“गढ़बो नवा छत्तीसगढ़” स्लोगन से लेकर “बोरे बासी” तक गाँव, गरीब मज़दूर और किसान के भूपेश…
सुरेश महापात्र।
किसने सोचा था कि एक दिन ऐसा आएगा जब मज़दूर का वह भोजन पूरे छत्तीसगढ़ की नई पहचान बनकर सोशल मीडिया में छा जाएगा? शायद आज से पहले किसी ने नहीं…
किसने सोचा था गोवंश के गोबर से एक बड़ा वर्ग आय अर्जित करता दिख सकेगा? शायद किसी ने नहीं…
किसने सोचा था नरवा, गरवा, घुरूवा और बाड़ी का नारा नई क्रांति के तौर पर अपनी पहचान बनाएगा? शायद किसी ने नहीं…
यह स्थापित सत्य है कि छत्तीसगढ़ में सत्ता परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण छत्तीसगढ़ के किसान ही रहे। पर किसी ने नहीं सोचा था कि छत्तीसगढ़ का यह सत्ता परिवर्तन कई नई शुरुआत को ना केवल जन्म देगा बल्कि उसे पूरे हिंदुस्तान में प्रदेश की पहचान को स्थापित कर देगा।
दो दिन पहले जब भूपेश बघेल ने अंतरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस को छत्तीसगढ़ में बोरे बासी जैसे बेहद आम भोजन को सामानांतर खड़ा कर देंगे यह अविश्वसनीय ही था। पर छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल का जादू सिर चढ़कर बोल रहा है। वे जो कह रहे हैं और जो करके दिखाना चाहते हैं उससे कहीं आगे तक उसकी सफलता खड़ी हो रही है।
राजनैतिक तौर पर आलोचना के कई विषय हो सकते हैं पर उसके बावजूद छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल ने गाँव, गरीब मज़दूर और किसान को अपना राजनीतिक संरक्षक बना रखा है।
मज़दूर दिवस के दिन सोशल मीडिया पर हज़ारों की तादाद में अफ़सर, नेता और मज़दूर-किसानों की बोरे-बासी खाती तस्वीरें अटी पड़ी है।
रात का बचा बासी भात ग्रामीण भारत में कभी फेंका नहीं जाता। बचा हुआ भात पानी में डालकर रख दिया जाता है। यही बासी भात छत्तीसगढ़ में बोरे-बासी के नाम से प्रचलित है। बस्तर में आप जाएँगे तो इस बासी भात के साथ मंडिया पेज और तीखी खट्टी व चटपटी चापड़ा की चटनी का अपना स्वाद संस्कृति का हिस्सा है।
यहाँ काम पर निकलने से पहले सुबह-सुबह बासी खाकर निकलने और अपने तूँबा (लौकी के कठोर खाल से निर्मित) में लेकर जाने का रिवाज है। साथ में हरी मिर्च और नमक बस इतना ही तो है…
ज़रा सोचिए जब यही गरीब मज़दूर और खेतिहार किसान जब अपने साथ बैठकर बासी खाते अफ़सरों और नेताओं को देखा होगा तो उसने क्या महसूस किया होगा?
हो सकता है उसके मन में अपने नियमित भोजन को लेकर जो झिझक रही होगी वह भी ख़त्म हो गई हो… उसे लगा हो अरे सब हमारे जैसे ही तो हैं…
छत्तीसगढ़ निर्माण के बाद 18 बरस तक छत्तीसगढ़ की महक का जो अभाव बना रहा उसे बतौर मुख्यमंत्री दूर करते दिख रहे हैं भूपेश…
इससे पहले छत्तीसगढ़ के गोबर कान्सेप्ट ने देश को रोज़गार का नया विकल्प दे दिया है। निस्संदेह गोबर के बहुआयामी उपयोग से एक बड़े समूह के लिए रोज़गार और क्रियेटिविटि का नया मार्ग प्रशस्त हुआ है।
नरवा, गरवा, घुरूवा और बाड़ी के मूल कान्सेप्ट का ही यह प्रभाव है। कई इलाक़ों में इस योजना की विफलता भी दिख रही है पर सफलता का प्रभाव विफलता के दुष्प्रभाव से परे है…
मतलब साफ़ है कि छत्तीसगढ़ में धान की क़ीमत को लेकर कांग्रेस ने अपना वर्चस्व बनाया पर धान ख़रीदी और मिलिंग को लेकर की गई व्यवस्था निश्चित तौर पर क़ाबिले तारीफ़ है।
अब यह सवाल स्वतः ख़त्म हो गए हैं कि भूपेश को मुख्यमंत्री की कुर्सी किन शर्तों के साथ मिली थी। ढाई बरस के कथित फ़ार्मूले का अंत हो चुका है।
पर बीते एक बरस में चुनावी मौसम से बहुत पहले जिस तरह की व्यवस्था छत्तीसगढ़ सरकार ने क़ायम की है उसकी प्रशंसा की जा सकती है।
गुड गवर्नेंस के मॉडल के साथ छत्तीसगढ़ लगातार नए फ़ैसले ले रहा है और यह भी स्थापित कर रहा है कि पूर्ववर्ती सरकार ने बहुत सी व्यवस्थाओं को अनदेखा किया था जिसकी कमी अब जाकर दूर की जा रही है।
हसदेव अरण्य का फ़ैसला भूपेश सरकार ने किस लोभ या दबाव में लिया है यह समझना शेष है पर इससे इतर बहुत सारे ऐसे पहलू हैं जिसे लेकर भूपेश सरकार की खुलकर प्रशंसा की जा सकती है।
आत्मानंद विद्यालय की श्रृंखला इनमें से एक है जिसका बहुत बड़ा इम्पेक्ट साफ़ दिखाई दे रहा है। गाँव और क़स्बों के बहुत से पालकों की यह इच्छा पूरी हो रही है कि उनके बच्चे भी अच्छे अंग्रेज़ी माध्यम के शैक्षणिक संस्थान में पढ़ें। यदि यह सरकार निःशुल्क दे दे तो प्रशंसा तो करनी ही चाहिए।
बहरहाल छत्तीसगढ़ अपनी नई शाख़ गढ़ते “गढ़बो नवा छत्तीसगढ़” के कान्सेप्ट को ज़मीन पर उतारने का प्रयास किया है। स्लोगन का गढ़ना और गढ़े हुए स्लोगन को स्थापित कर पाना निश्चित तौर पर सरल तो क़तई नहीं है। इसके लिए मुखिया का उसके प्रति पूरी तरह से समर्पित होना ज़रूरी है… जो मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कर दिखाया है।
एक बात और मुख्यमंत्री ने सरकार बनने के बाद सबसे पहले अपने सलाहकार नियुक्त किए थे। इन सफलताओं में निश्चित तौर पर सलाहकारों की भी भूमिका होगी ही। तभी तो टीम भूपेश ने सफलता के कई कीर्तिमान स्थापित कर दिए हैं… सभी को बोरे-बासी…