kamal shukla

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सत्ता के साथ संघर्ष की पत्रकारिता और उसके दुष्प्रभाव…

सुरेश महापात्र। आज जब मैने पत्रकार कमल शुक्ला द्वारा अपनी बेटी के जन्मदिन पर लिखे पोस्ट को देखा तो मन में यकायक विचार आया कि ‘हां’ यही तो होता रहा है। पत्रकारिता के साथ। सदैव। चाहे गणेश शंकर विद्यार्थी हों या कई—कई पीढ़ियों के बाद कमल शुक्ला तक… जिसने भी सत्ता के विरूद्ध आवाज उठाई उसे बहुत कुछ सहना पड़ा। अब वक्त बदल चुका है इस तरह के मामले में अब सीधे तौर पर राजनीतिक सत्ता को रेखांकित करना चाहिए। यानी सत्ता चाहे किसी की भी क्यों ना हो वह

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Editorial

पत्रकार कमल पर हमले के बहाने… चाहे रमन हों या भूपेश दोनों की सरकारों में ज्यादा कुछ जमीन पर नहीं बदला…

सुरेश महापात्र। छत्तीसगढ़ में पत्रकारों पर हमले की यह कोई पहली या अंतिम कड़ी नहीं है। नए प्रदेश के गठन के बाद से अब तक बीते दो दशक में ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं जब पत्रकारिता चोटिल हुई है। लिखने वाले मारे गए, नक्सल मामले में फंसाए गए, नक्सलियों ने हत्या की, पुलिस ने फर्जी केसों में उलझा दिया। अखबार के दफ्तर पर बुलडोजर चलाया गया। राजनीतिक, प्रशासनिक, पुलिस और नक्सल के खौफ के साए में पत्रकारिता कूलांचे मारती रही… हर हादसे के बाद बड़े अखबारों में करोड़ों खर्च कर सरकार

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