पिड़िया मुठभेड़ : सवालों के घेरे में बहुत कुछ!
सुरेश महापात्र।
बस्तर में इन दिनों एक बार फिर युद्ध सी गर्जना का दौर है। बड़ी संख्या में माओवादियों के ठिकानों में फोर्स बेहद आक्रमकता के साथ लगातार आगे बढ़ रही है। एक प्रकार से माओवादी मोर्चे पर फोर्स की बढ़त का दौर बस्तर के घने जंगलों में दर्ज हो रहा है। अब से कुछ ही दिन बाद जब झीरम घाट पर माओवादियों के हमले की 11वीं बरसी पूरी होगी तब एक बार फिर कांग्रेस के नेता माओवादियों के खिलाफ आवाजें तो उठाएंगे पर साथ ही सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की सरकार पर जुबानी प्रहार भी करेंगे।
माओवादियों के खिलाफ जीवनपर्यंत अपना संघर्ष जारी रखने वाले शहीद महेंद्र कर्मा को याद किया जाएगा। महेंद्र कर्मा ने अपने जीवन में दो बार माओवादियों के खिलाफ जमीनी संघर्ष का नेतृत्व किया। पहली विफलता के बाद जब उनके सभी साथियों को माओवादियों ने निशाना बना लिया तो दूसरी बार माओवादियों के खिलाफ आदिवासियों के आक्रोश का नेतृत्व करने में कोई कसर नहीं छोड़ा। सलवा जुड़ूम अभियान के बाद 19 बरस पूरे हो चुके हैं। इस अभियान के बाद झीरम में जिस तहर से महेंद्र कर्मा के खिलाफ माओवादियों ने अपनी क्रूरता का प्रदर्शन किया वह युद्धबंदियों के तमाम नियमों और कायदों से परे रहा। शायद यह बात कांग्रेस अब तक ना भूली हो…
आरोप प्रत्यारोप के इस दौर से ठीक पहले कांग्रेस को एक मौका मिला है जब वह पिड़िया में हुई मुठभेड़ को लेकर फोर्स को घेरने की रणनीति पर काम करता दिख रहा है। एक ऐसी राजनीतिक पार्टी जिसके राज्य के शीर्ष नेताओं को माओवादियों ने पूरी तरह से खत्म कर दिया। वह पार्टी अब तक माओवादियों के खिलाफ जमीन पर अपनी रीढ़ के साथ खड़ी नहीं हो पा रही है। यह विचारणीय होना चाहिए।
पिड़िया मुठभेड़ के बाद आदिवासियों को सीधे निशाने पर लिए जाने को लेकर कांग्रेस ने एक जांच समिति बनाई है। यह समिति मौका ए वारदात का मुआयना कर हकीकत को सामने रखने की कोशिश करेगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि जांच समिति निष्पक्ष होकर अपनी जांच का ब्यौरा सामने रखने में कामयाब होगी! वैसे यह वक्त राजनीति का कतई नहीं है। यह समझने की दरकार है कि जब माओवादी संगठन के पुराने और कद्दावर साथी ही अब आत्मसमर्पण की राह तलाश रहे हैं तो ऐसे समय में अब बस्तर के युद्ध क्षेत्र में शांति की तमाम कोशिशों को राजनीतिक तौर पर सहयोग प्रदान करना चाहिए।
बस्तर में फोर्स बेहद सधी हुई रणनीति के साथ लगातार आगे बढ़ती दिख रही है। माओवादियों की समस्या से केवल विकास ही बाधित नहीं हो रहा है बल्कि पूरे देश और दुनिया में बस्तर की छवि पर एक लाल दाग जैसा है। हाल ही में मैंने गुजरात और उड़ीसा का भ्रमण किया। वहां बस्तर को लेकर बातें हुईं। यह जानकर दुख हुआ कि बस्तर में पर्यटन की असीम संभावनाओं में माओवादियों का आतंक एक ग्रहण की तरह चिपका हुआ है। पूरी दुनिया में पर्यटन से रोजगार के द्वार खुल रहे हैं। बस्तर जहां प्रकृति ने सब कुछ दिया है जहां पर्यटन की असीम संभावनाएं हैं वहां माओवादियों के हमलों की खबरों ने हमेशा से नुकसान पहुंचाया है।
बस्तर में सैकड़ों माओवादी हमलों को करीब से देखने और मुठभेड़ों और हत्याओं की सच्चाई को उजागर करने के बाद यह समझ तो विकसित हुई है कि साफ तौर पर दिखाई देने वाली परिस्थितियों का विश्लेषण यदि निष्पक्ष होकर किया जाए तो भी यह दिखाई दे जाता है कि आखिर माजरा क्या है? पिड़िया के मुठभेड़ को लेकर मेरे मन में कई सवाल उठे जिनका जवाब पाने के लिए कई लोगों से बातचीत की। साथ ही तथ्यात्म विश्लेषण के माध्यम से यह विचार करने की कोशिश की कि आखिर पिड़िया में क्या हुआ होगा?
पहली बात तो यही है कि यह साफ तौर पर एक मुठभेड़ जैसी हालात में माओवादियों के पीएलजीए सदस्यों और ग्रामीणों की मौत की कहानी है। मौके से जिन माओवादियों को फोर्स उपचार के लिए लेकर पहुंची है और माओवादियों के संगठन ने जिस तरह से यह स्वीकारोक्ति की है कि उनके दो साथी मारे गए हैं। इसके बाद एक बड़ा तथ्य स्पष्ट है कि जिस तरह के हालात दिखाने की कोशिश हो रही है और जमीनी सच के बीच बड़ा अंतर है। यह आरोप लगाया जाना कि ग्रामीण तेंदुपत्ता तोड़ने के लिए गए हुए थे वहां फोर्स ने घेरकर उन्हें निशाना बना दिया। यह पूरा सच नहीं लगता।
सबसे पहले तो तेंदूपत्ता तोड़ाई के लिए जमीनी सच्चाई को समझने की दरकार है। पहला यह कि जिस जगह पर मुठभेड़ का दावा माओवादी, ग्रामीण और फोर्स की ओर से किया जा रहा है। वह स्थान तेंदूपत्ता संग्रहण केंद्र से करीब पांच किलोमीटर के फासले पर है। दूसरा यह कि जिस पहाड़ी पर मुठभेड़ के निशान हैं वहां दूर—दूर तक तेंदूपत्ता के पौधे ही नहीं है। पेड़ और झाड़ियों से घिरा जंगल जैसा है।
यहां मुठभेड़ की घटना के बाद चट्टान जैसी जगह पर जहां महिलाएं बैठी हैं उस स्थल को साफ देखा जा सकता है। तीसरा यह कि जिस स्थान पर मुठभेड़ की तस्वीर है वह स्थल नदी और पहाड़ी से जुड़ा हुआ है ऐसे स्थान पर अक्सर तेंदूपत्ता के लिए बूटा कटाई भी नहीं होती। तेंदूपत्ता के लिए मैदानी इलाके में बूटा कटाई की जाती है उसके बाद ही नए पत्ते निकलते हैं जिसका संग्रहण किया जाता है।
इससे पहले भी मैंने कई बार फर्जी मुठभेड़ों की सच्चाई सामने लाने की कोशिश की है। इनमें से एक तो पोंजेर की वह घटना है जिसमें संतोषपुर के सात लोगों को एसपीओ की पार्टी ने सर्चिंग आपरेशन के बाद मार दिया दिया था। इस मामले की जांच के बाद 2007 में दैनिक भास्कर में रिपोर्ट प्रकाशित की थी। मुठभेड़ या हत्याएं…? इस मामले की जांच हुई और यह पाया गया कि मुठभेड़ फर्जी था। एफआईआर दर्ज की गई। बस्तर में फर्जी मुठभेड़ों का भी अपना इतिहास है। पर पिड़िया के मामले में ग्रामीणों के बयान ही कान्ट्रोडक्ट हैं। कम से कम तेंदुपत्ता तोड़ाई को लेकर बताई जा रही बातें मौके की तस्वीर से मेल नहीं खा रही हैं।
कहने का आशय साफ है कि जिस जगह पर मुठभेड़ दर्ज है वहां तक फोर्स क्या ग्रामीणों को बंधक बनाकर लाई और गोलीबारी में सबको भून दिया? इस तथ्य को समझने के लिए यह देखना जरूरी होगा कि गुरूवार यानी 9 मई की रात को दंतेवाड़ा, सुकमा और बीजापुर की ओर से घेराबंदी करते हुए फोर्स निकली थी। सुकमा की ओर से पहुंची फोर्स बासागुड़ा की ओर से पिड़िया की पहाड़ी को घेरते हुए आगे बढ़ी सुबह करीब छह बजे के आस—पास यह पहली मुठभेड़ दर्ज हुई। ग्रामीण यह भी बता रहे हैं कि इस इलाके में पहाड़ी में मुठभेड़ के बाद दो—तीन और भी जगहों पर मुठभेड़ हुई है।
यानी माओवादियों के कोर इलाके में अल सुबह फोर्स फर्जी मुठभेड़ की रणनीति को अमल करने के लिए लोगों को घेरकर पहाड़ी तक लेकर पहुंची। सुबह का समय और मौके पर तेंदूपत्ता के पौधों का ना होना एक बड़ा सवाल खड़ा करता है कि या तो माओवादियों को इस बात की भनक लग चुकी थी कि फोर्स घेराबंदी कर आगे बढ़ रही है तो संभव है कि वे अपना वर्दी और ज्यादातर हथियार छिपाकर बचने की नीयत से पहाड़ी की ओर ग्रामीणों का साथ लेकर निकले होंगे।
उसके पीछे यही मंशा होगी कि पूछताछ में वे बता सकें कि तेंदूपत्ता तोड़ने के लिए पहुंचे हैं। यदि यह मान भी लिया जाए कि मृतकों में सामान्य ग्रामीण हैं तो ऐसा संभव है कि एक बार फिर माओवादियों और फोर्स के दो पाटों में ग्रामीण फंसे होंगे।
माओवादियों के संगठन ने पर्चा जारी कर इस तथ्य को स्वीकार किया है कि मृतकों में दो पीएलजीए के साथी हैं तो यह स्पष्ट है कि पीपुल लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी के किसी भी सदस्य को बिना हथियार चलने की इजाजत नहीं है। एक और तथ्य है कि दूर—दराज से पहुंचे ग्रामीण दूसरे इलाके में तेंदूपत्ता तोड़ने के लिए क्यों पहुंचेंगे? सवाल तो बहुत सारे हैं पर सबसे बड़ा सवाल बस्तर में आदिवासियों के जीवन और मरण का है।
बस्तर के आदिवासी यदि माओवादियों का साथ दें तो भी निशाने पर हैं और ना दें तो भी निशाने पर उनकी जिंदगी बनी हुई है। जिसकी फिक्र शायद ही किसी को हो। माओवादियों और फोर्स की ओर से चलने वाली गोली मारने में कोई भेद नहीं करती! बस जिसे लग गई तो लग ही गई।
बस्तर के जंगलों में बीते पांच महीने में फोर्स की कामयाबी नक्सलियों के मोर्चे पर इतिहास में सफलता के तौर पर दर्ज होती जा रही हैं। फोर्स लगातार मिल रही सफलताओं से उत्साहित है। ऐसे समय में किसी भी मुठभेड़ के समय अब फोर्स के सामने ग्रामीणों को चारा के तौर पर सामने करने की रणनीति पर माओवादी संगठन काम कर सकता है। हांलाकि पहले भी इस तरह से कई घटानाएं सामने आई हैं जिनमें पहली पंक्ति में दबावपूर्वक खड़े ग्रामीण फोर्स का निशाना बने हैं।
बस्तर में बड़ी खुशी की बात है कि अंदरूनी इलाकों में तेजी से सड़का जाल बिछाया जा रहा है। स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए कोशिशें की जा रही हैं। बीते दो दशक से माओवादियों के मोर्चे पर हजारों जवानों की शहादतों और ग्रामीणों की मौत की लंबी सूची में शामिल होने के बाद अब फोर्स के हिस्से बड़ी कामयाबी दर्ज की जा रही है।
छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री लगातार माओवादियों से बातचीत के लिए बल दे रहे हैं। पर बातचीत तो हथियार के नोक पर बैठकर नहीं हो सकती। माओवादी यदि बस्तर में शांति और विकास के साथ जुड़कर आदिवासियों का भला करना चाहते हैं तो यही सही समय है। माओवादी संगठन बस्तर के विकास के लिए अपने कदम को मजबूती के साथ आगे बढ़ाए ग्रामीणों की तमाम जरूरतों के लिए सरकार के संसाधनों की उपलब्ता के लिए रास्ता खोल दें।
लोकतंत्र में अपने मताधिकार से जब अपना प्रतिनिधि चुनने का अधिकार हर आम नागरिक को है ऐसे में बंदूक की नली से सत्ता हासिल करने की कोशिशों को विफल करना हर किसी की जिम्मेदारी है। फोर्स अपने जान को जोखिम में डालकर संविधान की रक्षा के लिए मैदान पर डटकर खड़ी है। फोर्स से यह उम्मीद करना ही चाहिए कि वह किसी बेगुनाह की हत्या से अपना हाथ ना रंगे! बल्कि निहत्थे हर किसी के साथ सामान्य नागरिक जैसा ही व्यवहार करे।