sunday motivation जब सेवानिवृत बैंक अधिकारी जयकिशोर प्रधान ने 64 साल में उम्र की बाधा पार कर नीट की परीक्षा पास की…
बीबीसी हिंदी से साभार.
ओडीशा में एक रिटायर्ड अधिकारी ने इस साल नीट की परीक्षा पास कर एमबीबीएस की पढ़ाई शुरू की है. सेवानिवृत बैंक अधिकारी जयकिशोर प्रधान ने 64 साल की उम्र में ये कारनामा किया है.
वो अपनी बेटियों का सपना पूरा करने के लिए मेडिकल की पढ़ाई कर रहे हैं. प्रधान ने सिर्फ उम्र की बाधा को ही पार नहीं किया है बल्कि एक हादसे के बाद हुई अपंगता पर भी विजय पाई है. साल 2003 में एक कार हादसे के बाद उनका एक पैर नाकाम हो गया था.
पैर में लगे स्प्रिंग की मदद से वो चल तो सकते हैं लेकिन आसानी से नहीं. जयकिशोर ने बीबीसी के बताया कि डॉक्टर बनने की चाह उनके मन में बचपन से ही थी. साल 1974-75 में बारहवीं पास करने के बाद उन्होंने मेडिकल की परीक्षा दी थी लेकिन कामयाबी नहीं मिली थी.
उस समय मेडिकल की परीक्षा के लिए एक साल और गंवाने के बजाय उन्होंने बीएससी में दाख़िला लेकर आगे की पढ़ाई करना सही समझा. उन्होंने भौतिक विज्ञान (फिजिक्स) ऑनर्स के साथ ग्रैजुएशन किया और फिर स्टेट बैंक में नौकरी कर ली.
साल 1982 में प्रधान के पिता बीमार हुए तो उन्होंने उन्हें इलाज के लिए बुर्ला के सरकारी मेडिकल कॉलेज में भर्ती किया, जहां दो बार उनका ऑपरेशन हुआ. लेकिन इसके बावजूद जब वे ठीक नहीं हुए तो उन्होंने अपने पिता को वेल्लोर के क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज में भर्ती करवाया जहां से वे स्वस्थ होकर घर वापस आए.
अपने पिता के इलाज के लिए अस्पताल में रहते समय प्रधान के मन में डॉक्टर बनने की इच्छा एक बार फिर जागी. लेकिन तब तक वे डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए उम्र की सीमा पार कर चुके थे. इसलिए उस समय मन मार कर रह गए.
प्रधान खुद भले ही डॉक्टर नहीं बन पाए लेकिन 30 सितंबर, 2016 में सेवानिवृत होने के बाद उन्होंने अपनी जुड़वा बेटियों के जरिए अपना सपना पूरा करने की ठान ली. उन्होंने अपनी बेटियों को डॉक्टरी पढ़ने के लिए प्रेरित किया और उनकी तैयारी में मदद भी की. उनकी मेहनत, लगन और प्रेरणा आखिरकार रंग लाई और उनकी दोनों बेटियाँ बीडीएस (डेंटल साइंस) की परीक्षा पास कर गईं.
लेकिन साल 2019 में “नीट” की परीक्षा में आयु सीमा की चुनौती देकर दायर एक याचिका पर जब सुप्रीम कोर्ट ने मामले के अंतिम फैसले तक आयु सीमा हटा दिया, तो प्रधान ने अपना मौका ताड़ा और उसी वर्ष “नीट” की परीक्षा में बैठ गए. लेकिन उन्हें इस बार भी कामयाबी नहीं मिली.
वे कहते हैं, “सच पूछें तो मैंने पिछले साल “नीट” के लिए अलग से कोई तैयारी नहीं की थी लेकिन बेटियों की जिद के कारण मैं परीक्षा में बैठ गया. उस बार मुझे सफलता नहीं मिली, लेकिन एक फ़ायदा जरूर हुआ. मैं जान गया कि “नीट” की परीक्षा कैसी होती है, उसमें कैसे सवाल पूछे जाते हैं. इस बार मैं बेहतर तैयारी के साथ परीक्षा में बैठा और सफल हुआ.”
प्रधान ने सितंबर में “नीट” के परीक्षा दी और दिसंबर में उसका परिणाम आया लेकिन इस दौरान उनके परिवार में एक ऐसा हादसा हो गया जिसने उन्हें झंझोर कर रख दिया. पिछले नवंबर में एक दुर्घटना में उनकी जुड़वां बेटियों में से बड़ी बेटी की मौत हो गई.
वो कहते हैं, “मुझे एमबीबीएस की पढ़ाई करने के लिए उसी ने सबसे ज्यादा प्रेरित किया आज वह ज़िंदा होती, तो वही सबसे ज़्यादा ख़ुश होती. लेकिन यह मेरा दुर्भाग्य है कि परिणाम आने से पहले ही वह चल बसी.”
यह कहते हुए प्रधान भावुक हो उठते हैं और उनकी आवाज में उनकी पीड़ा साफ छलकती है. पिछले गुरुवार को प्रधान ने बुर्ला सहर स्थित सरकारी मेडिकल कॉलेज “वीर सुरेन्द्र साए इंस्टिट्यूट आफ मेडिकल साइंसेज एंड रिसर्च” यानी “विमसार” में दाखिला ले लिया.
लेकिन अभी कक्षाएं शुरू नहीं हुई हैं. संयोगवश यह कॉलेज उनके निवास स्थान अताबीरा से केवल 15 किलोमीटर की दूरी पर है. प्रधान ने अभी तय नहीं किया है कि वे घर पर रहकर पढ़ाई करेंगे या हॉस्टल में रहेंगे.
जब मैंने उनसे पूछा कि अगर उन्हें “विमसार” के बजाय कहीं दूर, किसी दूसरे राज्य के मेडिकल कॉलेज में दाखिला मिलता तो क्या वे तब भी एम.बी.बी.एस. की पढ़ाई करते, तो उन्होंने तत्काल कहा; “जरूर करता क्योंकि यह केवल मेरा अपना ही नहीं, मेरी खोई हुई बेटी का भी सपना था.”
अपने बच्चों के उम्र के नौजवानों के साथ पढ़ाई करना और अपने से कम उम्र के लोगों को अपना शिक्षक मानना क्या उन्हें थोड़ा अटपटा सा नहीं लगेगा? इस सवाल के जवाब में प्रधान ने कहा, “मैं अपनी ओर से कोशिश करूंगा कि मेरे साथ पढ़ने वाले छात्र, छात्राएं मुझे अपना क्लासमेट समझें और मेरे साथ वैसा ही बर्ताव करें. जहां तक शिक्षकों को सवाल है, वे मेरे लिए गुरु होंगे भले ही वे उम्र में मुझसे छोटे हों.”
डॉक्टरी की पढ़ाई खत्म करने के बाद क्या वे दूसरे डॉक्टरों की तरह प्रैक्टिस करेंगे? इसपर प्रधान का कहना था, “इसे पेशा बनाने की मंशा लेकर मैं परीक्षा में नहीं बैठा था. बैंक की नौकरी के साथ मेरे पेशेवर जीवन समाप्त हो चुका है. डॉक्टरी से रोज़ी-रोटी कमाने का मेरा कोई इरादा नहीं है. मुझे जो पेंशन मिलता है, उसीसे मेरा गुजारा हो जाता है. मैंने डॉक्टर बनना सिर्फ़ इसलिए चाहा कि अपने इलाक़े में उन गरीबों की मदद कर सकूं, जिनके पास इलाज के पैसे नहीं होते. अगर मैं ऐसा कर पाऊँ तो अपने आप को भाग्यशाली समझूँगा.”
प्रधान ने रिकॉर्ड बनाने के लिए भले ही डॉक्टर बनना न चाहा हो. लेकिन संभव है कि इस उम्र में उनकी इस अनोखी सफलता के कारण उन्हें किसी रिकॉर्ड बुक में स्थान मिल ही जाए. प्रधान ने यह ज़रूर साबित किया है कि अगर कोई किसी लक्ष्य को प्राप्त करने की ठान ले और उसके लिए पूरी लगन से मेहनत करे तो उम्र उसमें बाधक नहीं होती.