फिलहाल छत्तीसगढ़ में राजनीति का खेला देखते रहिए… किसी ना किसी को त्याग करना ही होगा… नहीं तो…
- सुरेश महापात्र ।
आगामी 1 नवंबर को छत्तीसगढ़ की उम्र 21 बरस की हो जाएगी। बीते 21 बरसों में राज्य ने तीन मुख्यमंत्री देख लिए हैं। इसमें पहले अजित जोगी और दूसरे डा. रमन सिंह सीएम का पदभार ग्रहण करने के बाद विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए। इस प्रकार से भूपेश बघेल पहले से निर्वाचित विधायक होकर मुख्यमंत्री बने हैं।
छत्तीसगढ़ के अस्तित्व में आने से पहले इस राज्य के इतिहास को भी समझना जरूरी है। 15 अगस्त, 1947 के पूर्व देश में कई छोटी-बड़ी रियासतें एवं देशी राज्य अस्तित्व में थे। स्वाधीनता पश्चात् उन्हें स्वतंत्र भारत में विलीन और एकीकृत किया गया। 26 जनवरी, 1950 को संविधान लागू होने के बाद देश में सन् 1952 में पहले आम चुनाव हुए। जिसके कारण संसद एवं विधान मण्डल कार्यशील हुए। प्रशासन की दृष्टि से इन्हें श्रेणियों में विभाजित किया गया था।
सन् 1956 में राज्यों के पुनर्गठन के फलस्वरूप 1 नवंबर, 1956 को नया राज्य मध्यप्रदेश अस्तित्व में आया। इसके घटक राज्य मध्यप्रदेश, मध्यभारत, विन्ध्य प्रदेश एवं भोपाल थे, जिनकी अपनी विधान सभाएं थीं।
पुनर्गठन के फलस्वरूप सभी चारों विधान सभाएं एक विधान सभाएं एक विधान सभा में समाहित हो गईं। अत: 1 नवंबर, 1956 को पहली मध्यप्रदेश विधान सभा अस्तित्व में आई। इसका पहला और अंतिम अधिवेशन 17 दिसम्बर, 1956 से 17 जनवरी, 1957 के बीच संपन्न हुआ।
विंध्य प्रदेश : 4 अप्रैल, 1948 को विन्ध्यप्रदेश की स्थापना हुई और इसे ‘ब’ श्रेणी के राज्य का दर्जा दिया गया। इसके राजप्रमुख श्री मार्तण्ड सिंह हुए। सन् 1950 में यह राज्य ‘ब’ से ‘स’ श्रेणी में कर दिया गया। सन् 1952 के आम चुनाव में यहां की विधान सभा के लिए 60 सदस्य चुनें गए। जिसके अध्यक्ष श्री शिवानन्द थे। 1 मार्च, 1952 से यह राज्य उप राज्यपाल का प्रदेश बना दिया गया। पं. शंभूनाथ शुक्ल उसके मुख्यमंत्री बने। विन्ध्यप्रदेश विधान सभा की पहली बैठक 21 अप्रैल, 1952 को हुई। इसका कार्यकाल लगभग साढ़े चार वर्ष रहा और लगभग 170 बैठकें हुई। श्री श्याम सुंदर ‘श्याम’ इस विधान सभा के उपाध्यक्ष रहे।
प्रथम आम चुनाव के पूर्व तक भोपाल राज्य केन्द्र शासन के अंतर्गत मुख्य आयुक्त द्वारा शासित होता रहा। इसे तीस सदस्यीय विधान सभा के साथ ‘स’ श्रेणी के राज्य का दर्जा प्रदान किया गया था। तीस सदस्यों में 6 सदस्य अनुसूचित जाति और 1 सदस्य अनुसूचित जनजाति से तथा 23 सामान्य क्षेत्रों से चुने जाते थे। तीस चुनाव क्षेत्रों में से 16 एक सदस्यीय तथा सात दो सदस्यीय थे।
प्रथम आम चुनाव के बाद विधिवत विधान सभा का गठन हुआ। भोपाल विधान सभा का कार्यकाल मार्च, 1952 से अक्टूबर, 1956 तक लगभग साढ़े चार साल रहा। भोपाल राज्य के मुख्यमंत्री डॉ. शंकरदयाल शर्मा एवं इस विधान सभा के अध्यक्ष श्री सुल्तान मोहम्मद खां एवं उपाध्यक्ष श्री लक्ष्मीनारायण अग्रवाल थे।
मध्यभारत : इस इकाई की स्थापना ग्वालियर, इन्दौर और मालवा रियासतों को मिलाकर मई, 1948 में की गई थी। ग्वालियर राज्य के सबसे बड़े होने के कारण वहां के तत्कालीन शासक श्री जीवाजी राव सिंधिया को मध्यभारत का आजीवन राज प्रमुख एवं ग्वालियर के मुख्यमंत्री श्री लीलाधर जोशी को प्रथम मुख्यमंत्री बनाया गया। इस मंत्रीमण्डल ने 4 जून, 1948 को शपथ ली। तत्पश्चात् 75 सदस्यीय विधान सभा का गठन किया गया, जिनमें 40 प्रतिनिधि ग्वालियर राज्य के, 20 इन्दौर के और शेष 15 अन्य छोटी रियासतों से चुने गए।
यह विधान सभा 31 अक्टूबर, 1956 तक कायम रही। सन् 1952 में संपन्न आम चुनावों में मध्यभारत विधान सभा के लिए 99 स्थान रखे गए, मध्यभारत को 59 एक सदस्यीय क्षेत्र और 20 द्विसदस्यीय क्षेत्र में बांटा गया। कुल 99 स्थानों में से 17 अजा तथा 12 स्थान अजजा के लिए सुरक्षित रखे गए।
मध्यभारत की नई विधान सभा का पहला अधिवेशन 17 मार्च, 1952 को ग्वालियर में हुआ। इस विधान सभा का कार्यकाल लगभग साढ़े-चार साल रहा। इस विधान सभा के अध्यक्ष श्री अ.स. पटवर्धन और उपाध्यक्ष श्री वि.वि. सर्वटे थे। पूर्व में वर्तमान महाकौशल, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र के बरार क्षेत्र को मिलाकर सेन्ट्रल प्राविन्सेस एण्ड बरार नामक राज्य अस्तित्व में था।
राज्य पूनर्गठन के बाद महाकौशल और छत्तीसगढ़ का क्षेत्र यानी पूर्व मध्यप्रदेश (जिसे सेन्ट्रल प्राविन्सेस कहा जाता था) वर्तमान मध्यप्रदेश का भाग बना। उस क्षेत्र के विधान सभा क्षेत्रों को भी वर्तमान मध्यप्रदेश के विधान सभा क्षेत्रों में शामिल किया गया।
मध्यप्रदेश के दौर में 11वीं विधान सभा का गठन 01 दिसंबर 1998 को हुआ जिसका कार्यकाल 05 दिसंबर 2003 को खत्म होना था। इस 231 सदस्य वाली विधानसभा में 127 सीट के साथ कांग्रेस बहुमत में थी। दूसरे नंबर पर 83 सदस्यों के साथ भाजपा थी। यही वजह थी कि बंटवारे के दौरान छत्तीसगढ़ के हिस्से में आई 90 विधानसभा सीटों में से 46 सदस्य कांग्रेस के थे। जिससे छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस को सरकार बनाने का अवसर मिला।
प्रथम मुख्यमंत्री अजित जोगी थे, जो एक नवंबर 2000 से सात दिसंबर 2003 तक मुख्यमंत्री रहे। राज्य में पहली बार बनी कांग्रेस की सरकार का कार्यकाल तीन वर्ष 36 दिन था। इसके बाद बीजेपी सत्ता में आई। तब सात दिसंबर 2003 से लेकर 11 दिसंबर 2018 तक डॉ. रमन सिंह कुल 15 वर्ष 10 दिन तक मुख्यमंत्री रहे। हालिया विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की सरकार बनने पर भूपेश बघेल 17 दिसंबर 2018 को मुख्यमंत्री हुए।
20 दिसंबर 2001 के दिन नया राज्य बनने के बाद पहली बार छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी के 12 विधायक कांग्रेस में शामिल हो गए। यह पहला अवसर था जब प्रदेश की सियासत में सत्ता के साथ विधायकों का समर्थन खुलेआम दिखा। तब भाजपा में विपक्ष के नेता नंदकुमार साय हुआ करते थे। भाजपा से पृथक हुए 12 विधायकों ने छत्तीसगढ़ विकास पार्टी बना ली और इसे बाद में कांग्रेस में मर्ज कर दिया।
प्रदेश की राजनीति में यह खेल अजित जोगी ने अपनी राजनैतिक पकड़ मजबूत करने के लिए खेला था। सीएम के चेहरे पर मुहर से पहले रायपुर में क्या—क्या हुआ यह तो जगजाहिर ही है। पं. वीसी शुक्ला जी के फार्म हाउस में दिग्विजय सिंह के साथ जो कुछ हुआ वह इतिहास है।
इस तरह से अब कांग्रेस में विरोधियों को जोगी को सीएम पद से हटाने के लिए संख्याबल की कमी होना तय हो गया। यदि ऐसा नहीं होता तो कांग्रेस का एक धड़ा अलग होकर राज्य में भाजपा के साथ मिलकर सरकार बना सकता था। इस हकीकत से जोगी पूरी तरह वाकिफ थे। पर जोगी सत्ता में थे तो कोई उनसे बाहर जाने की स्थिति में ही नहीं रहा। अंतत: पं. वीसी शुक्ल ही पार्टी से बाहर होकर एनसीपी को खड़ा करने के लिए जुट गए।
2003 में भारतीय जनता पार्टी को जीत हासिल हुई। तब केंद्रीय राज्य मंत्री का पद छोड़कर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष के तौर पर जिम्मेदारी संभालने वाले डा. रमन सिंह ने भी नहीं सोचा था कि उनके हिस्से जीत आने वाली है।
जीत मिली और सीएम के चेहरे के लिए एकात्म परिसर में जो कुछ हुआ यह भी इतिहास है। पर डा. रमन सिंह मुख्यमंत्री बनने के बाद जिस तरह से मजबूत हुए उसकी कल्पना राजनीतिक पंडितों को थी ही नहीं। उत्तर में जुदेव, नंदकुमार साय, दक्षिण में बलिराम कश्यप, मध्य में बृजमोहन अग्रवाल की चुनौतियां कब खत्म हो गईं, किसी को पता भी नहीं चला। यही वजह रही पूरे 15 बरस 10 दिन तक डा. रमन सिंह सबसे मजबूत मुख्यमंत्री साबित हुए।
अब फिर एक बार छत्तीसगढ़ उसी मोड़ पर खड़ा है जहां सीएम पद की सियासत कुलांचे मारती दिख रही है। यह भी जगजाहिर हो चुका है कि प्रदेश में 68 सीट जीतकर सत्ता में आई कांग्रेस के सामने चार में से अंतिम दो चेहरे सीएम के सशक्त दावेदार रह गए। जिनमें एक तो भूपेश स्वयं हैं और दूसरे टीएस सिंहदेव। यानि उत्तर छत्तीसगढ़ और पश्चिम छत्तीसगढ़ के बीच मैच टाई हो गया। हाईकमान ने ढाई—ढाई साल का जो फार्मुला दिया वह अब फेल होता दिख रहा है।
इसके पीछे सबसे बड़ी वजह छत्तीसगढ़ के सियासत का इतिहास भी है। यहां अब तक जो भी मुख्यमंत्री रहा उसे विधायकों का खुला समर्थन हासिल होता रहा है। यह भूपेश के लिए मजबूत पक्ष भी है और कमजोर पक्ष भी। मजबूत इसलिए कि विधायकों का समर्थन रहेगा तो हाईकमान को अपने वादे से मुकरना होगा। यदि हाईकमान वादे पर अड़े तो नया सीएम जो भी होगा उसे विधायकों का समर्थन हासिल हो जाएगा।
पर फिलहाल एक पेंच है। जो हाईकमान को कठोर फैसले से रोकती रही है। वह यह कि छत्तीसगढ़ में एक नए राजनीतिक दल के लिए पर्याप्त अवसर है। यदि यह अवसर भूपेश ताड़ गए तो कांग्रेस का पूर भट्टा बैठ सकता है। यह सब कुछ विधायकों के समर्थन से ही होगा।
हांलाकि यह बात पूरी तरह काल्पनिक ही है पर कल्पना को धरातल पर सत्य होते कई बार देखा गया है। राजनीति में पार्टीगत निष्ठा व्यक्तिगत आकांक्षा से काफी नीचे होती है। सत्ता के शीर्ष में बैठा व्यक्ति ताकत को समझ रहा होता है। यदि ऐसा नहीं होता तो 2003 में विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद अजित जोगी के बहुमत हासिल करने के लिए तिकड़म का खुलासा ही नहीं होता।
भाजपा के संगठन में आंतरिक अनुशासन का तरीका बेहद अलग है इसलिए वहां सत्ता में रहते पार्टी की टूटने की खबरें नहीं आती। इसके उलट कांग्रेस में सत्ता में आने के बाद पार्टी के टूटने और शक्तिशाली द्वारा अपनी सरकार गठित करने के कई उदाहरण मौजूद हैं।
फिलहाल छत्तीसगढ़ में यह संभावना या कहें अंदेशा खत्म नहीं हुआ है। यदि कल्पना की ही बात करें तो बहुमत के साथ कांग्रेस का एक धड़ा टूटकर अलग पार्टी बना ले। तो क्या उसे सरकार चलाने में दिक्कत होगी। शायद नहीं। उस पार्टी को पूरा दो बरस मिलेगा अपने दल को स्थापित करने और कांग्रेस—भाजपा से अलग अपनी पहचान बनाने के लिए। ऐसे में अब तक किसी तीसरे राजनैतिक दल विकल्प की कमी भी लोगों के लिए दूर हो सकती है।
यदि हम इस मामले को जोगी कांग्रेस से जोड़कर देखें तो साफ दिखेगा कि जोगी यदि सत्ता में रहते अपनी पार्टी की सरकार बना लेते तो वे सबसे मजबूत विकल्प हो सकते थे। उन्होंने भाजपा के दस साल के सत्ता के बाद अपनी पार्टी बनाई फिर भी उनके पास चार विधायक तो हैं ही…।
यह साफ तौर पर छत्तीसगढ़ के इतिहास में दर्ज है। कई राज्यों की प्रक्रियाओं के बाद निर्मित छत्तीसगढ़ में विकास की अनंत संभावनाएं हैं। यहां की उर्वरा भूमि, खनिज संसाधन और पाकृतिक संपदा की ताकत हर सरकार को ताकत का ऐहसास कराती रही है। यही वजह है कि जोगी कहते थे ‘अमीर धरती के गरीब लोग…’ रमन भी छत्तीसगढ़ के शांति प्रिय लोगों के बीच डेढ़ दशक तक राज किया। भूपेश बघेल भी यही चाहते हैं… टीएस सिंहदेव तो बस अपना हक चाहते हैं जिसे हाईकमान ने शब्दों में पिरोकर दिया… जो कतई आसान नहीं है। खैर… फिलहाल छत्तीसगढ़ में राजनीति का खेला देखते रहिए… किसी ना किसी को त्याग करना ही होगा… नहीं तो…