EditorialNazriya

क़ीमती बिवाइयाँ, पीर देश की..!

मनोज त्रिवेदी।

आप कई राष्ट्रीय समाचार पत्रों में उच्च प्रबंधकीय दायित्व संभाल चुके हैं। लेखन के प्रति उनकी गहरी रूचि उनके सोशल मीडिया मंच पर नियमित प्रदर्शित होती है। बेहद संवेदनशील व्यक्ति किसी व्यवस्थागत पीड़ा को कैसे महसूस कर सकता है… यह इनके शब्दों से समझा जा सकता है… इस आलेख का स्पंदन… जस का तय पाठको के लिए…

कहा जाता है जाके पैर ना पड़े बिवाई वो का जाने पीर पराई यूँ ही नही कही गई होगी, भूख, बीमारी, रोज़गार, स्वास्थ्य,परिवार,गाँव और देश,एक एक छालों में गहरी उतरी है।

दुत्कारें गए उन उद्योगों से, भगाए हुए उस मंजर से जिसने पैरो को उन तपती, खुरदुरी, सड़कों, तेज गर्मी लू के थपेड़ों के साथ कोरोना के दो गज के उसूलों ने भी रोका नही ।

पेट की आग के सहारे एक हाँथ से अपने परिवार को थामे दूसरे से हौंसले को बांधे अपने उसी गाँव की ओर पहुँचने लगे जिसे दिल में बसा, खाने- कमाने निकले थे।

कोई इसे षड्यंत्र कहता है, कोई इसी में अपनी राजनैतिक रोटियाँ भी सेंक लेता है, कई अनजाने हाँथ रास्ते में मदद कर देते है, कई मौक़े के फ़ायदे में सौदेबाज़ी ।

किसी के लिए अवसर का द्वार है जिसमें सिंहासन बंद है, जो बैठा है उसे जगहंसाई का षड्यंत्र लगता है, पर इन छालों से फ़ायदे नुक़सान के अर्थशास्त्र को मानवता के प्राकृतिक सिद्धांत आइना दिखा देते है।

फेसबुक वॉल से साभार

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