अक्षय तृतीया को जैन धर्म में क्यों कहा जाता है इक्षु तृतीया
अक्षय तृतीया केवल सनातनियों का ही नहीं, बल्कि जैन धर्मावलम्बियों का भी एक महान धार्मिक पर्व है. इस दिन जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान ने एक वर्ष की पूर्ण तपस्या करने के पश्चात इक्षु (शोरडी-गन्ने) रस से पारायण किया था. जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभनाथ को भगवान विष्णु का अवतार भी माना जाता है.
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, इसके पीछे कथा प्रचलित है कि जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर श्री आदिनाथ भगवान ने सत्य व अहिंसा का प्रचार करने के लिए और अपने कर्म बन्धनों को तोड़ने के लिए संसार के भौतिक सत्य और अहिंसा के प्रचार करने के लिए प्रभु विचरण कर रहे थे,ऐसा करते-करते आदिनाथ प्रभु हस्तिनापुर गजपुर पहुंचे जहां इनके पौत्र सोमयश का शासन चल था.
क्यों कहा जाता है इक्षु तृतीया
प्रभु का आगमन की बात सुनकर सभी नगर वासी दर्शन के लिए उमड़ पड़े. सोमप्रभु के पुत्र राजकुमार श्रेयांस कुमार ने प्रभु को देखकर उसने आदिनाथ को पहचान लिया और तत्काल शुद्ध आहार के रूप में प्रभु को गन्ने का रस दिया, जिससे आदिनाथ ने व्रत का पारायण किया. जैन धर्मावलंबियों के अनुसार गन्ने के रस को इक्षुरस भी कहते हैं इस कारण यह दिन इक्षु तृतीया एवं अक्षय तृतीया के नाम से विख्यात हो गया.
इसे कहा जाता है वर्षीतप
भगवान श्री आदिनाथ ने अक्षय तृतीया के दिन लगभग 400 दिन की तपस्या के पश्चात पारायण किया था. उनकी ये तपस्या एक वर्ष से अधिक समय की थी इसलिए जैन धर्म में इसे वर्षीतप से सम्बोधित किया जाता है.
जैन धर्मावलम्बी आज भी रखते हैं वर्षीतप
आज भी जैन धर्मावलम्बी वर्षीतप की आराधना कर अपने को धन्य समझते हैं. यह तपस्या प्रति वर्ष कार्तिक के कृष्ण पक्ष की अष्टमी से आरम्भ होती है और दूसरे वर्ष वैशाख के शुक्लपक्ष की अक्षय तृतीया के दिन पारायण कर पूर्ण की जाती है. तपस्या आरम्भ करने से पूर्व इस बात का पूर्ण ध्यान रखा जाता है कि प्रति मास की चौदस को उपवास करना आवश्यक होता है. इस प्रकार का वर्षीतप करीबन 13 मास और दस दिन का हो जाता है. उपवास में केवल गर्म पानी का सेवन किया जाता है.
ये तपस्या आरोग्य जीवन के लिए भी उपयोगी
ये तपस्या धार्मिक दृष्टिकोण से ही नहीं बल्कि आरोग्य जीवन बिताने के लिए भी उपयोगी है. संयम से जीवनयापन करने के लिए इस प्रकार की धार्मिक क्रिया करने से मन को शान्त, विचारों में शुद्धता आती है. इसी कारण है कि मन, वचन एवं श्रद्धा से जुड़े इस दिन को जैन धर्म में विशेष महत्वपूर्ण समझा जाता है.
दान की भावना
इस दिन जैन अनुयायी आहार दान, ज्ञान दान, औषधि दान और अभय दान का पुण्य करते हैं. जैन धर्म में माना जाता है कि इस दिन किया गया पुण्य कभी क्षीण नहीं होता अर्थात अक्षय रहता है.