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जो कभी माओवादी दस्ते का हिस्सा थी अब वह हैं देश सेवा के लिए महिला कमांडो…

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पी रंजन दास। बीजापुर।

सियारी के पत्तों से पत्तल और दोना, चूल्हा-चौकी के साथ बस्तर की फिजा में मांदर की थाप और बांसूरी की सुरीली आवाज को लौटाने, यहां शांति बहाली के लिए महिलाएं भी पुरूषों के साथ कदम से कदम मिलाकर नक्सलियों को उनके ही गढ़ में मुंहतोड़ जबाव दे रही हैं।

बस्तर में इस समय नक्सलियों के खिलाफ छिड़ी निर्याणक जंग में महिला कमांडोज को भी युद्धग्रस्त इलाकों में उतारा गया है। इनमें समर्पित महिला माओवादी भी शामिल है जो कल तक लोकतंत्र की मुखालफत में हथियार लेकर चलती थी मगर अब मुख्यधारा में वापसी के बाद नक्सली हिंसा के खिलाफ कदम से कदम मिलाकर माओवादियों से लोहा ले रही है।

नक्सलियों के खिलाफ इस वक्त जारी आर-पार की लड़ाई में बस्तर इम्पेक्ट ने बीहड़ से एक ऐसी ही तस्वीर अपने पाठकों तक पहुंचाने की कोशिश की है, जिसमें पैरों में हंटर शूज और तन पर कांबेट यूनिफॉर्म और हाथों में एके 47, इंसास जैसे हथियार लेकर महिलाएं नदी-नालों, जंगल, पहाड़ को लांघ नक्सलियों को उनके ही मांद में हथियार छोड़ने मजबूर कर रही है।

सर्चिंग में शामिल उन महिला कमांडोज से बस्तर इम्पेक्ट ने चर्चा की, जो कभी नक्सल संगठन का हिस्सा थी। इनसे नक्सल संगठन की वर्तमान स्थिति, शांति वार्ता की अपील और नक्सल मोर्चे पर पेश आने वाली चुनौतियों से जुड़े सवालों के जबाव जानने की कोशिश की। इनमें वे महिला कमांडोज भी शामिल थी जो कुख्यात नक्सली हिड़मा के साथ काम कर चुकी है।

मौजूदा दौर में नक्सल संगठन के खिलाफ पुलिस की आक्रामक कार्रवाई पर इनका कहना था कि पुलिस की आक्रामक कार्रवाई से नक्सल संगठन को बड़ा नुकसान हुआ है। नक्सल संगठन का ढांचा कमजोर पड़ चुका है। कई लीडर्स बीमारी में मारे गए, एंकाउंटर में लगातार मारे जा रहे, दिनों दिन नक्सल संगठन में सदस्यों की संख्या में गिरावट आ रही है।

एक ने बताया कि वह साल 2020 तक नक्सल संगठन में थी। संगठन में रहते वह बीमार पड़ गई थी। इलाज के लिए खुद को मोहताज देख उसने संगठन छोड़ने का मन बनाया। पुलिस से मदद मिली और उसने हिंसा का रास्ता छोड़ दिया। वह बताती है कि संगठन में रहते उसे परिवार से मिलने की इजाजत नहीं थी। घर पर मां-बाप किस हालात में है, हर पल उसे इसकी चिंता सताती थी। अब परिस्थितियां बदल चुकी है।

हथियार के बदले हथियार के सवाल पर जबाव था कि इसमें कुछ गलत नहीं। गोलियांे की तड़तड़ाहट की जगह मांदर की थाप सुनाई पड़े, चहुंओर पहले जैसी शांति लौटे, लिहाजा नक्सल संगठन को हथियार छोड़ने मजबूर करना है।

मानसून दस्तक दे चुका है, नक्सल अभियान में चुनौतियां बढेंगी, ना सिर्फ उफनते नदी-नाले बल्कि सांप-बिच्छू मलेरिया का जोखिम भी है, चूंकि मलेरिया से हर साल लोगों की मौतें होती है, इसकी जद में जवान भी आते हैं, इस पर जबाव मिला कि परिस्थितियों की उन्हें परवाह नहीं। अब तो वे ऑपरेशन के वक्त एलयूपी भी लेते हैं। जंगल के अनजान रास्तों पर गश्त करना, 20 से 30 किमी पैदल चलते हैं, कोई खास दिक्कत नहीं होती, अपने साथ मेडिकल किट के अलावा खाने-पीने का जरूरी सामान होता है।

एक अन्य महिला कमांडो बताती है कि 2004 से 2017 तक वह नक्सल संगठन में थी। संगठन में रहते परिवार को संगठन द्वारा प्रताड़ित किया गया। मुखबिरी के संदेह में बड़े भाई से मारपीट की गई। संगठन में रहते उसकी शादी भी हुई, आगे चलकर ख्याल आया कि जो रास्ता उन्होंने चुना है उसकी कोई मंजिल नहीं। हम दोनों ने संगठन छोड़ने का मन बनाया। अब साथ रहते नक्सल मोर्चे पर फर्ज पूरा कर रहे हैं।

महिला होना और शारीरिक समस्याओं पर जबाव था कि कोई खास दिक्कत नहीं होती है और ना ही ड ्यूटी पर निकलते डर लगता है। दिल-दिमाग में एक ही बात घर की होती है वो यह कि अगर नक्सली दिखे तो मुकाबला करना है। वो गोली दागे तो कदम आगे ही बढे।

ऑपरेशन में आई तेजी को फायदेमंद बताते कहा कि अब नक्सल संगठन का आधार इलाका सिकुड़ता जा रहा है। पांच-पांच किमी के दायरे में सुरक्षा बलों के कैम्प लग रहे हैं। फोर्स ने अंदरूनी इलाकों में दखल देना शुरू कर दिया है, जिससे नक्सलियों के हौसले कमजोर पड़ रहे हैं। उन इलाकों में जहां नक्सली समानांतर सरकार का दंभ भरते हैं, प्रभाव तेजी से घट रहा है। लगातार सरेंडर, एंकाउंटर और बीमारियों के चलते नक्सल कैडर में लाल लड़ाकों की संख्या घट रही है। अब उनके थिंक टैंक यानि शीर्ष नेतृत्व भी कमजोर पड़ चुका है।

छोटी सी चर्चा में इन महिला कमांडो की बस्तर में फैली हिंसा और अशांति को लेकर उनकी चिंता, जज्बात और नक्सलवाद के दमन को लेकर उनका जज्बा देखने को जरूर मिला। हालांकि हथियार के बूते शांति पर सवाल उठते रहे हैं, लेकिन बस्तर को उसकी असल तस्वीर लौटाने बस्तर की बेटियों की नक्सल मोर्चे पर तैनाती उनके अदम्य साहस और शौर्य से परिचय जरूर कराती है।