एर्राबोर हादसे के 18 साल बाद एक डाक्यूमेंट्री ERRABORE MASSACRE 2006 ने पूरा सच उजागर किया…
इम्पेक्ट न्यूज। रायपुर।
आज से करीब दो दशक पहले बस्तर में माओवादियों के खिलाफ आदिवासियों के स्वस्फूर्त विरोध के अभियान सलवा जुड़ूम के दौर में बहुत सी घटनाएं दर्ज हैं। इसी दौर में वर्ष 2006 में अब सुकमा जिला के एर्राबोर कैंप में माओवादियों ने एक बड़ा हमला किया था। यह हमला सशस्त्र पुलिस बल के खिलाफ ना होकर निरीह आदिवासियों के अस्थाई आवास पर किया गया।
पूरे कैंप में मार—काट मचाते हुए ताड़ के पत्तों से बने आदिवासियों के झोपड़ियों को माओवादियों ने फूंक दिया। इस हमले में करीब पचास लोगों के जान गई। अबोध बच्चे, बुजुर्ग और माओवादियों के खिलाफ खड़े कई लोग मारे गए। छत्तीसगढ़ में यह माओवादियों के निर्ममता का अब तक का सबसे बड़ा उदाहरण है।
हमले में शामिल अब आत्मसमर्पित माओवादियों से चर्चा से यह पता चला कि उन्हें भी माओवादियों के टॉप लीडरशिप ने यह नहीं बताया था कि वे उनके ही लोगों की हत्या करने के लिए ट्रेनिंग देकर ले जा रहे हैं। यह निश्चित तौर पर बेहद भयावह और नृशंस हत्याकांड है। मानवाधिकार से जुड़े लोगों को इस हमले को लेकर माओवादियों के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करवानी चाहिए थी।
इस हमले की 18वीं बरसी के दौरान एक डाक्यूमेंट्री ERRABORE MASSACRE 2006 रिलीज की गई है। इस डाक्यूमेंट्री को छत्तीसगढ़ सरकार ने अपने आफिसियल हैंडल से सोशल मीडिया में जारी किया है। इस सीरिज के दो अंक अब तक जारी किए गए हैं। इस डाक्यूमेंट्री को सुकमा के युवा आर्दश पांडे ने बनाया है।
आदर्श ने छत्रपति शिवाजी इंजीनियरिंग कॉलेज भिलाई से रोबोटिक्स में इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है। हाईस्कूल तक की शिक्षा सरस्वती शिशुमंदिर सुकमा के बाद हायर सेकेंडरी की शिक्षा हम एकेडमी जगदलपुर से की। इसके बाद 2023 में FTTI की परीक्षा के लिए एक साल तक दिल्ली में पढ़ाई की और परीक्षा भी दी। वे टॉप 100 में रहे पर स्क्रिप्ट राइटिंग के लिए केवल 10 सीट होने के कारण दाखिला नहीं मिल सका।
आदर्श ने इम्पेक्ट से चर्चा में बताया कि दिल्ली में FTTI की परीक्षा की तैयारी के दौरान सिनेमा निर्माण से जुड़े बहुत से लोगों से मुलाकात हुई। वे कहते हैं मैं स्क्रिप्ट लेखन और निर्देशन के लिए स्वयं को तैयार कर रहा हूं। इसी बीच माओवादियों के खिलाफ चल रहे अभियान और आदिवासियों के संघर्ष से जुड़ी कई घटनाओं पर नज़र पड़ी।
जिस दौरान एर्राबोर आदिवासियों के कैंप पर हमला किया गया था उस समय मेरी उम्र करीब 8 बरस की ही थी। मुझे लगा कि इस बारे में जानकारी लेकर अपनी पहली तैयारी करनी चाहिए। संयोग से मेरी मुलाकात एक जानकारी के सिलसिले में मयंक श्रीवास्तव सर के साथ हुई।
वे मेरी अभिरूचि को देखकर उत्साहित हुए और सुकमा जैसे पिछड़े इलाके से होने के कारण उन्हें लगा कि प्रोत्साहित करना चाहिए। तो बस उन्होंने कह दिया अपने काम को आगे बढ़ाओ देखते हैं क्या हो सकता है? बस इसके बाद एर्राबोर पर काम शुरू कर दिया।
सुकमा के प्रतिष्ठित पत्रकार लीलाधर राठी ने उस समय की तस्वीरें मुहैया करवाईं। 2006 के इस घटना के पीड़ित और प्रभावित लोगों की तलाश शुरू की। पांडे कहते हैं सबसे रोचक तो यही था कि एर्राबोर कैंप में हमले में शामिल माओवादियों जो अब सरकार की नीति से प्रभावित होकर आत्मसमर्पण कर चुके हैं और उस दौरान तीर धनुश लेकर एसपीओ के तौर पर काम करने वालों से मुलाकात हुई। बातचीत हुई।
पूरे घटनाक्रम का खाका सामने आने लगा। इस तरह से पहल हुई। इसके बाद लोगों से बातचीत और दृश्यांकन करना था। इसके लिए दिल्ली के वे सारे साथी काम आए जिनके साथ FTTI की तैयारी के दौरान संपर्क हुआ था। वे एक ही कॉल पर सुकमा आ गए। सुकमा एसपी किरण चौहान ने काफी सपोर्ट किया। आदर्श कहते हैं बस्तर में करने के लिए बहुत कुछ है। पर बाहर भी निकलकर देखना समझना चाहिए।
इस समय आदर्श ने IIDL इंडियन इंस्टीट्यूट आफ डेमोक्रेटिक लीडरशिप की परीक्षा उतीर्ण कर ली है। वे टॉप 13 में रहे। 30 युवाओं के बैच में मुंबई में इसकी पढ़ाई पूरी करना चाह रहे हैं। आदर्श ने बताया कि IIDL की प्रवेश परीक्षा दो चरणों में होती है। पहला चरण लिखित और दूसरा चरण साक्षात्कार का होता है। एक लंबी प्रक्रिया के बाद केवल 30 युवाओं को अवसर मिलता है।
16—17 जुलाई की दरमियानी रात को घटना हुई थी। इसलिए कोशिश थी कि इसी समय ही इसे रिलीज किया जाए। एर्राबोर पर बनी इस डाक्यूमेंट्री को छत्तीसगढ़ सरकार के आफिसियल हैंडल से जारी किए जाने से मेरे जैसे युवाओं के लिए एक बड़ा अवसर उत्पन्न हुआ है। इस डाक्यूमेंट्री को लोगों ने देखा और इसकी प्रशंसा की है। इसके लिए मैं सभी के प्रति आभारी हूं। इससे मुझे आगे काम करने के लिए उत्साह बढ़ा है।
डाक्यूमेंट्री के फिलहाल दो चैप्टर जारी किए गए हैं। इसके आगे भी काम चल रहा है। कोशिश है कि बिना किसी भेदभाव के जमीनी हकीकत को सबके सामने रखा जाए। बस्तर में माओवादियों के साथ फोर्स की लड़ाई चल रही है पर इसका खामियाजा दोनों तरफ से आदिवासी ही भुगतते रहे हैं।
अब जमीन पर हालात तेजी से बदल रहा है। फोर्स के प्रति विश्वास का माहौल विस्तारित हुआ है। आदिवासियों को कैंप में शरण स्थली बनाकर रखने की मजबूरी खत्म कर उनके गांवों तक सुविधाएं पहुंचाई जा रही है। शायद एर्राबोर जैसे हादसे का सबसे बड़ा सबक यही है।
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