व्यथा : जिन पैसों से तेल मसाले का जुगाड होता उन्ही पैसों से बना दी जुगाड की पुलिया!
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धनगोल के बाद अब बीजापुर के एरामंगी गांव से आई बेबसी की ऐसी तस्वीर
पी रंजन दास। बीजापुर।
एक तरफ देश चांद पर अपना परचम लहरा रहा है तो दूसरी तरफ नक्सल हिंसा से जूझ रहे बस्तर के सुदूर इलाकों में आदिवासियों पर सिस्टम की बेरुखी सितम ढा रही है।
कुछ दिनों पहले बीजापुर जिले के धनगोल गांव से सिस्टम मुंह चिढ़ाती एक तस्वीर निकलकर आई थी। जहां सिस्टम की बेरुखी से निराश हो चुके ग्रामीणों ने ताड़ के तनों से जुगाड की पुलिया तान दी थी।
अपनी खामियों को सरकार प्रशासन सुधार पाता कि धनगोल की तरह मिलती जुलती एक और तस्वीर बीजापुर के एरामंगी गांव से उभरकर आई है, जो ना सिर्फ सिस्टम को मुंह चिढ़ा रही बल्कि नक्सल इलाको में सरकार के विकास के दावों की पोल खोल रही है।
यहां भी कहानी वही है, बदल गए तो बस बेबस ग्रामीणों के चेहरे, जो बीते एक साल से एक अदद पुलिया की मांग करते थक गए।
ऐसा नहीं कि समस्या पर किसी का ध्यान नहीं गया। गांव वालो के कहे अनुसार सिस्टम के दायरे में रहकर उनसे जो हो पाया उन्होंने किया। अर्जियां लगाई, मंदिर के भूमिपूजन केलिए इसी रास्ते विधायक का काफिला भी गुजरा, उनसे भी गुहार लगी मगर धनगोल के बाशिंदों की तरह इनके हिस्से भी आश्वासन आया।
सिस्टम के सताए ग्रामीण करते भी तो क्या। बारिश शुरू हों चुकी है। बीजापुर में मूसलाधार बारिश जारी है। पिछली बारिश में जो थोड़ी बहुत मरम्मत से जुगाड जमाई थी उस पर भी पानी बह गया।
दरअसल जिला मुख्यालय से करीब 30 किमी दूर एरामगी में 20 साल पहले PMGSY विभाग द्वारा गुदमा और एरामंगी गांव को जोड़ने वाली प्रमुख सड़क के निर्माण के साथ ही बीच में बहने वाले बरसाती नाले पर पुलिया का निर्माण किया गया था। दो साल पहले भारी बारिश बाढ़ के कारण पुलिया टूट गई। दो सालों से ग्रामीण विधायक, कलेक्टर और जिला पंचायत CEO और PMGSY विभाग से नए पुल के निर्माण की मांग करते आ रहे है, बाबजूद इनकी फरियाद किसी ने नहीं सुनी।
त्रस्त होकर ग्रामीणों ने क्षमतानुसार 100 से 500 रुपए चंदा इकट्ठा कर ट्रैक्टर और डोजर गाड़ी किराए पे लेकर दो दिन में एक लकड़ी की पुलिया बना डाली। जिसमे गांव के पुरषों के साथ महिलाएं यहां तक कि स्कूली बच्चों ने अपना पसीना बहाया।
पुलिया के अभाव में मूसलाधार बारिश में बच्चो का स्कूल जाना दूभर था, मरीज को लेने गांव तक एंबुलेंस नही आ सकती थी, हाट बाजार जाना , राशन लाना दूभर था, परेशानियों से निजात पाने आखिरकार ग्रामीणों ने खुद को सिस्टम के हाल पर छोड़ने की बजाए अपना हाथ जगन्नाथ समझा। फिर क्या था जंगल से पेड़ो के गोले काट लाए और श्रमदान से 48 घंटे में जुगाड की पुलिया तान दी।
ऐसा कर ग्रामीणों ने एक मिसाल जरूर पेश की लेकिन जुगाड की जद्दोजहद के बीच ऐसी मार्मिक बाते भी निकलकर आई है, जिसे सुनकर कलेजा पसीज आए, दरअसल जुगाड की पुलिया बनाने गांव वालो ने मिलकर चंदा किया।
जो सक्षम थे उन्होंने 500 रुपए दिए मगर मेहनत मजदूरी से दो जून की रोटी जुगाड़ने वाले ऐसे परिवारों ने भी 100 रुपए का आर्थिक सहयोग किया, जिनके लिए 100 रुपए भी बहुत बड़ी रकम थी। 100 रुपए से इनके हफ्ते भर का गुजारा निकलता था। जिस पैसे से इनके तेल मसाले का जुगाड हो जाता था, उन्ही पैसों से अब जुगाड की पुलिया बनाई।
हालंकि तमाम कठिनाइयों के बाद भी ग्रामीणों को इस बात की तसल्ली जरूर है कि पुलिया पक्की ना सही मगर बरसात में उन्हें थोड़ी राहत की उम्मीद जरूर है।