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गठबंधन में ‘मजबूरी’ की राजनीति में नरेंद्र मोदी की अग्नि परीक्षा… और हिंदुस्तान में गठबंधन की राजनीति…

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विशेष टिप्पणी। सुरेश महापात्र।

हिंदुस्तान में 2014 से पहले करीब 30 बरस तक लगातार गठबंधन की सरकारों का दौर रहा। देश के अलग—अलग राज्यों में पृथक राजनीतिक अस्तित्व वाले राजनीतिक दलों का प्रभाव केंद्र की राजनीति में पड़ता रहा। इतिहास की ओर देखें तो 1947 में स्वतंत्रता के बाद, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस देश की अग्रणी राष्ट्रीय पार्टी के रूप में उभरी। स्वतंत्रता के बाद के दौर में कांग्रेस का वर्चस्व स्पष्ट था। 1952 में स्वतंत्रता के बाद हुए पहले आम चुनाव में पार्टी ने संघीय संसद और अधिकांश राज्य विधानसभाओं में जीत हासिल की। कांग्रेस पार्टी ने 1977 तक देश पर शासन किया।

एक प्रकार से देखा जाए तो 1977 में पहली बार हिंदुस्तान की राजनीति में गठबंधन दौर का प्रारंभ हुआ। इस दौर में जनता गठबंधन ने उसकी जगह एक दलीय सरकार की जगह ले ली। हांलाकि अल्प समय के बाद यह गठबंधन फार्मुला समाप्त हो गया। एक बार फिर कांग्रेस भारी बहुमत के साथ 1980 में सत्ता हासिल की। 1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जो 1989 में आम चुनाव हुआ यह भारतीय राजनीतिक इतिहास का सबसे बड़ी बहुमत की सरकार के रिकार्ड के तौर पर दर्ज है। कांग्रेस 1989 में पराजित हुई। इसके बाद करीब तीस बरस तक हिंदुस्तान में गठबंधन की कई सरकारें आईं और गईं।

1991 में कांग्रेस के प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व में गठबंधन सरकार बनी जो 1996 तक चली। इसके बाद पहले 13 दिन, फिर 13 महीने और उसके बाद पूरे पांच साल तक प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपई के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया। इसके बाद संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का दौर आया। कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में 2004 और 2009 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार बनाई गई।

कांग्रेस के पतन के साथ शुरू हुआ गठबंधन सरकारों का दौर

जवाहरलाल नेहरू और उसके बाद लाल बहादुर शास्त्री के असामयिक निधन के बाद, 1966 में इंदिरा गांधी को देश का प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 12 जून, 1975 को फैसला सुनाया कि इंदिरा गांधी का 1971 में लोकसभा के लिए पुनः निर्वाचन चुनावी धोखाधड़ी के कारण अवैध था। लगभग चार साल बाद, न्यायालय ने उन्हें भ्रामक चुनावी तरीकों, अत्यधिक चुनावी खर्च और राजनीतिक कारणों से अनुचित सरकारी संसाधनों के लिए दोषी ठहराया था।

अदालत ने फैसला सुनाया कि उनकी संसदीय सीट खाली कर दी जाए और अगले छह साल तक किसी भी पद के लिए चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी जाए। वे अब पद पर नहीं रह सकतीं क्योंकि संविधान के अनुसार प्रधानमंत्री को लोकसभा या राज्यसभा में से किसी एक का प्रतिनिधित्व करना अनिवार्य है। दूसरी ओर, गांधी ने इस्तीफा देने से इनकार कर दिया। इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री पद से हटाए जाने के डर से भारत में आपातकाल की घोषणा कर दी थी। 1977 में गांधी ने मतदाताओं को अपने नेतृत्व का बचाव करने का अवसर देने के लिए चुनावों की घोषणा की।

इंदिरा गांधी जी द्वारा आपातकाल हटाए जाने के बाद, मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता गठबंधन सत्ता में आई। गांधीवादी नेता जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में, सहयोगी दल एकजुट होकर जनता पार्टी बन गए। इस तरह भारत में गठबंधन सरकार के गठन से गठबंधन राजनीति का युग शुरू हुआ।

1989 के बाद से 2014 तक आयोजित किसी भी लोकसभा चुनाव में किसी भी एक पार्टी को सबसे अधिक वोट या सीटें नहीं मिलीं। इससे केंद्र में गठबंधन सरकारों का युग शुरू हुआ, जिसमें क्षेत्रीय दलों ने प्रमुख गठबंधन बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

भारत एक ऐसा देश है जिसकी विविधता विश्वविख्यात है। यहां अलग-अलग समुदाय, बोलियाँ, जातियाँ, धर्म और भौगोलिक विविधता ही इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। तीन दशक तक गठबंधन की सरकारों को जनादेश से जोड़कर बनाया गया। यह स्थापित करने की कोशिश की गई कि गठबंधन सरकार ज़्यादा समावेशी होती है और मतदाताओं की लोकप्रिय भावना का प्रतिनिधित्व करती है।

हालाँकि, गठबंधन सरकारें अस्थिर होती हैं या अस्थिर होने की संभावना होती है। गठबंधन धर्म का पालन करना कभी—कभी सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेतृत्वकर्ता के लिए कठिन भी हो जाता है। गठबंधन के सदस्यों के बीच मतभेद के कारण गठबंधन सरकार टूट जाती हैं। ये तथ्य इतिहास में दर्ज हैं।

बीते एक दशक में 

2014 से 2024 तक केंद्र में एनडीए यानी राष्ट्रीय गणतांत्रिक गठबंधन की सरकार ही थी। पर इसमें सबसे बड़ी विशेषता यही थी कि तीस साल बाद किसी सरकार में किसी एक राजनीतिक दल को पूर्ण बहुमत हासिल था। इस सरकार का नेतृत्व गुजरात के तीन बार के मुख्यमंत्री रह चुके नरेंद्र मोदी ने किया। वे प्रधानमंत्री बने और हिंदुस्तान की राजनीतिक दशा और दिशा को पूरी तरह से अपनी मर्जी से चलाया भी। यही वजह था कि दशकों से अटके पड़े कई बड़े फैसले लिए गए। कानून बनाए गए।

व्यवस्था कायम की गई। कश्मीर में धारा 370 को निष्प्रभावी करने का फैसला बीते एक दशक के सबसे बड़े फैसलों में से एक है। इसके अलावा जीएसटी को पूरे देश में लागू करवाने की सफलता हासिल करना कई दशकों से चल रहे प्रयासों का अमलीकरण जैसा ही रहा। अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण की प्रक्रिया कानूनी तौर पर प्रारंभ हुई और इसी साल जनवरी में प्राण प्रतिष्ठा के साथ संपूर्ण हो गया। महिला आरक्षण को लेकर संसद ने कानून पास कर दिया है। अंग्रेजों के समय से चल रहे भारतीय दंड विधान की व्यवस्था को पूरी तरह से बदलकर भारतीय न्याय संहिता में परिवर्तित कर दिया गया है। इसी तरह से कई और भी बड़े फैसले संसद से लिए गए।

एजेंसियों के दुरूपयोग का नया दौर

बीते इन एक दशकों में भारतीय लोकतांत्रिक राजनीति में बदले की भावना की चरम प्रतिध्वनि गुंजायमान होती रही। पूरे देश में जिस तरह से निशाना साधकर विपक्ष पर सीबीआई, ईडी, आईटी जैसी एजेंसियों के माध्यम से कार्यवाही करवाई गई। यह भी देखने को मिला। दरअसल यदि इस तरह की कार्यवाही पूरी निष्पक्षता के साथ होती दिखाई देती तो यह सवाल नहीं उठता। पर सत्ता के संरक्षण में आने वालों को जिस तरह से रियायतें दी जाने लगीं उससे लोगों के मन में दूसरी तरह का भय स्थापित होता रहा।

यह भी कहा जा सकता है कि सत्ता पर मजबूती के साथ अपनी पकड़ बनाए रखने और संसद को अपने हिसाब से संचालित करने की नियोजित व्यवस्था के तहत एजेंसियों के दुरूपयोग का नया दौर देखने को मिला। ऐसा नहीं है कि सरकारें अपनी शक्ति का बेजा इस्तेमाल करने से बचतीं हैं। इंदिरा के दौर में यह देखने को मिला ही था। इसके बाद समझौते वाली राजनीति का जो दौर आया किसी प्रधानमंत्री के पास इतनी ताकत ही नहीं थी कि वह सत्ता को दांव पर लगाकर कुछ भी एक तरफा कर दिखाए।

नए भारत के मजबूत नेतृत्वकर्ता

नरेंद्र मोदी नए भारत के मजबूत नेतृत्वकर्ता के तौर पर उभरे और पूरे एक दशक तक अपने मन मुताबिक समूची व्यवस्था को संचालित करने का काम किया। इसलिए इस दौर में लिए गए सभी फैसलों और व्यवस्थाओं में सीधे तौर पर उनकी छाप दिखाई पड़ती है। आजादी के बाद इतना लोकप्रिय प्रधानमंत्री हिंदुस्तान तीसरी बार देख रहा है। पर इस प्रधानमंत्री को सब कुछ अपने नियंत्रण में लेकर संचालित करने की आदत है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल है कि इनके दौर में 2024 के आम चुनाव के बाद जो एनडीए की सरकार सत्ता संभालेगी उसमें संतुलन की मजबूरी का हिस्सा कितना बड़ा होगा? क्या नरेंद्र मोदी पूर्ण बहुमत के अभाव में तीसरी बार सरकार चलाने के दौरान गठबंधन धर्म की सीमाओं का पालन करने के लिए मजबूर महसूस नहीं करेंगे? यदि करेंगे तो उनका कदम क्या होगा?

सवाल तो यह भी है कि मौजूदा दौर में एनडीए में शामिल घटक दलों में जनता दल यूनाइटेड के 12 और तेलगूदेशम पार्टी के 16 सांसदों का समर्थन जरूरी है। इसके बगैर यह सरकार एक दिन के लिए भी नहीं चल सकती! क्या ये दोनों दल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मार्गदर्शन में उनके नियंत्रण में मंत्रिमंडल सहयोगी की तरह काम करने को तैयार होंगे? क्योंकि गठबंधन की राजनीति के इतिहास में इससे पहले ऐसा कभी देखने को नहीं मिला है।

गठबंधन की राजनीति की नई दिशा और दशा देखने का मौका

यही वजह है कि अगले पांच साल तक केंद्र में सरकार चलाते हुए गठबंधन की राजनीति की नई दिशा और दशा देखने का मौका हिंदुस्तान की जनता के पास है। यदि इन पांच सालों में नरेंद्र मोदी अपने पुराने तौर—तरीकों के साथ आक्रामक राजनीति करने में सफल हो पाते हैं तो यह भी इतिहास में दर्ज होगा। फिलहाल यह भी देखना होगा कि क्या टीडीपी और जेडीयू के सदस्यों को तोड़ने की कोशिश नहीं की जाएगी। महाराष्ट्र में पाला बदलते ही जिस तरह से शिवसेना के खिलाफ घटनाक्रम तेजी से बदला। यह पूरी आवाम् ने देखा है। एनसीपी और शिवसेना के दो—दो टुकड़े हो गए। यह केंद्र की शक्तिशाली राजनीति का ही परिणाम रहा।

सही मायने में मौजूदा दौर केंद्र में मजबूरी की राजनीति का यह दौर एनडीए के प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी के लिए अग्नि परीक्षा समान ही है। इस परीक्षा में पास होने का मतलब आने वाले समय में भारतीय जनता पार्टी का एक नया स्वरूप देखने को मिलेगा। भाजपा पर घोर सांप्रदायिक होने का आरोप विपक्ष लगाता रहा है। यह आरोप मोदी 3.0 के दौर में हमेशा के लिए समाप्त हो सकता है।

भाजपा के पास समावेशी राजनीति का बड़ा अवसर

क्योंकि कश्मीर में धारा 370 के खिलाफ अस्तित्व में आई भाजपा का सबसे बड़ा लक्ष्य अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण का रहा। ये दोनो लक्ष्य पूरे हो चुके हैं। इसके बाद भी यदि भाजपा को लंबी राजनीति का दौर चलाना है तो यह सबसे बड़ा अवसर है जब वह अपनी समावेशी राजनीति से कांग्रेस का विकल्प हमेशा के लिए खत्म कर दे। यह प्रयोग मौजूदा दौर में भाजपा ने बड़े जोर—शोर से किया और निभाया भी बड़ी संख्या में कांग्रेस के पुराने, नए, बड़े—छोटे सभी चेहरों के लिए अपने दरवाजे खोले और जरूरत के हिसाब से मौका भी दिया। जिसका परिणाम दिखाई दे रहा है। भाजपा ने दक्षिण में अपना खाता खोल लिया है। अब पूरे हिंदुस्तान में भाजपा का प्रतिनिधित्व दिखाई देने लगा है।

जनता दल (यू) की चुनौतियां

मौजूदा दौर में एनडीए की सरकार में शामिल जनता दल यूनाइटेड के नेता नीतीश कुमार के पास दोनों विकल्प खुलें हैं। पहला तो वे एनडीए के साथ ही खड़ें रहें और सरकार में रहकर मौज करें। नरेंद्र मोदी के समानांतर खड़े होने की संभावनाओं को हमेशा तलाशने वाले नीतीश कुमार के पास ‘पलटूराम’ का खिताब भी है। वे अब तक करीब सात बार पलटी मार चुके हैं। सबसे ज्यादा बार मुख्यमंत्री की शपथ और एक ही कार्यकाल में सबसे ज्यादा बाद शपथ का दोहरा रिकार्ड उनके पास है।

इंडिया गठबंधन की नींव रखने का काम भी नीतीश कुमार ने ही किया था। वे काम अधूरा छोड़ गए पर इंडिया गठबंधन पीछे खड़ा रह गया। इस बार जनादेश में इंडिया गठबंधन के पास 234 का आंकड़ा है। यह आंकड़ा सरकार तो बना नहीं सकता पर यदि एनडीए गठबंधन के दो दल जनता दल यूनाइटेड और तेलगूदेशम पार्टी का समर्थन मिल जाए तो इंडिया की सरकार बन सकती है। और एनडीए की सरकार को विपक्ष में बैठना पड़ सकता है।

नरेंद्र मोदी की राजनीति को जिसने भी बीते एक दशक में देखा है वे साफ समझ सकते हैं कि असीमित संभावनाओं के खेल में सभी संभावनाओं के साथ नरेंद्र मोदी सरकार चलाते हैं। कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल के कई टुकड़े हो गए। मध्यप्रदेश में एक पूरी सरकार खत्म हो गई। इस बार कांग्रेस के लिए मध्यप्रदेश में एक भी सीट का ना मिल पाना इतिहास में दर्ज हो गया है। 2019 से 2024 के दौर में जेडीयू के सामने एक बार यह चुनौती खड़ी हो चुकी है जब उनके समर्थन वापसी के बावजूद राज्यसभा में जेडीयू के सांसद एनडीए के साथ खड़े रहे। अंतत: मजबूरन नीतीश को घर वापसी करना पड़ा। इस बार ऐसा नहीं होगा यह दावा तो नीतीश कुमार भी नहीं कर सकते।

टीडीपी की चुनौती

नरेंद्र मोदी के दौर में और उससे पहले एन चंद्राबाबू नायडू एनडीए में अंदर—बाहर होते रहे हैं। उनके साथ भी कुछ मजबूरियां हैं। वे अकेले एनडीए का साथ छोड़ने की स्थिति में नहीं हैं। इस बार उनके साथ गठबंधन करने के बाद भाजपा ने अपना खाता खोल लिया है। भाजपा तेलंगाना में भी आगे बढ़ रही है। दक्षिण के राज्यों में दक्षिण पंथी भाजपा के लिए केरल में भी खाता खुल चुका है। तमिलनाडू में भले ही भाजपा पूरी ताकत झोंककर भी कुछ हासिल करने से चूक गई है। पर भाजपा वहां अपना संगठन तैयार कर चुकी है। टीडीपी के सामने अपने ही अस्तित्व का संकट है। आंध्र में उनके धुर विरोधी जगन मोहन रेड्डी पहले भी एनडीए को समर्थन देते रहे इस बार खुलकर समर्थन का ऐलान कर दिया है। वाईएसआर कांग्रेस ने आंध्र में चंद्राबाबू को दो महीने तक जेल तक भिजवा दिया। ऐसे में चंद्राबाबू मैदान खाली छोड़ने का जोखिम नहीं उठा सकते।

इंडिया गठबंधन का हाल

इंडिया गठबंधन में 2024 के चुनाव में पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव के नेतृत्व में समाज वादी पार्टी ने बड़ी सफलता हासिल की है। यही वजह है कि भाजपा अपने दम पर बहुमत के आंकड़े से काफी पीछे रह गई। कुल जमा 234 सीटों के साथ विपक्ष भले ही मजबूत हो गया है पर वह सरकार बनाने का सफर तय कर सकेगा यह उम्मीद फिलहाल कठिन है। कांग्रेस में थोड़ी उर्जा का संचार हुआ है। संगठन के नेता अपने अप्रत्यक्ष नेतृत्व राहुल गांधी को सफलता का श्रेय दे रहे हैं। एक प्रकार से यह सही भी है एक दशक तक लगातार विपक्ष के हमलों को झेलने के बाद भी राहुल का ना डिगना कांग्रेस की उर्जा का सबसे बड़ा कारण है।

उम्मीद बांधे कांग्रेसी कार्यकर्ता जब अपने प्रभाव वाले इलाके की ओर झांकते हैं तो उन्हें छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में पूरी तरह चरमराई कांग्रेस दिखाई देती है। पार्टी का सिंबाल लेकर एन चुनाव से पहले घुटना टेकने वाले प्रत्याशी दिखाई देते हैं। इस हालत से निबटने के लिए कांग्रेस का सक्रिय होना आवश्यक है। केंद्रीय सत्ता के बगैर 15 बरस का सफर पूरा कर पाना बेहद कठिन भी है। ऐसे में मौजूदा दौर की राजनीति में सत्ता के वनवास को दूर करने के लिए आने वाले दिनों में जोर आजमाइश भी होगी। आने वाले पांच सालों के बीच में कई बार ऐसा देखने को मिल सकता है कि केंद्र में सरकार करवट लेगी तो अब तक खामोश मीडिया चहक उठेगी। मजबूर सरकार के दौर में पूरी तरह से मजबूर मीडिया का दौर अब खत्म होगा यह उम्मीद इंडिया गठबंधन भी पाले बैठी है।

‘अटल’ नरेंद्र मोदी वैश्विक पहचान

भाजपा उड़ीसा में सरकार बनाने जा रही है। भले ही कांग्रेस ने मौजूदा चुनाव में 99 सीटें हासिल करने में सफलता पाई है। उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि दिल्ली, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, हिमाचल, उत्तराखंड और गुजरात में कांग्रेस को राजनीति से बाहर जैसा कर दिया है। उत्तर प्रदेश में भाजपा के खिलाफ बड़ी लहर के बाद भी कांग्रेस के हिस्से महज 6 सीटें हैं। बिहार में कांग्रेस क्षेत्रीय दल के भरोसे खड़ी है। गठबंधन धर्म के पालन के लिए विपक्ष आज भी भाजपा के अटलजी के कार्यकाल का जिक्र करता है। ऐसे में नरेंद्र मोदी का यह तीसरा कार्यकाल ‘अटल’ नरेंद्र मोदी के तौर पर स्थापित करने और भाजपा के लिए भारत का सर्वकालिक विकल्प बने रहने का रास्ता खोल सकता है।

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