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जेपी मूवमेंट से क्यों अलग है आज का छात्र आंदोलन?

सुदीप ठाकुर.

” मैंने छात्रों से कहा है कि वे एक साल के लिए अपनी पढ़ाई छोड़ दें, ताकि वे पूरी तरह से खुद को इस आंदोलन के लिए समर्पित कर सकें। इस आंदोलन को उन्हीं ने शुरू किया है और इसे सफल बनाना उनकी जिम्मेदारी है। यदि कॉलेज बंद हो जाते हैं, तो उनका कुछ खास नुकसान नहीं होगा, बल्कि इससे उन्हें फायदा ही होना है। शिक्षा प्रणाली उन्हें कुछ नहीं सिखा सकती। यह उन्हें किसी काम के लिए प्रशिक्षित नहीं कर सकती। वे जिस दुनिया में रह रहे हैं, यह उसे समझने में भी मददगार नहीं हो सकती….।”

ऐेसे दौर में जब जामिया मिल्लिया इस्लामिया, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जेएनयू, बीएचयू, आईआईटी कानपुर और जाधवपुर यूनिवर्सिटी जैसे देश के दर्जनों प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थानों में विभिन्न मांगों को लेकर छात्र आंदोलनरत हैं, उनसे यह अपील की जाए तो क्या होगा?

कहने की जरूरत नहीं है कि इसे शैक्षणिक संस्थानों में भड़काने वाली कार्रवाई के तौर पर देखा जाएगा और हो सकता है कि इसके लिए आईपीसी की धारा 124 (ए) के तहत देशद्रोह का मुकदमा भी दर्ज कर लिया जाए। आखिर बात कॉलेज बंद करने तक सीमित नहीं, उपरोक्त पंक्तियों में तो सीधे-सीधे शिक्षा व्यवस्था को ही नाकारा साबित कर छात्रों को उसके खिलाफ एक तरह से भड़काया जा रहा है।

ये बातें किसी सिरफिरे या किसी असामाजिक तत्व ने नहीं कही। ये पंक्तियां तकरीबन साढ़े छियालिस साल पहले 13 जुलाई 1974 को अंग्रेजी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक लेख का हिस्सा हैं और इसके लेखक थे, जयप्रकाश नारायण यानी जेपी।

यह वही जेपी हैं, जिनके छात्र आंदोलन से निकले अनेक छात्र नेता आज केंद्र की मोदी सरकार और कई राज्यों की सरकारों में मंत्री हैं और जेपी आंदोलन की अपनी भूमिकाओं के बारे में दावे करते नहीं थकते।

1974 के उन महीनों में दरअसल पूरे देश में तीन छात्र आंदोलन चल रहे थे। इसमें से एक था गुजरात का नवनिर्माण आंदोलन, दूसरा बिहार का छात्र आंदोलन और तीसरा असम में ऑल असम स्टुडेंट यूनियन (आसू) का आंदोलन। गुजरात का छात्र आंदोलन राज्य के मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल की सरकार और बिहार का छात्र आंदोलन वहां के मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर की सरकार के खिलाफ शुरू हुआ था। जबकि आसू के आंदोलन की प्रकृति और मुद्दे भी अलग थे। आसू ने बेरोजगारी, गरीबी से लेकर शरणार्थियों जैसे मुद्दों को लेकर 21 मांगों का चार्टर तैयार किया था। यह आंदोलन इस मायने में भी अलग था, क्योंकि गुजरात और बिहार के आंदोलन को जेपी का नेतृत्व मिला था।

यों तो देश की सियासत को छात्र आंदोलन शुरू से प्रभावित करते रहे हैं, लेकिन सत्तर के दशक के उस दौर को देश की दिशा और सियासत को बदलने में छात्रों की भूमिका के लिए खासतौर से याद किया जा सकता है। इसके बाद 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों के खिलाफ हुए छात्र आंदोलन ने भी देश को उद्वेलित किया था, लेकिन वह एक तरह से नेतृत्व विहीन आंदोलन ही था।

जेपी के छात्र आंदोलन के बाद 2011-12 के दौरान भ्रष्टाचार, काला धन और लोकपाल की स्थापना के मुद्दे पर अन्ना हजारे ने जो आंदोलन किया था, उसमें भी छात्रों की बड़ी भूमिका थी। दरअसल आज हो रहे छात्र आंदोलन में कई लोग जेपी और अन्ना के आंदोलन की छवि देख रहे हैं। मगर हकीकत यह है कि आज का छात्र आंदोलन इन दोनों ही आंदोलनों से मूलभूत रूप से अलग है। उनमें सबसे बड़ा फर्क यही है कि जेपी के आंदोलन में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ उसके तत्कालीन राजनीतिक संगठन जनसंघ और छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) की भूमिका थी। हालांकि उस आंदोलन में समाजवादी दलों और संगठनों के साथ ही कांग्रेस से बाहर निकले धड़े और नेताओं की भी भूमिका थी। अन्ना के आंदोलन में प्रत्यक्ष तौर पर आरएसएस, एबीवीपी की भूमिका न दिखती रही हो, लेकिन अब यह साफ हो चुका है कि रामलीला मैदान से लेकर जंतर-मंतर तक जो भीड़ जुट रही थी, उसका मार्ग निर्देशन कहां से हो रहा था।

जेपी और अन्ना के आंदोलनों में जो लोग प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़े हुए थे, वे आज सत्ता में काबिज हैं। अन्ना को तो हम देख ही रहे हैं कि इस समय जब छात्र और युवा विभिन्न मुद्दों को लेकर आंदोलनरत हैं, उनकी ओर से कोई औपचारिक बयान तक नहीं आया है।

हां, जेपी आज होते तो निश्चित रूप से वह जेएनयू परिसर जाकर छात्रों के साथ एकजुटता दिखाते। वह आज के हुक्मरानों के खिलाफ खड़े होते।

यह वही जेपी थे, जिन्होंने इंडियन एक्सप्रेस में वह लेख लिखने के करीब पंद्रह दिन बाद 27 जुलाई, 1974 को जमशेदपुर में एक आमसभा को संबोधित करते हुए पुलिस कर्मियों से उनके आंदोलन से जुड़ने, ट्रेड यूनियनों को हड़ताल करने और आम जनता से टैक्स न भरने की अपील की। वह यहीं नहीं रुके, 25 जून, 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार के खिलाफ एक बड़ी आम सभा को संबोधित करते हुए पुलिस ही नहीं, सेना के कर्मचारियों से भी आह्वान किया कि वह दबाव में आकर सरकार के निर्देशों का पालन न करें।

इसी सभा के बाद 25 जून, 1975 की देर रात इंदिरा गांधी की सरकार ने देश में इमरजेंसी लगा दी थी। प्रधानमंत्री मोदी, गृह मंत्री अमित शाह से लेकर सरकार के तमाम मंत्री और सत्तारूढ़ दल के सारे नेता इमरजेंसी को देश के इतिहास में काला धब्बा बताते हैं, लेकिन जेएनयू से लेकर देश के विभिन्न परिसरों में उबलते छात्रों को देखकर लगता है कि उन्होंने उससे कोई सबक नहीं सीखा है।

हो सकता है कि रविवार की रात जेएनयू परिसर में जब नकाबपोश हमलावर छात्रों और प्रोफेसरों पर लाठियों और रॉडों से हमले कर रहे थे और जब गेट पर खड़े दिल्ली पुलिस के जवान जेएनयू प्रशासन से भीतर घुसने की मंजूरी की प्रतीक्षा कर रहे थे, उनमें एकाध पुलिसकर्मी ऐसा भी रहा हो, जिसने बचपन या किशोरावस्था में ही सही 25 जून, 1975 को रामलीला मैदान में जेपी को गरजते सुना हो!

क्या आज के हुक्मरान परिसरों में हो रही गर्जना सुन रहे हैं?

– लेखक छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं

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