आलोक तोमर को मैं व्यक्तिगत रुप से नहीं जानता. औपचारिक परिचय का सिलसिला भी कभी नहीं बना… फिर भी बतौर पत्रकार मैं भावनात्मक रुप से जुड़ा रहा… सफरनामा दिवाकर मुक्बिोध
छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता के आधार स्तंभों में से एक दिवाकर जी… ने पत्रकारिता को पढ़ा है, जिया है और अब भी जी रहे हैं… वे अपना सफ़रनामा लिख रहे हैं… कुछ यादें कुछ बातें-9
#आलोक तोमर के बहाने : आलोक तोमर को मैं व्यक्तिगत रुप से नहीं जानता. औपचारिक परिचय का सिलसिला भी कभी नहीं बना. हालांकि वे एकाधिक बार रायपुर आए पर खुद का परिचय देने के अजीब से संकोच की वजह से उनसे कभी नहीं मिल पाया किंतु बतौर पत्रकार मैं भावनात्मक रुप से उनसे काफी करीब रहा. पता नहीं इस दृष्टि से वे मुझे कितना जानते थे, किंतु मैं यह मानकर चलता हूं कि वे मुझे इतना तो जानते होंगे कि मैं उन्हीं की बिरादरी का हूं, हमपेशा हूं. -दिवाकर मुक्तिबोध
बहरहाल इस बात का अफसोस बना रहेगा कि मैं एक प्रखर व तेजस्वी पत्रकार से रुबरु नहीं हो पाया. मैं उनकी प्रतिभा का उस समय से कायल था जब उन्होंने जनसत्ता, नई दिल्ली में कदम रखा था. निश्चय ही अपनी रिपोर्टिंग एवं विश्लेषणात्मक लेखों के जरिए जिन पत्रकारों ने अत्यल्प समय में अपनी राष्ट्रीय पहचान बनाई उनमें आलोक तोमर महत्वपूर्ण थे.
प्रभाष जोशी ने न केवल उनकी प्रतिभा को पहचाना बल्कि उन्हें उडऩे के लिए पूरा आकाश भी दिया. आलोक तोमर ने उनके विश्वास का कायम रखा लेकिन बतौर प्रभाष जोशी वे और भी आगे बढ़ सकते थे. जनसत्ता में अपने विख्यात स्तंभ ‘कागद कारे’ में उन्होंने एक बार अपने उन सहयोगियों का जिक्र किया हैं जिनमें अटूट संभावनाएं थी किंतु उन संभावनाओं को ‘पॉलिटिक्स एंड ब्यूरोक्रेसी’ का ग्रहण लग गया. आलोक तोमर भी इनमें से एक थे.
दरअसल प्रभाष जोशी जी ने जो बात संकेतों के रुप में कही, उसका आशय यही था कि आलोक एवं जनसत्ता के कुछ अन्य युवा पत्रकार अंतत: व्यवस्था का दबाव बर्दाश्त नहीं कर सके.और पथभ्रष्ट हो गये। उन्होंने राजनीतिक परिस्थितियों के साथ समझौता कर लिया। यदि वे ऐसा न करते, दृढ़ता दिखाते और दिग्भ्रमित न होते हुए तो यकीनन बहुत ऊंचे जाते. फिर भी यह तो मानना पड़ेगा कि आलोक तोमर ने बहुत यश कमाया.
चूंकि आलोक से मेरा सीधा परिचय नहीं था अत: उनके व्यक्तित्व एवं सामाजिक सरोकारों पर टिप्पणी करना उचित नहीं होगा किंतु यह जरुर कह सकता हूं कि युवा पत्रकारों की बिरादरी में वे बिरले थे. उनकी कलम में गज़ब का ओज़ एवं समदृष्टि थी जिसके बल पर वे बेबाकी से घटनाओं की चीरफाड़ किया करते थे.
वे भूसे में से भी सुई ढूंढ निकालने की कूव्वत रखते थे. जनसत्ता सहित यत्र-तत्र प्रकाशित उनकी रिपोर्टस इस बात की गवाह है कि ऐसी कई सुइयां उन्होंने ढूंढ़ निकाली और खोजी पत्रकारिता में नये आयाम स्थापित किए. निश्चय ही उनके न रहने से प्रिंट मीडिया में ऐसी स्तब्धता छा गई है कि इससे उबरने में वक्त लगेगा. जब कभी मीडिया के सौंदर्यशास्त्र पर चर्चा होगी, आलोक तोमर सम्मान के साथ याद किए जाएंगे.
यहां आलोक तोमर के बहाने मीडिया के सामाजिक दायित्व एवं उसके प्रति समाज के दृष्टिकोण पर केंद्रित कुछ मूलभूत बातों पर चर्चा करना जरुरी प्रतीत होता है.
यह भयानक त्रासदी है कि शब्दों के साथ जीने-मरने वाले बहुत जल्द भुला दिए जाते हैं. यह कहा जाता है, और इसके प्रत्यक्ष प्रमाण भी है कि व्यक्तिश: कीर्ति मौत के बाद हासिल होती है. वे लोग सचमुच भाग्यवान है कि जिनके जीते जी उनके कार्यों का मूल्यांकन हो जाता है और वे इतिहास पुरुष का दर्जा पा लेते हैं. यद्यपि ऐसे लोग काफी कम होते हैं और पर होते जरुर हैं.
साहित्य, कला और संस्कृति सहित विभिन्न विधाओं में तकरीबन एक जैसी स्थिति है. सिर्फ मीडिया ही एक मात्र विधा है जहां बीते हुए कल को याद नहीं किया जाता. न लेखन को, न व्यक्ति को. जबकि साहित्य की तरह पत्रकारिता में भी स्थायी भाव होता है. यानी छपे हुए शब्दों की दुनिया का एक ऐसा हिस्सा जो सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों एवं घटनाक्रमों से हमें परिचित कराता है तथा भविष्य का संकेत भी देता है.
प्रख्यात कवि विनोद कुमार शुक्ल ने मेरी किताब ‘ इस राह से गुजरते हुए ‘ की भूमिका में लिखा हैं – ”अखबार का सब कुछ लिखा हुआ, दूसरे दिन रद्दी नहीं होता और अखबार का कुछ लिखा हुआ ऐसा जरुर होता है जो कभी रद्दी नहीं होता”. मीडिया के महत्व को रेखांकित करने वाले विनोद कुमार शुक्ला अकेले नहीं है.
समूचा समाज मीडिया को लोकतंत्र के संवाहक के रुप में सम्मान की दृष्टि से देखता है लेकिन समाज में मीडिया की इतनी महत्वपूर्ण उपस्थिति के बावजूद आमतौर पर मीडिया अध्येताओं को वह स्थान हासिल नहीं है जो साहित्य, कला, संस्कृति एवं सामाजिक सरोकारों से जुड़े मनीषियों को हासिल है. क्या वजह है इसकी? क्या महज इसलिए कि अखबारों में छपे शब्द अगले दिन बासी हो जाते है? किंतु बासी का भी तो अपना महत्व है.
छत्तीसगढ़ में ग्रामीणों का मुख्य आहार है बासी भात. स्वाद के साथ-साथ पौष्टिकता से भरपूर. खैर, यह तो क्षेत्र विशेष की बात हुई पर मूल कारण है पत्रकारिता पर तात्कालिकता का प्रभाव. लेकिन जैसा कि विनोद जी ने लिखा है ‘समय का इतिहास हमेशा होता है चाहे वह इतिहास में दर्ज हो या नहीं. अवशेष या खंडहर के रुप में उसकी उपस्थिति हो जाती है.
समाचार पत्र तत्काल एवं त्वरित होकर एक दिनांक में दर्ज होता है, यह घटना एक दिन की दिनचर्या है या दिनचर्चा की घटना है. और इसके साथ ही विशेष जुड़ाव होता है. लेकिन इस विशेष जुड़ाव के बावजूद यह हैरत की बात है कि कार्यक्षमता की उम्र खो चुके अथवा जिंदगी से ही विदा हो चुके कलम के ये सिपाही गुमनामी के अंधेरे में पड़े रहते हैं.
करीब पौने दो सौ साल के भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में कितने ऐसे पत्रकार हैं, जिनके योगदान की चर्चा होती है? पत्रकारिता दिवस पर याद किए जाने वाले पत्रकार इने-गिने है, वे भी प्राचीन. मसलन गणेशशंकर विद्यार्थी, बाबूराव विष्णु पराड़कर, माखनलाल चतुर्वेदी, माधवराव सप्रे सहित कुछ और. आधुनिक पत्रकारिता के शीषस्थ भूले से भी याद नहीं किए जाते.
इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है कि छत्तीसगढ़ के एक वरिष्ठ पत्रकार एवं संपादक ने अपनी मौत की खबर जीवित रहते ही लिख ली, पीछे एक ही काम छोड़ा तारीख भरने का. मैं उन दिनों दैनिक भास्कर में था।दरअसल वे इस आशंका से ग्रस्त थे कि उनकी मौत की सूचना भी अखबारों में ठीक से छपेगी अथवा नहीं.
इसलिए सारा इंतजाम उन्होंने खुद किया. यह है मीडिया की आंतरिक निष्ठुरता जिसमें किसी अखबारनवीस से संबंधित खबरों को छापना गैरजरुरी और फालतू समझा जाता है. इसलिए यह माना जाना चाहिए कि मीडिया कर्मियों का केवल वर्तमान होता है, इतिहास नहीं.
लेकिन समाज इस बात को बेहतर समझता है कि मीडिया केवल बंद कमरे की खिड़कियों को नहीं खोलता बल्कि अंधेरे बंद कमरे में ऐसी रोशनी भी बिखेरता है जिसके माध्यम से समग्र विकास की राह आसान हो जाती है. लिहाजा रोशनी की मशाल थामने वाले पत्रकारों की कृतियों को भी उसी शिद्दत के साथ याद किया जाना चाहिए जैसा नामचीन कलाविदों, साहित्यकारों, संस्कृति कर्मियों, इतिहासविदों तथा अन्य विधाओं के पारंगतों को याद किया जाता है.
क्या देश-प्रदेश के मीडिया शिक्षा संस्थानों, पत्रकारिता विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में प्रखर पत्रकारों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केंद्रित सामग्री शामिल है? क्या प्रभाष जोशी पाठ्क्रमों में है? क्या राजेंद्र माथुर या मायाराम सुरजन रायपुर व भोपाल के पत्रकारिता विश्वविद्यालय में पढ़ाए जाते हैं?
हिन्दी, अंग्रेजी व अन्य प्रादेशिक भाषाओं के और भी अनेक ऐसे पत्रकार हैं जिन्होंने समाज को नई दिशा दी है. क्या वे इस लायक नहीं है कि उन्हें पाठ्यक्रमों से शामिल किया जाए? क्या पत्रकारिता के छात्र इनसे प्रेरणा नहीं ले सकते? उन्हें इस अधिकार से वंचित क्यों किया जा रहा है?
आलोक तोमर ने अपनी दीर्घ पत्रकारिता के दौरान क्या ऐसा कुछ नहीं लिखा जिससे मील का पत्थर माना जाए और जो पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपयोगी हो? जनसत्ता में सन् 1984 के दंगों की उनकी रिपोर्टिंग एवं पीडि़तों के दर्द का जैसा दृश्य उन्होंने खींचा क्या वह हृदयविदारक नहीं है और क्या उससे कुछ सीखा नहीं जा सकता?
पत्रकारिता पाठ्क्रमों में पत्रकारिता के उद्भव एवं विकास के नाम पर क्या पढ़ाया जाता? केवल कुछ नामों का उल्लेख, थोड़ा बहुत परिचय. लेकिन उनके रचनाकर्म पर अध्यापन की जरुरत नहीं समझी जाती. जबकि सर्वाधिक महत्वपूर्ण रचनाकर्म ही है जो समय, काल एवं परिस्थितियों का दस्तावेज होता है. अत: क्या नामों के उल्लेख मात्र से इतिहास के साथ न्याय हो पाता है?
दरअसल आज के वैचारिक अकाल की वजह से ऐसा है. मीडिया के शिक्षा संस्थान या ऐसे निजी संस्थाओं में जहां पत्रकारिता की शिक्षा व प्रशिक्षण की व्यवस्था है, एक विषय के तौर पर राजेंद्र माथुर, मायाराम सुरजन, प्रभाष जोशी, पी. साईनाथ सरीखे तेजस्वी पत्रकारों की संघर्षपूर्ण जीवन यात्रा व उनके महत्वपूर्ण चुनिंदा लेखों को शामिल किया जाना चाहिए.
इससे पत्रकारिता के छात्रों को न केवल अपने पूर्ववर्तियों को जानने-समझने का मौका मिलेगा वरन उनके लेखन से भी वे कुछ न कुछ ऐसा ग्रहण करेंगे जो उन्हें समर्थ पत्रकार बनाने में मददगार साबित होगा। जाहिर है इससे पत्रकारिता विश्वविद्यालय भी इस आक्षेप से बाहर निकालेंगे कि वे केवल डिग्रियां बांटते है, पत्रकार तैयार नहीं करते.
//30 सितंबर 2014// (अगला भाग बुधवार 26 अगस्त को)