गीता में पाप का कारण: हम पाप क्यों करते हैं, जानें भगवद गीता से
आपने अपने आसपास टीवी, अखबारों आदि में देखा और सुना होगा कि किसी जगह पर कोई चोरी हो गई, तो कहीं किसी व्यक्ति ने आपसी रंजिश में किसी की हत्या कर दी। कलियुग में हमारे इर्द-गिर्द इतने अपराध हो रहे हैं कि हर दिन की ऐसी वीभत्स घटनाएं भी अब आम लगने लगी हैं। अखबारों में ज्यादातर खबरें किसी न किसी अपराध से जुड़ीं होती हैं। धर्म-कर्म की भाषा में कहें, तो पृथ्वी पर पाप बढ़ते जा रहे हैं। कई लोग तो छोटी-छोटी इच्छाओं को पूरा करने के लिए बड़े-बड़े अपराधों को अंजाम दे बैठते हैं, लेकिन केवल ऐसा नहीं है कि मनुष्य के यह पाप केवल कलियुग में भी हो रहे हैं। द्वापर युग में भी जब चारों तरफ पाप बढ़ने लगे थे, तो अर्जुन ने श्रीकृष्ण से सवाल किया था कि आखिर मनुष्य पाप कब करता है? आखिर वो कौन-सी बात है, जो उसे पाप करने के लिए मजबूर कर देती है? तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन का मार्गदर्शन किया था। आइए, जानते हैं श्रीकृष्ण ने तब अर्जुन से क्या कहा था।
स्वार्थ की अति पाप करने को करती है मजबूर
मनुष्य पाप क्यों करता है? इस सवाल का जवाब देते हुए श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था कि इस पृथ्वी पर हर मनुष्य अपनी भलाई के लिए कार्य करता है लेकिन जब व्यक्ति का स्वार्थ बढ़ जाता है, तो वे अपने अलावा किसी की नहीं सोचता। उसे केवल और पाने की इच्छा रहती है। इस क्रम में मनुष्य यह नहीं सोचता कि उसके स्वार्थ से किसी अन्य को हानि होगी या दुख उठाना पड़ेगा। उसकी संवेदनाएं मरती जाती है और उसे दूसरों के दुख में भी सुख ही दिखता है।
वासना और मोह से अंधा हो जाता है मनुष्य
अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि वासना और मोह भी मनुष्य को पाप करने को विवश कर देती है। वासना का अर्थ है कि किसी भी अन्य मनुष्य को किसी वस्तु की तरह उपभोग करने की इच्छा होना। जिस तरह कोई बालक किसी खिलौने के लिए मचल उठता है और जब तक उसे वो खिलौना न मिले, बच्चा रोता रहता है और वो शांत नहीं रहता, उसी तरह व्यस्क होने पर किसी दूसरे मनुष्य को नैतिकता और संवेदनशीलता से परे जाकर उसे उपभोग करने की इच्छा भी मनुष्य को पाप करने को विवश करती है। व्यक्ति किसी वस्तु या मनुष्य के प्रति मोह बांधता है और उसे पाने के लिए अंधा हो जाता है।
क्रोध से बंद हो जाती है बुद्धि
क्रोध आने की कई स्थितियां होती हैं। कई बार अत्यंत पीड़ा भी क्रोध का कारण बनती है लेकिन क्रोध से व्यक्ति कुछ भी सही नहीं सोच पाता। कुछ देर के लिए ही सही लेकिन उसकी बुद्धि बंद हो जाती है और वो कुछ भी सही दिशा में नहीं सोच पाता है। जिस तरह धुआं अत्यंत होने पर अग्नि कुछ देर के लिए ढक जाती है और सही स्थिति का पता नहीं चलता, उसी तरह क्रोध भी एक धुएं की तरह होता है। जिसकी अति होने पर आसपास मौजूद कुछ भी चीजें नजर नहीं आती।
कुंठा जन्म देती है बुरी भावना
श्रीकृष्ण कहते हैं कि मनुष्य के नकारात्मक गुणों में कुंठा भी शामिल है। मनुष्य जब कुंठित होता है, तो बुद्धिमान, ज्ञानी और सभ्य मनुष्यों को भी अपने से नीचे समझने लगता है। कुंठित व्यक्ति में प्रतिभा की कमी होती है, इसलिए वे अपने सामने किसी भी प्रतिभाशाली मनुष्य को सहन नहीं कर पाता। वे अपने आपको सर्वश्रेष्ठ दिखाने के लिए उस प्रतिभाशाली मनुष्य का बार-बार अपमान करता है और उसे किसी तरह से मूर्ख सिद्ध करने में लगा रहता है। जिस प्रकार दुर्योधन ने अपनी कुंठा में आकर हमेशा ही तुम पांचों पांडवों को अपमानित किया।
अर्जुन ने पूछा 'पाप से कैसे बचा जा सकता है?'
इन सभी बातों को सुनकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से सवाल पूछा कि पाप से कैसे बचा जा सकता है? इसका जवाब देते हुए श्रीकृष्ण ने कहा कि प्रत्येक मनुष्य को सबसे पहले अपनी सभी नकारात्मकताओं को मन से निकाल देना चाहिए। मनुष्य को प्रारम्भ के साथ अपने अंत का ज्ञान होना भी बहुत आवश्यक है। धरती पर हर मनुष्य की एक निश्चित आयु है, कोई भी अमर नहीं है। ऐसे में सभी को यह सोचना चाहिए, जिस वस्तु को पाने के लिए हम इतने पाप कर रहे हैं, उनमें से कुछ भी हमारे साथ नहीं जाएगा। व्यक्ति को आसक्ति यानी किसी भी वस्तु के लिए अत्यधिक लगाव नहीं रखना चाहिए। वहीं, विरक्ति के भाव को भी खुद पर हावी नहीं होने देना चाहिए। सही-गलत की पहचान होना और इस विवेक को हमेशा बनाए रखने से ही पाप करने से खुद को रोका जा सकता है। यही पाप करने से बचने का अंतिम उपाय है।