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इतिहास पढ़कर सिर धुनते रहिए… 1947 बनाम् 2019 का बहस… गांधी, सावरकर, गोड़से और हिंदुस्तान की कहानी…

अपनी बात / सुरेश महापात्र

हिंदुस्तान में बहुत कुछ ठीक चल रहा है। 2019 आने वाले समय में इतिहास में बिल्कुल उसी तरह दर्ज हो रहा है जैसा 1947 में हुआ। बस फरक इतना है कि 1947 में खबरें धीमे से और गंभीरता के साथ स्थाई तौर पर पहुंचती थीं, 2019 में खबरें हर पल बदल जाती हैं और खबरों का ट्रेंड भी सोशल मीडिया के हिसाब से बदलता रहता है।

हिंदुस्तान की आजादी के बाद जो बहस नेपथ्य में रही और बार—बार प्रभावित करती रही उन्हीं में से अयोध्या में राम मंदिर, जम्मू—कश्मीर की स्वायत्ता से जुड़े धारा 370 और संविधान में धर्मनिपेक्षता का मसला रहा।

1992 में बाबरी म​स्जिद को ढहाए जाने की घटना को सुप्रीम कोर्ट ने मान्यता दे दी है। इसी के साथ इस विवाद को खत्म करने का जो फैसला सुनाया है वह न्याय कम समाधान ज्यादा लगता है। इसे लेकर अभी भी बहस खत्म नहीं हुई है। आगे भी सभी पक्ष इस मसले पर एक मत होंगे यह असंभव है। फिलहाल संविधान पीठ के सर्वसम्म्त ऐतिहासिक फैसले के बाद जो भी राह निकली है वह कम से कम दिखाई तो दे ही रही है।

जम्मू—कश्मीर को विशेष का दर्जा देने वाली संविधान की धारा 370 के सभी प्रावधान को संसद ने शून्य कर दिया। इसी के साथ यह बहस भी अब खत्म हो गई है कि एक राष्ट्र, एक ध्वज और एक विधान का पालन नहीं हो रहा है। अब वहां यानि जम्मू—कश्मीर के हालात कैसे हैं? यह सवाल पूछना कठिन है।

आज से संविधान पीठ इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिकाओं की सुनवाई करेगी। धारा 370 के प्रावधान को खत्म किए जाने के संसद के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट का क्या स्टैंड होगा? यह देखना शेष है। यह बहस करना बिल्कुल फिजूल है कि यह फैसला सही है या गलत! मेरे हिसाब से अब इसे वक्त के हवाले ही छोड़ देना चाहिए… बिल्कुल वैसे ही जिस तरह से आजादी के दौरान हिंदुस्तान के दो टुकड़े हुए… एक भारत बना और दूसरा पाकिस्तान!

हिंदुस्तान के टुकड़े किसने किए? जवाहरलाल नेहरू, मोहम्मद अली जिन्ना, मोहन दास करमचंद गांधी किसे जिम्मेदार माना जाए…? किसे इसकी सज़ा दी जाए? सावरकर और नाथूराम गोड़से के पक्ष में खड़ा हुआ जाए या गांधी—नेहरू की विरासत को समझने की कोशिश की जाए… 2019 का यह सबसे बड़ा सवाल है। 

फिलहाल बीती रात संसद में हिंदुस्तान की आजादी के बाद संविधान के अंर्तनिहित धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को बहुमत ने पराजित किया है। यह बहुमत अब यह मानता दिख रहा है कि आज़ादी के दौर में जो भी इतिहास में त्रूटि हुई है उसे सुधारा जाए… यह बहुमत यह मानता है कि आज़ादी से पहले जिन भी विद्वजनों ने कड़ी मेहनत कर संविधान सभा में लंबी बहस के बाद जो प्रावधान किए थे वे गलत थे! इसे सुधारा जाना चाहिए।

हमारे पास फिलहाल दो तरह के इतिहास हैं एक वह जिसे आज़ादी के बाद भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार आने से पहले पाठ्यक्रम में कांग्रेस की सत्ता ने पढ़ाया था। दूसरा वह जिसे हम 2014 में पूर्ण बहुमत वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार के आने के बाद पढ़ाया जा रहा है।

हमारे सामने इतिहास को बांचने और उसकी कमियों को निकालने के साथ इतिहास में गलती करने वालों को दोषी बताने के लिए जो तथ्य परोसे जा रहे हैं उसकी सच्चाई और खामियों पर बात करने का वक्त अभी नहीं है। 2014 से पहले कांग्रेस की सरकार जिस तरह से धाराशाई हुई उसकी कल्पना शायद ही कांग्रेस ने की हो।

फिलहाल देश के भीतर जिस तरह का माहौल बनता दिख रहा है उससे तो स्पष्ट है कि हम वर्तमान में इतिहास सुधारने का बीड़ा उठाए हुए हैं। जब इतिहास सुधर जाएगा तब बाकि हालात भी सुधार दिए जाएंगे। पूरा देश मंदी, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य, किसानी से जुड़े मुद्दों से परे इतिहास के भंवरजाल में फंसा हुआ है।

मुझे कल बहस के दौरान गृहमंत्री अमित शाह की एक बात सबसे बढ़िया लगी जब उन्होंने नागरिक संशोधन विधेयक के पक्ष में कहा कि “यह बिल पेश करने की ज़रूरत इसलिए पड़ी क्योंकि कांग्रेस ने 1947 में धर्म के आधार पर विभाजन स्वीकार कर लिया था… अगर कांग्रेस ने ऐसा नहीं किया होता, तो इस बिल की ज़रूरत नहीं होती…” 

अब गृहमंत्री के इस तथ्य को लेकर अपना सिर धुनते हुए इतिहास को दुबारा पढ़ने की कोशिश मत कीजिए क्योंकि इतिहास भी दो तरह का है… एक जिसे अमित शाह पढ़ा रहे हैं जो उन्होंने संसद में अपने भाषण में कहा ​है और दूसरा वह जिसे हमें कांग्रेस ने पढ़ाया है! जिसके अनुसार ‘सावरकर ने सबसे पहले हिंदु राष्ट्र की मांग रखी, नाथूराम गोड़से ने महात्मा गांधी की हत्या कर दी।’ दोनों में से सच कौन बोल रहा है? यह तय करने की स्थिति में फिलहाल मैं तो हूं नहीं, आप पर ही छोड़ता हूं कि ‘भारी जनादेश से बनी सरकार क्या देश का इतिहास भी बदल सकती है?’

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