनिक रूप से प्रदर्शन भी किया। यदि एक सरकारी एजेंसी की रिपोर्ट पर भरोसा किया जाए तो उसका दावा है कि अफगानिस्तान के बाद छत्तीसगढ़ के बस्तर में सर्वाधिक बारूदी सुरंग विस्फोट किए जा रहे हैं । बारूदी सुरंग विस्फोट की तकनीक नक्सलियों ने भारतीय सेना से प्राप्त की थी। यहां यह भी उल्लेख करना लाजमी होगा नक्सलियों के तार जम्मू कश्मीर के आतंकवादियों से जुड़े हुए हैं । पूर्वोत्तर में उल्फा से भी इस संगठन का संपर्क बना हुआ था।

श्रीलंका के लिट्टे के साथ भी नक्सलवादियों की सांठगांठ जगजाहिर थी। पुलिस प्रशासन के दावे भले ही नक्सलियों के आधार क्षेत्र को सिमटता हुआ बता रहे हो किंतु बस्तर संभाग की सीमाएं इस संगठन के लिए आज भी काफी मुफीद है। बस्तर का एक बड़ा हिस्सा तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र ,उड़ीसा से लगा हुआ है। नक्सल प्रभावित राज्यों के बीच दंडकारण्य का यह क्षेत्र एक सेफ जोन की तरह नक्सलियों के लिए बना हुआ है। छत्तीसगढ़ राज्य के अस्तित्व में आने के बाद यह मानकर चला जा रहा था कि सरकार इस सेफ जोन को ध्वस्त करने में कामयाब हो जाएगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।

हर बड़ी हिंसक वारदात के बाद सरकार एक रटा रटाया बयान जारी कर देती है कि जवानों की शहादत बेकार नहीं जाएगी । आश्चर्य होता है कि स्वर्गीय महेंद्र कर्मा एवं बलीराम कश्यप जैसे आदिवासी नेताओं के बाद आज नक्सलियों के विरुद्ध बस्तर का एक भी नेता जुबान खोलने के लिए तैयार नहीं है। बड़ी से बड़ी नक्सली घटना के बाद भी नेताओं की खामोशी बहुत कुछ कह जाती है।

यही कारण है कि नक्सली राज्य के 18 जिलों में फैल चुके है। बस्तर में लगभग प्रत्येक माह थोक में नक्सलियों के आत्मसमर्पण पुलिस द्वारा कराए जाते हैं। लेकिन हार्डकोर नक्सलियों का आत्मसमर्पण क्यों नहीं हो पा रहा है? यह सवाल आज भी अनुत्तरित है। पुलिस के लिए सर्वाधिक वांछित नक्सली नेता वासव राजू, मुपल्ला लक्ष्मण राव, कटकम सुदर्शन, मुल्लूजुला वेणुगोपाल, मिसिर बेसरा, किसन उर्फ प्रशांत बोस, विवेक चंद्र यादव उर्फ प्रयाग के बारे में कोई विशेष जानकारी सरकार के पास उपलब्ध नहीं है जबकि उक्त तमाम नक्सली नेता बस्तर के जंगलों में डेरा डाले हुए है। सरकार ने इन पर लाखों रुपए का इनाम भी घोषित कर रखा है।

लिखने का गर्ज यह कि पिछले 35 वर्षों का यदि लेखा- जोखा सामने रखा जाए तो यह आईने की तरह साफ हो जाएगा कि समस्या घटने की बजाए लगातार बढ़ रही है। अलबत्ता नक्सली समस्या के गहराने के साथ ही पुलिस विभाग में सरकारी सुविधाएं बढ़ गई हैं। अब एक-एक अफसरों के पास कम से कम दो दो सरकारी गाड़ियां होने लगी है। 35 वर्षों पूर्व पुलिस अधीक्षक को भी एंबेसडर कार नसीब नहीं हुआ करती थी।

फलस्वरूप अब इस समस्या के निदान के लिए केवल बंदूक के सहारे नहीं रहा जा सकता। हमें यह देखना होगा कि पिछले चार दशकों में वे कौन से मुद्दे हैं जिन्हें आदिवासियों के बीच नक्सली लगातार उठा रहे हैं। हमें आदिवासियों के मन में व्याप्त अलगाववाद की भावना को भी जड़ से समाप्त करनी होगी। इतना ही नहीं इस आदिवासी अंचल में विकास की सार्थक पहल करनी पड़ेगी। कागजों पर होने वाले विकास से नक्सली समस्या और गहराती जाएगी। एक उदाहरण काफी होगा।

बस्तर जिले में लगभग एक हजार शिक्षक गैरशैक्षणिक कार्यों में पदस्थ हैं और गांव के स्कूलों में शिक्षक नहीं है। जो स्थिति अविभाजित मध्यप्रदेश में बस्तर की थी वही स्थिति आज छत्तीसगढ़ में भी बनी हुई है। राज्य बनने के 20 वर्षों बाद भी बस्तर में एक पूर्णकालिक जिला शिक्षा अधिकारी की पदस्थापना तक नहीं हो पा रही है। प्रभारी अधिकारियों के भरोसे संचालित शिक्षा विभाग की पूरी व्यवस्था को भ्रष्टाचार धीरे धीरे पंगु बना चुका है। आलम यह है कि जिला मुख्यालय पर संचालित डोकरीघाट पारा मिडिल स्कूल में 8 छात्रों के लिए 4 शिक्षक पदस्थ हैं किंतु विश्रामपुरी गांव के मिडिल स्कूल में 100 बच्चों के लिए एक शिक्षक उपलब्ध है।

बस्तर विश्वविद्यालय की स्थापना तो हो चुकी है किंतु प्रोफेसरों के 50 पद रिक्त हैं। दरअसल नक्सली समस्या सामाजिक और आर्थिक होने के साथ-साथ वैचारिक भी है। पहले वैचारिक स्तर पर इस समस्या को समाप्त किया जाना चाहिए जिसमें शिक्षा विभाग की महत्वपूर्ण भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। शिक्षा विभाग गांवो के प्रति निरंतर उदासीन बना हुआ है।

इसलिए दूरस्थ गांवो की पाठशाला लाल सलाम के नारों से प्रारंभ होने लगी है। यह हाल बस्तर जिले का है तो बीजापुर एवं सुकमा जिले में स्थिति कैसी होगी, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। लगभग सभी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में चिकित्सकों के पद रिक्त पड़े हैं। कहीं वार्ड बॉय तो कहीं कंपाउंडर अस्पताल चला रहे हैं।चारो तरफ भ्रष्टाचार का बोल बाला है और बेरोजगारी चरम पर है।

इस बेरोजगारी की समस्या के कारण कई आदिवासी युवकों की जिंदगी गुलामों से भी बदतर हो चुकी है। राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए आज तक बस्तर में एक भी केंद्र स्थापित नहीं किया गया है। फलस्वरूप पोस्टमैन की परीक्षा में शामिल होने के लिए बस्तर के बेरोजगारों को राजधानी रायपुर की दौड़ लगानी पड़ती है। जगदलपुर का बेरोजगार युवक राजधानी रायपुर तो जा सकता है किंतु भोपालपटनम और कोंटा के बेरोजगार युवकों के लिये राजधानी पहुंचकर प्रतियोगी परीक्षाओं में शामिल होना किसी दु:स्वप्न से कम नहीं ।

यह एक गंभीर विषय है जिस पर विचार किया जाना चाहिये।अन्यथा ग्राम ढोढरेपाल के पंडरूराम की तरह यहां के युवक काम की तलाश में हैदराबाद जाते रहेगें और अपना दाहिना हाथ गंवा कर लौट आया करेंगे। महंगाई का आलम यह है की बस्तर के बाजारों में हर चीज कई गुना महंगी बिकती है। एक पंजाबी व्यापारी की इशारे इशारों में कही गई बात से साफ है कि बस्तर में रहना और व्यापार करना कनाडा की तरह काफी लाभ उपार्जित करने वाला है। दूसरी तरफ बस्तर की राजनीति में पांव धरते ही नेताओं की संपत्तियों में लगातार इजाफा होने लगता है।

बस्तर के गांधी कहे जाने वाले मांनकूराम सोड़ी की बजाए अब बस्तरिया नेताओं के रोल मॉडल पूर्व केंद्रीय मंत्री अरविंद नेताम बन चुके हैं। बस्तर का बैलाडीला क्षेत्र धीरे-धीरे कर्नाटक का बेल्लारी बनता जा रहा है। लौह अयस्क के कारोबार पर माफिया हावी है। फलस्वरूप नक्सलवाद फल फूल रहा है। बंदूक की नोक पर नक्सलियों को भोजन परोसने वाले आदिवासी जेल चले जाते हैं किंतु नक्सलवादियों को गोली बारूद के लिए धन उपलब्ध कराने वाले दोनों हाथों से चांदी काट रहे हैं।

राहत की बात केवल यह है कि राज्य के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने प्रदेश की कमान संभालने के बाद कुछ चुनिंदा अफसरों को बस्तर में पदस्थ करना प्रारंभ किया है।

भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रजत बंसल उनमें से सबसे उल्लेखनीय नाम है। प्रशासन के बंसल मॉडल को यदि बस्तर के सभी जिलों में लागू किया जाए तो नक्सलवादियों को हासिये पर धकेला जा सकता है। दूसरे शब्दों में बस्तर में निरंतर जारी हिंसा पर अंकुश लगाया जा सकता है। अन्यथा नक्सली समस्या केवल पुलिस विभाग की समस्या बनकर रह गई है जो आगे भी इसी प्रकार बनी रहेगी।

लेखक : आंचलिक समाचार पत्र संग्रहालय एवं शोध संस्थान के अध्यक्ष हैं। जगदलपुर (बस्तर) छत्तीसगढ, मोबाइल नंबर 9425257308

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