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नई शिक्षा नीति पर एक दृष्टि… जमीनी कठिनाईयों का समाधान नहीं दिखता…

  • पवन शर्मा.

देश की नयी शिक्षा नीति 34 वर्षों बाद प्रस्तुत हुई है, किन्तु उसमें शिक्षा क्षेत्र की जमीनी कठिनाईयों का समाधान नहीं दिखता है। 70 वर्षों में भी हम प्राथमिक शिक्षा का आधारभूत ढ़ांचा मजबूती से तैयार नहीं कर पाये हैं। शिक्षकों का प्रशिक्षण मात्र कागजी खानापूर्ति ही रहे हैं। ऐसे में उन शिक्षकों के भरोसे नई शिक्षा नीति से शिक्षा जगत में परिवर्तन कैसे ला सकते है,

फिर भी कुछअच्छी बातें उसमें हैं:-

नई शिक्षानीति में एक महत्वपूर्ण और दूरगामी बात सामने रखी गई है कि प्राथमिक कक्षाओं में बालक को शिक्षा मातृभाषा में दी जावे।इससे उसकी समझ मौलिक होगी। भारत जैसे अनेक भाषाओं वाले देश में सभी भाषाओं को संजोये रखने हेतु यह अतिआवश्यक है कि सभी लोग अपनी—अपनी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करें।

आज जो आंग्ल भाषा के प्रति बाजारवादी मोह समाज में व्याप्त है, उसके संदर्भ में आजादी बचाओ आंदोलन के प्रणेता स्व. राजीव दीक्षित कहा करते थे कि केजी से लेकर 12वी तक की शिक्षा मातृभाषा में पढ़ने के बाद भी यदि छात्र को 6माह आंग्ल भाषा की शिक्षा दी जावे तो वह उतनी ही अच्छी आंग्लभाषा सीख जाता है, जितनी प्रारंभ से आंग्लभाषा माध्यम में पढ़ने पर वह सीखता है।

नई नीति में दूसरी अच्छी पहल यह है कि छात्र अपनी पसंद के अनुसार अपने विषयों का चयन कर सकेंगे। इससे व्यक्ति की रुचि अनुसार उसका अध्ययन एवं विकास हो सकेगा।

इसके बावजूद इस शिक्षा नीति में कुछ कमियां भी दिखाई देती हैं।

प्राथमिक शिक्षा के आधारभूत ढ़ांचे के अभाव में कौशल विकास प्रशिक्षण देने की बात कोरी कल्पना मात्र ही सिद्ध होगा। कौशल विकास के लिये देश में शासकीय एवं निजी मात्र 13348 आईटीआई हैं, जिसमें 126 विधाओं में लगभग 19 लाख छात्र पढ़ सकते हैं। जो देश की आवश्यकता से बहुत कम हैं। यही कारण है कि हम लोगों की रोजगार की जरुरत पूरी नहीं कर पा रहे हैं।

इसके लिये सुझाव यह है कि प्रत्येक विकासखंडो में एक आईटीआई संचालित हो, जिसमें माध्यमिक कक्षाओं मेंपढ़ रहे छात्र 15 या 30 दिनों के लिये इंटर्नशीप से प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे। उनकी रुचि जिस विधा में बढ़ेगी वो उस विषय में कौशल उन्नयन कर सकेगा।

वर्तमान सरकार ने कौशल विकास उन्नयन के जो प्रयास किये वो सरकार की लालफीता शाही के शिकार होकर सफलीभूत नहीं हो पाये। निजी क्षेत्र ने भी इस दिशा में कोई सकारात्मक कार्य नहीं किया। निजी क्षेत्र कुशल कामगार तो चाहते हैं किन्तु उसके लिए स्वयं कोई निवेश करना नहीं चाहते। सरकार आईटीआई की संख्या बढ़ाकर देश में स्वरोजगार के अवसर बढ़ा सकती है।

नई शिक्षा में विदेशी विश्वविद्यालयों कोआमंत्रित करना भी बहुत घातक सिद्ध हो सकता है। अभी देश का एक भी विश्वविद्यालय विश्व में सौवें स्तर का भी नहीं है। इससे हमारे विश्वविद्यालयों की लचर स्थिति स्पष्ट होती है। आज देशभर से प्रतिवर्ष तीन लाख छा़त्र विदेशी विश्वविद्यालयों में उच्चशिक्षा प्राप्त करने लाखों रुपये की वार्षिक फीस देकर जाते हैं।

जब वे विश्वविद्यालय अपनी शाखा भारत में व्यवसायिक द्ष्टि से प्रारंभ करेंगे तो हमारे पहले से 10 गुना छात्र उसमें पढ़ने जायेंगे। जिससे भारतीय विश्वविद्यालयों की स्थिति और खराब हो जायेगी।

भारत में विश्वविद्यालयों को वैसी स्वायत्ता प्राप्त नहीं है, जैसी विदेशों में है। ऐसे में वे भारत से रुपया भी कमायेंगे और बौद्धिक क्षमता का अपने देशों में पलायन भी करवायेंगे। हम धन और बुद्धि से धीमे धीमे खोखले होते जायेंगे।

रोजक तथ्य यह भी है कि अमेरिका में 12वीं तक की शिक्षा निःशुल्क है, किन्तु उसके बाद स्नातक स्तर की शिक्षा में प्रतिवर्ष 50 लाख डाॅलर तक फीस लगती है। जिससे अधिकांश अमेरिकी छात्र उच्च शिक्षा में नहीं जा पाते अथवा उन्हें छोटे—मोटे रोजगार करते हुए शिक्षा प्राप्त करनी पड़ती है। विश्वविद्यालयों के उन रिक्त स्थानों में विश्वभर के धनाढ्य वर्ग के लोग अपने बच्चों को मोटी फीस देकर उच्च शिक्षा दिलाते हैं, जिससे वे विश्वविद्यालय स्वायत और सक्षम बनते रहे हैं।

क्या कभी विश्वगुरु रहे और फिर से विश्वगुरु बनने की इच्छा रखने वाला भारत विदेशी विश्वविद्यालयों की कृपा का मोहताज होगा। यहां विचारणीय है कि हम अपने देश के विश्वविद्यालयों को शैक्षिक दृष्टि से विश्वस्तरीय क्यों नहीं बना सकते। जबकि आदिकाल में नालंदा और तक्षशिला में सीमित साधन के बावजूद शिक्षकीय गुणवत्ता के बल पर हम विश्व के सर्वश्रेष्ठ रह चुके हैं तो अब क्यों नहीं?

लेखक विद्या भारती संस्था के पूर्व सदस्य हैं।

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