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वेलकम बैक, रुचिर जी! The LENS की लॉंचिंग… रुचिर की वापसी पर दीपक की रौशनी…

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दीपक पाचपोर।

यह सचमुच दिलचस्प है कि रायपुर से शुक्रवार को प्रारम्भ हुए न्यूज़ वेबसाइट व यूट्यूब चैनल The LENS.in की लॉंचिंग से ज्यादा चर्चा रुचिर गर्ग की ‘घरवापसी’ की हो रही है। छत्तीसगढ़ के सबसे अच्छे पत्रकारों में से एक रुचिर इस राज्य की (अविभाजित मध्यप्रदेश सहित) सबसे समृद्ध पत्रकारीय परम्परा यानी ‘देशबन्धु स्कूल ऑफ जर्नलिज़्म’ की देन हैं। लोकहित के लिये मजबूती से अपनी जनपक्षधारी कलम अड़ाने वाले रुचिर का व्यक्तित्व कुछ ऐसा है कि किसी अनजान व्यक्ति को उन्हें दूर से दिखाकर अंदाजा लगाने के लिये कहा जाये कि, ‘बताइये तो, इस सज्जन का पेशा क्या है’, तो मुझे नहीं लगता कि वह उन्हें कलमघसीटू के अलावा कुछ और कहेगा। थोड़ा अनुमान गलत हो तो कवि या लेखक मानेगा।

इसलिये 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले जब रुचिर ने पत्रकारिता को विदा कहा, जो अब पता चलता है कि वह ‘अलविदा’ नहीं बल्कि सिंपल सा ‘विदा’ थाः यानी bye bye मात्र था, न कि Good Bye; बोले तो संक्षिप्त सा बिछड़ना। कुछ समय बाद जब उन्होंने राहुल गांधी के पहराये पंजा छाप गमछे के जरिये कांग्रेस का हाथ थामा था, तो मेरे जैसे उनके हजारों प्रशंसकों को इसलिये अजीब या बुरा लगा था क्योंकि हम सारे उन्हें खबर बटोरने वाली जगहों पर अथवा न्यूज़ डेस्क पर नहीं तो सम्पादक की कुर्सी पर देखने के इतने अधिक अभ्यस्त हो चुके थे कि उनका और कोई रोल हमें स्वीकार्य ही नहीं रहा। यहां तक कि उनकी कैमरे वाली पत्रकारिता उनसे ज्यादा उनके प्रशंसकों को असहज बनाती थी। रुचिर यानी कलम! बस, और कुछ नहीं (नये सन्दर्भों में कम्प्यूटर कह लीजिये!)। कम से कम मेरे जेहन में तो उनका इससे अलग कोई और रूप है ही नहीं।

जिस रुचिर को जानता हूं
इस क्षेत्र में आने के बाद रुचिर जी ने पत्रकारिता में क्या-क्या काम किये- इसकी फर्स्ट हैंड जानकारी मेरे पास इसलिये नहीं है क्योंकि मैं बामुश्किल तीन-साढ़े तीन वर्ष रायपुर में अखबारनवीसी करने के बाद बाहरी प्रदेशों में काम करने चला गया था। रुचिर इस पेशे में गदर मचाने बाद में आये थे। मैं तो सही मायनों में 2002 में लौटा था। 2009 तक भारत एल्यूमीनियम कम्पनी लिमिटेड में जनसम्पर्क प्रमुख का काम करने के बाद वापस आया अपने उसी पुराने पेशे में जो 2002 तक मुम्बई में करता रहा था (जनसत्ता, नवभारत, वेबदुनिया डॉट कॉम आदि)। रुचिर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में चले गये थे इसलिये उनके पूर्वार्ध वाले प्रिंट के काम को वैसा सचमुच नहीं जानता था। बस, यह पता था कि वे बहुत ईमानदार, परिश्रमी और जीवट के खबरची रहे हैं। जिन राजनीतिक व सामाजिक मूल्यों में अपनी आस्था रही, उसके समांतर अपने एक तरह से समविचारी रहे। जब वे नईदुनिया और फिर नवभारत के सम्पादक बने, तो उनकी लेखनी से मेरा वास्तविक परिचय हुआ। उनके लेखन के बारे में इसलिये कुछ नहीं कहता क्योंकि मेरे कहे या न कहे बगैर वे उन ऊंचाइयों को पहले से छू चुके हैं जो हर किसी के बूते का नहीं- पत्रकार के रूप में और इंसान होने के नाते। मेरे लेख भी वे लगातार छापते रहे। अनेक ऐसे, जो उस अखबार का शायद ही कोई और सम्पादक छापता।

रुचिर जी से लगाव का केवल यही कारण नहीं था कि हम देशबन्धु से निकले पत्रकार थे, एक यह भी था कि उनके पिताजी प्रो. यतेन्द्र कुमार गर्ग सर दुर्गा कॉलेज में एमए अंग्रेजी में मेरे शिक्षक रहे थे। फिर भी, मेरा उनके साथ लम्बी बैठकों वाला अथवा घूमने-फिरने वाला रिश्ता या कहें कि वैसी नजदीकियां कभी नहीं रहीं जिसे पक्की यारी, गहन दोस्ती जैसे नाम दिये जा सकें। परस्पर सम्मान और न दिखने-दिखाने वाला स्नेह भरा सम्बन्ध ही हमारे रिश्तों का सार-संक्षेप है।

बहरहाल, उनसे बनी एक आशा व मिलती ऊर्जा के कारण ही मैंने अपने सामान्य से सम्बन्धों के बावजूद जब उनके नवभारत से इस्तीफा देने के बाद पूछा था कि ‘क्या आप चुनाव लड़ने के लिये राजनीति में जा रहे हैं’, तो उन्होंने कहा- “भैया, यदि आप भी ऐसा ही समझते हैं तो क्या कहूं!” मैं जान गया था, कि मैंने उन्हें समझने में भूल की है। वहीं कहीं से शायद मैंने रुचिर जी को जानने की शुरुआत की थी।

Back to the basics
उनके पत्रकारिता से राजनीति में जाने से जितनी हाय-तौबा मची थी, वैसी ही पत्रकारिता में लौटने पर हो रही है। मंत्रियों और नेताओं के आगे-पीछे घूमने वाले पत्रकार तब पूछते थे कि वे राजनीति में क्यों चले गये? इनमें वे लोग भी थे जो सियासतदानों से यत्नपूर्वक बनाये अपने सम्बन्धों के चलते राजनीति में आए हैं। कोई पार्टी का काम देखते हुए तो कोई उनके लिये लॉबिंग करते हुए, घरेलू काम करते हुए भी। दो-चार साल पत्रकार रहने वाले जनसम्पर्क विभाग में शासकीय नौकरियां पा जाते हैं, तो वहीं कई पत्तरकार मंत्रियों या नेताओं का जनसम्पर्क करने लगते हैं। कई शासकीय निगमों एवं मंडलों के अध्यक्ष-उपाध्यक्ष भी बनते हैं। वे सारे प्रश्न करते थे। अरे भाई, जिसे जो राह भली लगती है, उस पर लोग चल पड़ते हैं।

याद करें, रुचिर जब पत्रकारिता से रुख़सत हुए थे तब इस पेशे की परिस्थितियां किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को निराश करने वाली थीं। अब भी हैं। ज्यादातर समाचारपत्र, पत्रिकाएं, टीवी चैनल सत्ता से सवाल नहीं कर पाते। जो रुचिर को जानते हैं वे समझ सकते हैं कि यह स्थिति उनके लिये कितनी असहज रही होगी। उन्हें उम्मीद बंधी होगी राजनीति से। जब सियासत भी उनकी अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाई तो उनके लौट आने में कोई बुराई नहीं। बल्कि चिपके रहने व कुढ़ते रहने की बजाये बेहतर किया। ब्रिटिश प्राईम मिनिस्टर जॉन मेजर कहा ही करते थे कि, “जब स्थितियां उलझ जायें और रास्ता न सूझे तो, Back to the basics ही उचित है।” रुचिर जी अपनी वाली पर लौट आये हैं।

रुचिर जी का अपना घर
रुचिर जी, पत्रकारिता आपका मायका है! यहां आपका स्पेस बना रहेगा जिसे कोई छीन नहीं सकता। यदि आपको लोग अब भी राजनीतिज्ञ मानते तो भला प्रेस क्लब आपको इस आंगन में क्योंकर कार्यक्रम करने की जगह देता? ऐसे वक्त में जब आपको आयोजन स्थल के लिये इस कदर तंगाया गया हो (यह बताये जाने की ज़रूरत नहीं है कि किसके इशारे पर) तो भला आपको कोई भी जगह देता? वैसे अब सभी को बात समझ में आ जानी चाहिये कि उनके जैसे पत्रकार को वापस कलम थामनी कितनी ज़रूरी है।

वर्षों से मैंने सार्वजनिक कार्यक्रमों में जाना छोड़ दिया है; शायद इसमें भी नहीं आता, लेकिन जब पता चला कि आयोजन स्थल के लिये उन्हें नचाया जा रहा है, तब मैं कई साल के बाद किसी कार्यक्रम में आया। इसके जरिये दो बड़ी घटनाओं का मैं प्रत्यक्षदर्शी होना चाहता था- पहला, एक बड़े न्यूज़ वेबसाइट का लॉंच होना; दूसरे, रुचिर जी का अपने मूल पेशे में लौटना।

पेशे के उतार-चढ़ाव
आप जिस भी पेशे में काम करते हैं, उनके हालात आपको कभी उत्साहित करते हैं, तो कभी निराश। कभी लगता है कि आप जो करना चाह रहे हैं चीजें वैसी हो नहीं रही हैं। यह मनोस्थिति आज लगभग सारे अखबारों में काम करने वाले ज्यादातर संजीदा पत्रकारों की है। इसलिये रुचिर राजनीति में गये होंगे। अब लगता है कि नहीं, पत्रकारिता में उनकी ज्यादा ज़रूरत है, तो वे लौट आये हैं। नयी स्थिति में एक सुखद फर्क यह है कि अब रुचिर किसी की चाकरी नहीं कर रहे हैं। इसलिये उनके भीतर के श्रेष्ठ तत्व का हम इंतज़ार करें। वैसे यह ज़रूर कहना चाहूंगा कि उन्हें यदि राजनीति रोककर नहीं रख सकी तो यह सभी के लिये चिंता का सबब होना चाहिये। कांग्रेस के साथ उनके कार्यों की समीक्षा का मेरा कोई मूड नहीं, न ही मुझे इसका कोई प्रयोजन लगता है जब वे उस दुनिया को छोड़ आये हैं। अब उनकी पत्रकारिता की समीक्षा करेंगे।

काम बोलना चाहिये
सवाल यह नहीं होना चाहिये कि आप कहां काम कर रहे हैं, होना यह चाहिये कि आप कैसा काम कर रहे हैं। बड़ी बात यह है कि रुचिर जब राजनीति में गये थे तो पत्रकारिता का कोई छींटा अपनी कमीज पर लेकर नहीं गये थे; न ही वहां से लौट रहे हैं तो वहां के कीचड़ से लथपथ होकर। दोनों जगहों पर उन्होंने अपनी झीनी चदरिया ज्यों की त्यों रखी है। उनके आगे के मंसूबों का हम कोई अनुमान नहीं लगा सकते पर उनका अब तक का शानदार ट्रैक रिकॉर्ड बरकरार रहेगा- यह उम्मीद लगाए हुए हैं। फिर, रुचिर का लौटना पत्रकारिता के प्रति आशा बंधाता है, कि हां, अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। वेलकम बैक, रुचिर भाई! आपका सर्वोत्तम हम अब देखेंगे।

उत्तीर्ण हुआ रायपुर प्रेस क्लब
रायपुर प्रेस क्लब भी इसलिये जिंदाबाद है क्योंकि उसने 24 घंटे की सूचना पर अपना आंगन सजा दिया कि, “रुचिर भैया, कीजिये यहां अपना विस्फोट! हम साथ हैं!” यह इसलिये आसान नहीं क्योंकि जब पता चले कि प्रतिष्ठान किसी को एक जगह पर टिकने नहीं दे रहा है। तो उन्हें यूं शरण देना बड़ी बात है। कह सकते हैं कि रायपुर प्रेस क्लब अच्छे नंबरों से पास हुआ है। ऐसे संगठनों की बागडोर क्यों लढ़वैये पत्रकारों के हाथों में होनी चाहिये, यह भी सभी के ध्यान में आ ही गया होगा।
कार्यकारिणी को भी धन्यवाद!

(दीपक पाचपोर जी के फ़ेसबुक वॉल से साभार)