‘मैं अपनी पुस्तकों को बंधक मुक्त कराना चाहता हूं’ साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल की पीड़ा और प्रकाशकों की अकड़…
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प्रफुल्ल ठाकुर।
प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता व लेखक मानव कौल कुछ दिनों पूर्व देश के सबसे बड़े लेखकों में से एक विनोद कुमार शुक्ल से मिलने रायपुर उनके घर आए. बातों ही बातों में रॉयल्टी पर चर्चा होने लगी. इस पर श्री शुक्ल ने बताया कि उनकी राजकमल से 6 और वाणी प्रकाशन से आई कुल 3 किताबों की सालाना रॉयल्टी औसतन 14 हजार के आसपास मिली है.
देश के सबसे बड़े लेखक को इतनी कम रॉयल्टी किसी को भी चौंका सकती है. इस बात को मानव कौल ने अपने इंस्टा पेज और फेसबुक पर शेयर किया. इस पर सैकड़ों लोगों की प्रतिक्रिया आई. इसी बात को पत्रकार आशुतोष भारद्वाज ने विनोद कुमार शुक्ल से बात कर और विस्तार से लिखा. जिसके बाद फेसबुक पर इसे लेकर तमाम तरह की प्रतिक्रियाएं आने लगीं.
आशुतोष भारद्वाज से बातचीत में विनोद कुमार शुक्ल ने बताया कि वाणी ने उनकी तीन किताबें प्रकाशित हैं- ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’, ‘अतिरिक्त नहीं’ और ‘कविता चयन’. मई 1996 से अगस्त 2021 तक यानी 25 वर्षों में उन्हें वाणी प्रकाशन से कुल 1 लाख 35 हजार रुपए मिले हैं. अर्थात सालााना करीब 5 हजार रुपए. इनमें से ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ को साहित्य अकादमी सम्मान मिला हुआ है और वह किताब अच्छी-खासी बिकती है.
इसी तरह राजकमल से उनकी 7 किताबें- ‘छरी घास की छप्पर वाली झोपड़ी और बौना पहाड़’, ‘नौकर की कमीज’, ‘सब कुछ होना बचा रहेगा’, ‘कविता से लंबी कविता’, ‘कभी के बाद अभी’, ‘प्रतिनिधि कविताएं’ और ‘महाविद्यालय’ प्रकाशित हुई हैं. सातवीं किताब ‘महाविद्यालय’ हाल ही प्रकाशित हुई है. इसके अलावा ई-बुक संस्करण भी हैं. राजकमल से उन्हें अप्रैल 2016 से मार्च 2020 तक, चार वर्षों में इन सारी किताबों के करीब 67 हजार रुए मिले हैं. यानी सालाना करीब 17 हजार रुपए. पिछले कई वर्षों से रॉयल्टी स्टेटमेंट में कविता संग्रह ‘कभी के बाद अभी’ का कोई जिक्र नहीं है.
इसके बाद एक स्थानीय समाचार पत्र और यू-ट्यूब चैनल के संपादक ने उनसे इस मसले पर कुछ लिखने-दिखाने से उद्देश्य से एक वीडियो संदेश की मांग की, जिसे उनके पुत्र शाश्वत गोपाल ने बनाकर भेजा. यह वीडियो संदेश तेजी से देशभर में वायरल हुआ. इस वीडियो में श्री शुक्ल अपनी पीड़ा बताते नजर आ रहे हैं. दोनों प्रकाशकों वाणी और राजकमल पर विश्वास जताने, परंतु उनके द्वारा ठगे जाने की बात कर रहे हैं. साथ ही बिना पूछे किंडल पर किताब बेचे जाने की जानकारी से अवगत करा रहे हैं. वीडियो संदेश में वे दोनों प्रकाशकों से अनुबंध वापस करने और किताबों को बंधनमुक्त करने का भी आग्रह कर रहे हैं.
विनोद कुमार शुक्ल जितने अच्छे लेखक हैं, उतने ही अच्छे इंसान. प्रकाशकों की चालाकी को लेकर वे शायद ही कभी सार्वजनिक मंच पर बोल पाते. वाणी प्रकाशन ने उनके मना करने के बाद भी उनकी किताबें छपीं और किताबों की संख्या की गलत जानकारी उन्हें भेजी, इससे वे काफी आहत थे. इस बात का जिक्र उन्होंने अपने कुछ खास लोगों से किया, लेकिन इस बात को सार्वजनिक कर वे किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहते थे. उम्र और गिरते स्वास्थ्य के कारण भी बोलने से बच रहे थे. अगर, कुछ दिन पूर्व मानव कौल उनसे मिलने नहीं आते और रॉयल्टी पर बात नहीं होती तो शायद ही यह बात इस तरह से सामने आ पाती.
जब विनोद कुमार शुक्ल को देशभर से समर्थन मिलने लगा तो दोनों प्रकाशक घबराए. उनकी ओर से कुछ लठैत देश के वरिष्ठ, बुजुर्ग व चहेते साहित्यकार के कपड़े उतारने सोशल मीडिया उतर आए. पर विनोद जी के समर्थन में ज्यादा लोग दिखे तो वे भाग खड़े हुए. बात बढ़ने लगी तो दोनों प्रकाशकों की ओर से जवाब आया.
राजकमल ने अपने फेसबुक पेज के साथ विनोद जी के पुत्र शाश्वत गोपाल के वाट्सएप पर भी जवाब वाली प्रेस विज्ञप्ति साझा की. जबकि वाणी ने अपने फेसबुक पेज पर ही जवाब देकर इतिश्री कर लिया. दोनों ही प्रकाशकों ने विनोद जी से बात कर मामले का पटाक्षेप करने का रास्ता नहीं निकाला. इससे प्रकाशकों की सत्ता और उस सत्ता के आगे किसी लेखक-साहित्यकार को तुच्छ समझने का अहंकार साफ झलकता दिखाई देता है.
दोनों ही प्रकाशकों के जवाब बेहद गोलमोल और शातिराना हैं. दोनों ही प्रकाशकों ने अपने जवाबी पत्रों में रॉयल्टी की कुल राशि का उल्लेख नहीं किया है, जबकि मानव कौल, आशुतोष भारद्वाज व अन्य ने रॉयल्टी को ही मुख्य मुद्दे के तौर पर उठाया है. वाणी ने तीनों किताबों के संस्करणों के प्रकाशन की जानकारी दी है, जबकि राजकमल ने जवाब में जानकारी छुपा ली है.
संस्करणों में कितनी-कितनी किताबें छपीं, यह सवाल पूछना तो बेकार की ही बात है. दोनों ही प्रकाशकों ने लेखक को कभी इसकी जानकारी नहीं दी तो सार्वजनिक जवाब में भला इसकी उम्मीद कैसे की जा सकती है. राजकमल ने ‘नौकर की कमीज’ के केवल पांच संस्करणों के पेपरबैक की जानकारी दी है.
वाणी प्रकाशन ने अपने जवाब में ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ में प्रूफ की गलतियों का उल्लेख किया है. उसी पैरा में उन्होंने विनोद जी द्वारा बगैर जानकारी किताब न छापने की बात का भी उल्लेख किया है. जब विनोद जी ने कह दिया था कि किताब में प्रूफ की गलतियां हैं और उनकी जानकारी या अनुमति के बिना किताब न छापी जाएं तो प्रकाशक ने कैसे उनकी मर्जी के खिलाफ किताब छाप ली? लेखक ने किताब छापने से मना किया है, पत्र का उत्तर नहीं दिया, मतलब साफ है, उन्हें किताब प्रकाशित नहीं करवानी है. इसके बाद भी श्री शुक्ल द्वारा बिना सूचना/अनुमति के नया संस्कारण प्रकाशित न करने को लेकर पत्र भेजे जाते रहे, लेकिन वाणी किताब छापता रहा. कई वर्षों तक उसने जवाब देना जरूरी नहीं समझा.
उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ और कविता संग्रह ‘अतिरिक्त नहीं’ की ई-बुक किंडल पर मौजूद है. दोनों वही किताबें हैं, जो वाणी से प्रकाशित हुई हैं, लेकिन वाणी का कहना है कि किंडल पर वे किताबें कैसे पहुंची, उनके संज्ञान में नहीं है. किंडल पर किताब बिक रही हैं और देश में सबसे ज्यादा डिजिटल मार्केटिंग पर फोकस करने वाले प्रकाशक को इस बारे में पता ही नहीं है. यह बात किसी के पेट में कैसे पचेगी, यह तो प्रकाशक ही जाने.
किताबों की संख्या की गफलत को भी वाणी प्रकाशन के स्टेटमेंट और पत्र व्यवहार से समझा जा सकता है. वित्तीय वर्ष 2020-21 का स्टेटमेंट जो अगस्त 2021 में भेजा गया है, उसमें उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ के हार्ड-बाउंड की संख्या 172 और पेपरबैक की संख्या 669 बताई गई है, जबकि 4 महीने बाद दिसंबर 2021 में भेजे गए एक ई-मेल में वह संख्या क्रमश: 558 एवं 1272 हो जाती है. जबकि इस बीच किसी नए संस्करण के छपने की जानकारी नहीं है. चार महीनों में प्रतियां कम होने की बजाय दोगुनी-चौगुनी बढ़ गईं. इसका साफ मतलब है, किताबें चोरी से छापी और बेची जाती हैं, जिसकी जानकारी लेखकों से छिपाई जाती है. ज्यादातर लेखक इस पर ध्यान नहीं देते.
10 मार्च 2022 को भेजे जवाबी पत्र में वाणी प्रकाशन के चेयरमेन और प्रबंध निदेशक अरुण महेश्वरी लिखते हैं- ‘संवाद में स्पष्टता बनाए रखने के लिए मैंने उन्हें रॉयल्टी का संपूर्ण विवरण भेजा, जिसका उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया.’ आदरणीय, उन्होंने रॉयल्टी का विवरण मांगा, आपने भेजा. इसमें उनके उत्तर देने या न देने का सवाल कहां खड़ा होता है? उन्होंने किताब छापने से मना किया, इसके बाद भी आपने किताबें क्यों छापी, इसका आपने कोई उत्तर जरूर अपने पत्र में नहीं दिया है.
श्री महेश्वरी आगे लिखते हैं-‘कोई भी लेखक पूर्ण अधिकार रखते हैं कि वे अपनी पुस्तक के बारे में प्रकाशक से कभी भी जानकारी ले सकते हैं.’ जानकारी तो ले सकते हैं, लेकिन आपके द्वारा तो पत्र व्यवहार का सालों तक जवाब ही नहीं दिया जाता. जब आप देश के सबसे बड़े लेखक के साथ ऐसा कर सकते हैं तो बाकियां के साथ कैसा बर्ताव करते होंगे, इसे आसानी से समझा जा सकता है और इसका दर्द तो वे ही बता सकते हैं.
इसी तरह राजकमल ने भी पुस्तकों के संस्करण बिना सूचना छापे हैं. ‘नौकर की कमीज’ और ‘कविता से लंबी कविता’ ई-बुक के तौर पर भी उपलब्ध है, जबकि राजकमल के साथ इसका कोई अनुबंध नहीं हुआ है. हाल ही में प्रकाशित कहानी संग्रह ‘महाविद्यालय’ को लेकर भी प्रकाशक की ओर से भ्रामक जवाब दिया गया है. महाविद्यालय का अनुबंध 2021 में हुआ था और कहा गया था कि जुलाई-अगस्त तक इसे प्रकाशित कर दिया जाएगा, लेकिन इसका प्रकाशन फरवरी 2022 में किया गया.
महविद्यालय के जल्द प्रकाशन का आग्रह विनोद कुमार शुक्ल द्वारा इसलिए किया गया, क्योंकि यह किताब विश्वविद्यालयों के सिलेबस का हिस्सा है और विद्यार्थियों को यह किताब उपलब्ध नहीं हो पा रही थी. इसे लेकर विद्यार्थियों के लगातार फोन आते रहते थे. इसलिए विद्यार्थियों के हित में श्री शुक्ल किताब को जल्द से जल्द छपवाना चाहते थे. इसीलिए उन्होंने किताब की एडवांस रॉयल्टी वगैरह की कोई बात नहीं की, क्योंकि किताब के छपने में ही बहुत देरी हो रही थी और विद्यार्थी इसकी अनुपलब्धता से परेशान थे. मगर, श्री शुक्ल की सह्रदयता को प्रकाशक ने अपने जवाबी पत्र में हथियार की तरह न केवल इस्तेमाल किया, बल्कि लेखकों और पाठकों को दिग्भ्रमित भी किया. यह कितनी दु:खद बात है.
9 मार्च 2022 को दिए गए जवाब में राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड के प्रबंध निदेशक अशोक कुमार महेश्वरी ने सभी किताबों में एडवांस रॉयल्टी दिए जाने की बात कही है. मगर, इस बात का उल्लेख नहीं किया है कि कितनी-कितनी एडवांस रॉयल्टी दी गई है, क्योंकि वह शायद बताने के लायक नहीं है. सर्वाधिक एडवांस रॉयल्टी 20 हजार रुपए की 2013 में दी गई है, जिसे रॉयल्टी में समायोजित करने को बार-बार कहा गया, लेकिन इसे समायोजित नहीं किया गया. बाकी हर बार की एडवांस रॉयल्टी को रॉयल्टी में से काटकर ही भुगतान किया गया. हजार, दो हजार, चार हजार की एडवांस रॉयल्टी को प्रकाशक ने विवाद के बाद बड़ी खूबसूरती से भुना लिया.
विनोद कुमार शुक्ल जी केवल इतना चाहते हैं कि दोनों प्रकाशक वाणी और राजकमल उनका अनुबंध वापस करते हुए उनकी किताबें बंधनमुक्त कर दें. वे इस मामले को ज्यादा तूल भी नहीं देना चाहते. वे कोर्ट-कचहरी भी नहीं जाना चाहते. लेखक और प्रकाशक का रिश्ता विश्वास पर टिका होता है, लेकिन प्रकाशक उनके विश्वास पर खरे नहीं उतरे, इसलिए वे अपनी किताबें वापस मांग रहे हैं. अब प्रकाशकों को इसे अहम का मुद्दा नहीं बनाना चाहिए, अगर वे लेखकों-साहित्यकारों का सम्मान करते हैं तो उन्हें तत्काल विनोद कुमार शुक्ल जी से बातकर मामले का पटाक्षेप करना चाहिए.
प्रकाशकों की सच्चाई हर कोई जानता है, पर बोलता कोई नहीं, लेकिन हमारे छत्तीसगढ़ और देश के गौरव विनोद कुमार शुक्ल के सम्मान में थोड़ी भी आंच आई तो इसका हर्जाना दोनों प्रकाशकों को कहीं और तो पता नहीं, लेकिन छत्तीसगढ़ में जरूर भुगतना पड़ेगा. इस मामले को साहित्य अकादमी और छत्तीसगढ़ सरकार को भी संज्ञान में लेना चाहिए. विनोद कुमार शुक्ल साहित्य अकादमी के महत्तर सदस्य हैं. साहित्य अकादमी सम्मान के साथ उन्हें राज्य का सर्वोच्च साहित्यिक अलंकरण ‘पंडित सुंदरलाल शर्मा सम्मान’ मिला हुआ है. हालांकि वे इन सम्मानों से कहीं बढ़कर हैं. फिर भी श्री शुक्ल और उनके सम्मान की रक्षा के लिए साहित्य अकादमी और राज्य सरकार को आगे आकर समस्या का हल निकालना चाहिए. छत्तीसगढ़ साहित्य अकादमी को भी इस पर ध्यान देना चाहिए।
प्रफुल्ल ठाकुर के फेसबुक वॉल से साभार…