छत्तीसगढ़ में भाजपा की पहली लिस्ट और बस्तर में भाजपा की सियासत के पहले दो पत्ते… लगता है अबकी तैयारी पूरी है!
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सुरेश महापात्र।
करीब 36 घंटे हो गए हैं भारतीय जनता पार्टी ने छत्तीसगढ़ के लिए 21 चेहरों का ऐलान कर दिया है। इनमें उन सीटों को महत्व दिया गया है जिनमें भाजपा को करारी शिकस्त मिली थी। जो चेहरे सामने उतारे गए हैं वे आने वाले दिनों में भाजपा की सियासत की रणनीति का इशारा करते दिख रहे हैं।
छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल सरगुजा और बस्तर को मिलाकर कुल 29 सीटों पर आदिवासियों के लिए आरक्षण है। इनमें से 27 सीटों पर कांग्रेस ने जीत हासिल की थी। सो इस बार बेड़ा पार करने तैयारी बड़ी करनी है। भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने 17 अगस्त को पहले चरण में जिन 21 नामों का ऐलान किया है उनमें सबसे बड़ा नाम रामविचार नेताम का है।
भाजपा के वर्तमान में सबसे कद्दावर आदिवासी नेता छत्तीसगढ़ में पहले मंत्री रहे फिर भाजपा ने राज्य सभा की सैर करवाई अब राज्य की राजनीति में फिर से मौका दे रही है। दूसरा बड़ा चेहरा है दुर्ग सांसद विजय बघेल का।
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के भतीजा हैं और युवा तुर्क भी हैं। भाषण और संबंध का गजब का तालमेल है। यानि भूपेश के लिए भूपेश के घर से ही चुनौती पेश कर दी गई है। विजय बघेल के पाटन से प्रत्याशी होने के ऐलान के बाद सीएम भूपेश बघेल के उस संदेश का क्या होगा जिसमें उन्होंने पाटन के कांग्रेसियों को संबोधित करते हुए दी थी कि इस बार वे यहां चुनाव प्रचार करने नहीं आएंगे? क्या विजय बघेल की चुनौती का सामना भूपेश बघेल बिना अपनी ताकत लगाए सामना कर सकेंगे? यह बड़ा सवाल अब खड़ा है।
इसके बाद खरसिया की वह सीट जहां से भारतीय जनता पार्टी ने आईएएस ओम प्रकाश चौधरी को कलेक्टरी छोड़कर राजनीति में मौका दिया था। यहां ओपी चौधरी ने पूरी ताकत लगाई पर स्व. नंदकुमार पटेल के चुनावी गढ़ को भाजपा भेद नहीं सकी। खरसिया विधानसभा क्षेत्र छत्तीसगढ़ में भाजपा के लिए सबसे कमजोर सीट है। यहां से पूर्व प्रत्याशी ओपी चौधरी की जगह महेश साहू को मौका दिया गया है।
युवा अधिकारी के तौर पर ओम प्रकाश चौधरी पूरे प्रदेश में अपनी विशिष्ट कार्यशैली से विख्यात रहे। कई बड़ी उपलब्धियां उनके खाते शामिल हैं। बायंग जैसे छोटे से गांव से निकलकर पूरे देश में अपनी अफसरी से पहचान बनाने वाले ओपी की फैन फालोविंग जबरदस्त है। पार्टी ने बीते पांच साल उन्हें संगठन के विभिन्न दायित्व सौंपकर राजनीतिक जमीन पर जड़ों को मजबूत करने का मौका दिया। अब वे पार्टी के राज्य संगठन में महामंत्री की जिम्मेदारी निभा रहे हैं।
पुराने अनुभव के आधार पर देखा जाए तो पार्टी ने खरसिया से उन्हें निकालकर एक प्रकार से उन्हें राहत ही दिया है। क्योंकि एक कुशल प्रशासक का राजनीति में अगर उपयोग करना हो तो सही जगह से मौका देना जरूरी है। संभवत: उन्हें इस बात का प्रिविलेज मिला है। पर उन्हें भाजपा के पुराने सियासती बांधने की तैयारी करे बैठे हैं तो संभव है अगली सूची में ओपी का भी नाम शामिल हो। क्योंकि मजबूत लगने वाली सीटों पर तो पहले से ही दिग्गजों की तैयारी चल रही है।
अब बात बस्तर के उन दो सीटों की जहां के लिए भाजपा ने अपने दो चेहरों का ऐलान कर दिया है। यह पहले से ही तय माना जा रहा था कि भाजपा के लिए बस्तर संभाग में सबसे बड़ा गढ्ढा बस्तर विधानसभा क्षेत्र ही है। यहां से लखेश्वर बघेल विधायक हैं। गिरौला क्षेत्र के लखेश्वर गिरौला स्थित माता हिंगलाजिन मंदिर के पुजारी भी हैं। उनकी शख्सियत के सामने भाजपा से काट का चेहरा सामने आया था डा. सुभाउ राम कश्यप पर वे अब फुस्सी बम हो चुके हैं।
इस बार बस्तर संभाग के दो सीटों कांकेर आशाराम नेताम और बस्तर से मनीराम कश्यप को मौका मिला है। ये दोनों नए चेहरे हैं। मनीराम का लखेश्वर बघेल से पारिवारिक संबंध कुछ ऐसा है कि भाजपा के इस नाम के भीतर की कहानी संभवत: बहुत कम लोगों को पता हो। लखेश्वर बघेल के छोटे भाई के साढ़ू हैं मनीराम कश्यप। बस्तर विधानसभा क्षेत्र में दो जिला पंचायत सीटों में से एक में लखेश्वर बघेल का प्रत्याशी जीतता है तो दूसरे में लगातार दो बार से मनीराम कश्यप जीत रहे हैं।
इस बार वे जिला पंचायत उपाध्यक्ष भी हैं। विपरित राजनीतिक दल का होने के बाद भी मनीराम के लिए लखेश्वर बघेल हमेशा से आदरणीय रहे हैं। ऐसे में छत्तीसगढ़ की यह दूसरी सीट है जहां भाजपा ने कांग्रेस के संभावित प्रत्याशी के खिलाफ उनके ही परिवार से चुनौती पेश कर दी है।
उत्तर बस्तर की प्रमुख कांकेर सीट को इस बार कांग्रेस के लिए कमजोर माना जा रहा है ऐसे में भाजपा ने अपने कमजोर सीटों वाली लिस्ट में कांकेर को शामिल कर थोड़ा चौंकाया है। हो सकता है भाजपा की आंतरिक सर्वे में यह साफ हो गया हो कि कांकेर से वर्तमान विधायक शिशुपाल सोरी को रिपीट करना असंभव है। यहां से पूर्व विधायक शंकर ध्रुवा को मौका मिल सकता हो। इसीलिए फिल्डिंग पहले से ही सजा ली गई हो। क्योंकि अब यदि कांकेर में कांग्रेस नाम ऐलान करने में जितनी देरी करेगी भाजपा के लिए उतना ही अवसर बढ़ेगा!
बस्तर संभाग में कुल 12 सीटों का हिसाब कुछ ऐसा है कि भाजपा कम से कम चार सीटों पर पुराने चेहरों के लिए उहापोह में हैं उनमें कोंडागांव से लता उसेंडी, नारायणपुर से केदार कश्यप, जगदलपुर से संतोष बाफना और बीजापुर से महेश गागड़ा! ये चारों नाम रिपीट वाली सूची में तय बताने की कोशिश चल रही है।
इनमें जगदलपुर सीट सामान्य है। यहां भाजपा को बड़ी शिकस्त मिली थी। वजह एक हवा थी जो सीधे प्रत्याशी के खिलाफ बहने लगी। पर बीते पांच सालों में हालात बहुत कुछ बदला है। संतोष बाफना ने जमीन पर तैयारी खत्म नहीं की बल्कि लगातार जुटे हैं। इस विधानसभा क्षेत्र के हर दीवार पर कमल निशान के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और संतोष बाफना की तस्वीर पेंट की गई है। बीते पांच सालों में बाफना ने अपने जन्मदिन, दिवाली और दशहरा के साथ गणेश—दुर्गा के मौके पर जमकर पैसा बहाया है। भीड़ का प्रदर्शन भी किया है। यानी अपनी तरफ से गिवअप करने की कोशिश कभी नहीं की।
इस विधानसभा सीट से भाजपा के लिए महाराजा कमलचंद्र भंजदेव पूरी ताकत लगाए बैठे हैं। संगठन के कद्दावर नेता पूर्व महापौर किरण देव के साथ श्रीनिवास मद्दी, संजय पांडे, संग्राम राणा भी फिल्डिंग कर रहे हैं। ऐसे में कुल छह संभावित प्रत्याशी की जोरआजमाइश में बाफना की उम्मीद की वजह ओम माथुर और सौदान सिंह हैं।
बीजापुर में महेश गागड़ा बीते एक बरस से जमीन पर पसीना बहा रहे हैं। उन्हें उम्मीद है पुरानी गलतियों को जनता अनदेखा कर इस बार गलती सुधारने का मौका दे सकती है। दरअसल महेश और वर्तमान विधायक विक्रम मंडावी दोनों पक्के दोस्त रहे हैं। दोनों भैरमगढ़ के हैं। राजनीति की अपनी—अपनी धुरी के साथ आगे बढ़ते रहे। महेश के बाद विक्रम को मौका मिला। विक्रम ने एक रणनीति में काम किया कि वे कभी बीजापुर छोड़कर बाहर नहीं निकले। पर अपने करीबियों के साथ उनके रिश्ते बनते बिगड़ते रहे।
अजय सिंह भी भैरमगढ़ के हैं भाजपा शासन के दौर में अजय सिंह के घर पर बुल्डोजर भी चला। वे विक्रम के साथ कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष करते रहे परिणाम विक्रम के पक्ष में रहा। इसी तरह से कभी भाजपा के खेवनहार रहे भोपालपटनम के बसंत ताटी अब कांग्रेस के सिपाही हैं।
राजनीति में ना तो स्थाई दोस्ती होती है और ना ही दुश्मनी! अब बदली हुई परिस्थितियों में अजय सिंह की स्थिति ऐसी हो गई है कि वे लगातार दो साल से विक्रम पर हमलावर रहे। सार्वजनिक टिप्पणियां की। जमीन पर भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल खड़ा करने की कोशिश की। सरकार के खिलाफ खुलेआम प्रेस कान्फरेंस किए और विक्रम पर जुबानी हमला बोलने में कभी कमी नहीं की। नतीजा साफ है कि ऐसे में विक्रम के लिए स्थितियां असहज भी हुईं। पर बीजापुर की राजनीति सड़क पर और सड़क से भीतर अलग—अलग तरह से काम करती है।
अंदरवालों के प्रभाव वाले इलाके में किसकी चलेगी यह तो आने वाले चुनाव परिणाम के बाद ही सामने आएगा। पर यह तो तय है कि बीजापुर में साल भर पहले बना एक तरफा कांग्रेसी माहौल अभी उतना मजबूत नहीं है। सो महेश की दिली ख्वाहिश होगी ही कि इस बार उन्हें भाजपा मौका दे और वे अपनी हारी हुई सीट को वापस लेकर दिखाएं।
कोंटा में कवासी लखमा की स्थिति चुनाव के दौरान भले ही हल्की दिखाई देती है पर वे अपराजित योद्धा के तौर पर लगातार विजयी होने का अपना रिकार्ड कायम कर चुके हैं। देखा जाए तो भाजपा के लिहाज से यह सीट कमजोर सीटों की गणना में शामिल होना चाहिए था पर इसे भाजपा ने मजबूत उम्मीदों वाली लिस्ट में क्यों शामिल कर रखा है। यह रहस्य है।
मंत्री बनने के बाद कवासी लखमा से उम्मीदें तो बढ़ीं। रूतबा बढ़ा तो जलवा भी बढ़ा। इसी के साथ एंटी इंकबैंसी का खतरा भी बढ़ा है। कोंटा इलाके में भाजपा की सियासत को सबसे ज्यादा नुकसान भाजपा के ही गुटीय राजनीति से होता रहा है। केदार कश्यप का अपना एक गुट है।यहां के जमींदार देव परिवार की अपनी कार्यशैली। गुटीय समीकरण में भाजपा यहां लंबे समय से फंसी रही है।
अब जमीन पर मेहनत हो रही है शहर में भाजपा का जनाधार बढ़िया है पर अंदर वाले इलाकों में कांग्रेस और सीपीआई का गढ़। ऐन वक्त पर सीपीआई के वोट कांग्रेस में कैसे शिफ्ट हो जाते हैं इसका तोड़ संभवत: केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह निकाल चुके होंगे तभी इस सीट को लेकर भाजपा पहले से ज्यादा संतोष की मुद्रा में दिख रही है।
दंतेवाड़ा सीट पर इस समय देवती महेंद्र कर्मा विधायक हैं। यह साफ दिखाई दे रहा है कि इस बार उन्हें टिकट नहीं मिलेगी। उनके पुत्र छविंद्र कर्मा के लिए कांग्रेस का एक विंग पूरी तरह से लांबिंग कर रहा है। वैसे भी पिछले बार ही इस बात के संकेत दे दिए गए थे कि अब परिवार से किसी एक को ही कांग्रेस आगे मौका देगी। दीपक कर्मा के निधन के बाद छविंद्र के लिए अब कोई चुनौती है ही नहीं। देवती कर्मा से उनके करीबी इसलिए भी नाखुश रहे कि वे फैसला स्वयं नहीं लेती हैं।
स्थानीय प्रशासन के साथ उनकी टसन का दौर भी यहां साफ दिखाई देता रहा। पर इन सबके बावजूद छविंद्र ने लगातार खुद को पूरे प्रकरण से दूर रखा। सार्वजनिक कार्यक्रमों में शामिल होते रहे तो ऐसे में यहां भाजपा के लिए बाहर से मजबूत दिखने वाली संभावना पर प्रत्याशियों की महात्वाकांक्षा का भार है। करीब आठ संभावित प्रत्याशी उम्मीद लगाए बैठे हैं।
महिला होने के कारण ओजस्वी भीमा मंडावी को अगर दुबारा मौका मिलता है तो यहां छविंद्र और ओजस्वी के बीच चुनाव रोचक हो सकता है। कांग्रेस के भीतर भी बहुत से ऐसे फांक हैं जिनसे निपटना छविंद्र के लिए आसान नहीं है। दंतेवाड़ा सीट को लेकर जमीनी हकीकत की पड़ताल केंद्रीय नेतृत्व ने काफी गंभीरता से की है। भीमा मंडावी की शहादत को भाजपा जाया जाने नहीं देगी। इस बात को लेकर स्व. भीमा मंडावी के समर्थक आश्वास्त हैं।
शेष सीटों की समीक्षा अगले हिस्से में…