झीरम घाटी से अबूझमाड़ तक: माओवादी विद्रोह के खिलाफ संघर्ष का दौर और परिणति…
सुरेश महापात्र।
25 मई 2013 को छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले की झीरम घाटी में हुए नक्सली हमले ने भारतीय इतिहास में एक काला अध्याय जोड़ा। यह पहली बार था जब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने किसी राजनीतिक दल, विशेष रूप से कांग्रेस के नेतृत्व, पर सीधा निशाना साधा। इस हमले में 32 लोगों की जान गई, जिनमें पंडित विद्या चरण शुक्ला, महेंद्र कर्मा और नंद कुमार पटेल जैसे प्रमुख नेता शामिल थे। आज उसकी बरसी है।
आज का दिन उन सभी शहीदों को याद करने का दिन भी है। महेंद्र कर्मा जो अपने जीवन के अंतिम समय तक बस्तर में माओवादियों को आदिवासियों का सबसे बड़ा शत्रु बताते रहे। माओवादियों ने उनके नाम को अपने दुश्मन की सूची में सबसे ऊपर रखा था। 25 मई 2013 की वह काली रात कोई नहीं भूल सकता जब अपने सबसे बड़े दुश्मन की हत्या करने के बाद उनकी मृत देह के ऊपर माओवादियों ने नृत्य किया था। कितना नृशंस दृश्य होगा यह कल्पना की जा सकती है।
झीरम में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा को घेरने के पीछे माओवादी संगठन ने महेंद्र कर्मा को घेरने के लिए यह एंबुश तैयार किया था जिसमें वे सफल भी हो गए। पर इस घटना ने पूरा परिदृश्य ही बदल दिया।
बारह वर्ष बाद, 2025 में, स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है। हाल ही में अबूझमाड़ में हुई मुठभेड़ में माओवादी संगठन के महासचिव बसव राजू की मौत ने संगठन को गहरा आघात पहुंचाया है। यह बस्तर में माओवादियों के खिलाफ संघर्ष में अब तक की सबसे बड़ी सफलता के रूप में दर्ज हो चुकी है। बसव राजू की मौत के बाद सुरक्षाबलों ने कैंप में लौटकर नृत्य करके खुशी मनाई है।
पर यह खुशी माओवादियों की नृशंसता जैसी नहीं है। यह खुशी एक बड़े अभियान की सफलता के लिए थी जिसमें जवानों ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था। ऐसा बस्तर के इतिहास में हालिया दौर से पहले कल्पना जैसा ही था कि ऑपरेशन के लिए जवान निकले हों और बड़े पैमाने में सफलता हासिल कर सकुशल लौटे हों। बस्तर की भूमि में झीरम से पहले और बाद में ऐसे दर्जनों घटनाओं का सिलसिला दर्ज है।
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 31 मार्च 2026 तक माओवाद को पूरी तरह समाप्त करने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है। सरकार की रणनीतियों, हालिया प्रगति, और भविष्य की चुनौतियों का विश्लेषण करने से साफ दिखाई दे रहा है कि बस्तर में माओवादी संगठन के खिलाफ चल रहा मनोवैज्ञानिक, सशस्त्र संघर्ष इस समय बस्तर में तैनात सशस्त्र बलों की जीत दर्शा रहा है।
25 मई 2013 को, सुकमा जिले की दरभा घाटी (जिसे झीरम घाटी के नाम से भी जाना जाता है) में नक्सलियों ने कांग्रेस की “परिवर्तन रैली” के काफिले पर घात लगाकर हमला किया। इस हमले में 32 लोग मारे गए, जिनमें छत्तीसगढ़ कांग्रेस के अध्यक्ष नंद कुमार पटेल, उनके बेटे, और सलवा जुडूम के संस्थापक महेंद्र कर्मा शामिल थे। वरिष्ठ नेता विद्याचरण शुक्ल भी गंभीर रूप से घायल हुए और बाद में उनकी मृत्यु हो गई। यह हमला न केवल छत्तीसगढ़, बल्कि पूरे देश के लिए एक झटका था, क्योंकि यह पहली बार था जब माओवादियों ने किसी राजनीतिक दल को सीधे निशाना बनाया। यह घटना “लाल कॉरिडोर” के केंद्र में, बस्तर क्षेत्र में माओवादी प्रभाव की गंभीरता को उजागर करती थी।
तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने बस्तर में व्यापक सैन्य अभियान का प्रस्ताव रखा, लेकिन राजनीतिक विरोध के कारण यह लागू नहीं हो सका। यह तथ्य दरअसल तत्कालीन दौर में प्रदेश और देश में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी को प्रदर्शित कर रहा है।
केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी वह बड़ा फ़ैसला लेकर छत्तीसगढ़ में हुए हमले का बदला ले सकती थी वह सारी सीमाओं को लांघकर सशस्त्र माओवादियों के खिलाफ कार्रवाई की छूट दे सकती थी। पर ऐसा नहीं किया गया। बड़ी बात तो यह है कि इससे पहले 2010 में केंद्रीय सुरक्षा बल के 76 जवान इसी बस्तर में शहीद हो चुके थे। ऐसे में व्यापक रणनीति तैयार कर कार्रवाई की जा सकती थी! जो नहीं हुआ।
हालाँकि झीरम घाटी हमले के बाद, भारत सरकार ने माओवादी विद्रोह को कुचलने के लिए एक बहुआयामी रणनीति अपनाई। इस रणनीति में सैन्य कार्रवाई, विकास परियोजनाएं, और सामुदायिक सहभागिता शामिल थी।
2013 में, बस्तर, ओडिशा, और झारखंड में 10,000 अतिरिक्त अर्धसैनिक बलों की तैनाती की गई, और 2014 में छत्तीसगढ़ में और 10,000 सैनिक भेजे गए। इन प्रयासों से माओवादी प्रभावित जिलों की संख्या कुछ कम हुई। ऐसे प्रभावित जिले 2011 में 83 थे। अभी ऐसे जिलों की संख्या करीब 50 तक आ गई है। कर्नाटक जैसे राज्य नक्सल प्रभावित सूची से बाहर हो गए, और मध्य प्रदेश ने ग्रामीण विकास योजनाओं के माध्यम से विद्रोह को नियंत्रित किया है।
सुरक्षा बलों ने कई शीर्ष माओवादी नेताओं को मार गिराया या गिरफ्तार किया, बस्तर में बहुत तेजी के साथ माओवादी संगठन से जुड़े बड़े-छोटे कैडर लगातार समर्पण करते दिखाई दे रहे हैं जिससे संगठन का नेतृत्व कमजोर हुआ।
“सिविक एक्शन प्रोग्राम” (CAP) और “मीडिया प्लान” जैसे कदमों ने स्थानीय समुदायों के साथ विश्वास बहाली और माओवादी प्रचार का मुकाबला करने में मदद की। बड़ी बात तो यह है कि हालिया समय में तमाम उपायों के परिणामस्वरूप, माओवादी हिंसा और इससे संबंधित मौतों में उल्लेखनीय कमी आई है। 2023 की एक रिपोर्ट के अनुसार, माओवादी हिंसा में कमी का कारण सरकार की आक्रामक नीतियां और विकास कार्यों का संयोजन था।
अभी जब हम बस्तर में सबसे बड़े राजनीतिक हमले की बरसी मना रहे हैं तब अबूझमाड़ हुए मुठभेड़ के परिणाम से माओवाद को करारा झटका लगा दिखाई दे रहा है। 21 मई 2025 को, छत्तीसगढ़ के अबूझमाड़ क्षेत्र में 50 घंटे से अधिक लंबी मुठभेड़ में सीपीआई (माओवादी) के महासचिव बसव राजू (नंबाला केशव राव) सहित 27 नक्सली मारे गए।
बसव राजू, जिस पर 1.5 करोड़ रुपये का इनाम था, 2018 से संगठन के महासचिव था। 2010 के चिंतलनार इलाक़े के ताड़मेटला और 2013 के झीरम घाटी हमले जैसे बड़े हमलों के लिए जिम्मेदार था। उसकी मौत ने संगठन के नेतृत्व को और कमजोर किया, क्योंकि वह एक अनुभवी और रणनीतिक नेता था।
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 31 मार्च 2026 तक माओवाद को पूरी तरह समाप्त करने का लक्ष्य घोषित किया है। यह लक्ष्य महत्वाकांक्षी है, लेकिन हाल की प्रगति इसे यथार्थवादी बनाती है। अप्रैल 2025 में, सुकमा जिले की बड़सेट्टी पंचायत को माओवाद-मुक्त घोषित किया गया, जब 22 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया। यह छत्तीसगढ़ में आदिवासी मुख्यमंत्री विष्णु देव साय सरकार की रणनीति की सफलता का एक उदाहरण है। शाह ने दिसंबर 2024 में कहा था कि छत्तीसगढ़ माओवाद को अंतिम झटका देगा, और हाल की घटनाएं इस दिशा में प्रगति का संकेत देती हैं।
हालांकि, चुनौतियां अभी भी बनी हुई हैं। अबूझमाड़ जैसे सघन जंगल और पहाड़ी क्षेत्र माओवादियों के लिए छिपने की जगह प्रदान करते हैं। इसके अलावा, माओवादी विचारधारा का सामाजिक-आर्थिक आधार, जैसे गरीबी और आदिवासी समुदायों का शोषण, अभी भी पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है। सरकार को इन मुद्दों पर ध्यान देना होगा ताकि विद्रोह की जड़ें पूरी तरह उखाड़ी जा सकें।
झीरम घाटी हमले से लेकर अबूझमाड़ मुठभेड़ तक सशस्त्र बलों ने माओवादी विद्रोह के खिलाफ एक लंबी और कठिन लड़ाई लड़ी है। यह लक्ष्य महत्वाकांक्षी है, लेकिन सरकार की आक्रामक नीतियां, विकास कार्य, और आत्मसमर्पण की प्रक्रिया इसे संभव बनाती हैं। फिर भी, जंगली क्षेत्रों में माओवादियों की उपस्थिति और सामाजिक-आर्थिक चुनौतियां बाधाएं हैं। आने वाला समय यह तय करेगा कि क्या भारत इस आंतरिक संघर्ष के अध्याय को पूरी तरह बंद कर पाएगा या नहीं!
25 मई 2013 की घटना से जुड़ी तस्वीरों को देखकर पूरा दृश्य आँखों के सामने घुमने लगता है… इस हमले में सबसे पहली गोली कांग्रेस के नेता गोपी माधवानी जी और राजीव नारंग जी को लगी थी। दुर्भाग्य से इस हमले में माधवानी शहीद हो गए और Rajeev Narang जी मौत के मुँह से बच गए। राजीव जी को करीब छह गोलियाँ लगीं थीं… लंबे उपचार के बाद वे माता दंतेश्वरी की कृपा से सकुशल हैं। वे इसे अपना पुनर्जन्म मानते हैं… बाकि तस्वीरें उस समय झीरम घाटी के हालात की हैं…
सभी शहीदों को नमन 🙏🙏🙏



