सत्यजीत भट्टाचार्य – बस्तर में रंगकर्म के एक युग का अवसान
राजीव रंजन प्रसाद।
विनम्र श्रद्धांजलि
आप रचनात्मकता को कम से कम शब्दों में कैसे पारिभाषित कर सकते हैं? इस प्रश्न के लिये मेरा उत्तर है – सत्यजीत भट्टाचार्य। बस्तर की पृष्ठभूमि से रंगकर्म को आधुनिक बनाकर देश-विदेश में चर्चित कर देने वाले सत्यजीत अपने चर्चित नाम बापी दा से अधिक जाने जाते थे। वे अपने आप में नितांत जटिल चरित्र थे, चटखीले रंगों की टीशर्ट, भरे भरे बालों वाला सर और दाढी से ढका पूरा चेहरा; पहली बार की मुलाकात से आप न व्यक्ति का अंदाजा लगा सकते थे, न व्यक्तित्व का। यदि आपने अपनी ही धुन में रहने वाले इस व्यक्ति के साथ काम किया तो कुछ ही दिनों में आप पाते कि निर्देशक पीछे छूट गया और किसी फ्रेंड-फिलॉसफर-गाईड का जीवन में प्रवेश हो गया। आपके वे निर्देशक हैं, उससे क्या? आपके उपर अभी थोडी देर में चीखेंगे भी, उससे क्या? लेकिन आप फिर दिल खोल कर सामने रख दीजिये, आप हँसी मजाक कीजिये, किसी साथी की टांग खींचिये, चुगली कीजिये, गाली बकिये…आपकी जो मर्जी, क्योंकि बापीदा की उम्र घटती-बढती रहती थी। आपमें क्षमता है तो प्रतिपल आप उनसे कुछ न कुछ सीख सकते हैं और क्षमता नहीं है तो वे आपको सिखा कर ही दम लेंगे। उनकी निर्देशन शैली में आधुनिकता थी, नाटक निर्देशन को ले कर किसी शैली-विषेश के प्रति कोई मोह भी नहीं था। वे प्रयोग धर्मी थे तथा रास्ते पर गिरे पत्थर और किसी मुस्कुराती बुढिया से भी सीख लेते, फिर उसे अपने किसी पात्र में पिरो देते थे। एक मुस्कुराता हुआ चेहरा जिसे मैने कभी थका हुआ नहीं देखा, ऐसे थे बापी दा।
बापी दा की जन्म तिथि और वर्ष है 8 मई 1963; पिता का नाम श्री धीराज भट्टाचार्य तथा माता का नाम श्रीमति मीरा भट्टाचार्य। माता जी के नाम पर ही उनका स्टूडियो है जो उनका पता भी है – कुम्हार पारा, जगदलपुर। बापीदा की मातृभाषा बंगाली है साथ ही साथ उनका हिन्दी, ओडिया, असामी और अंग्रेजी के साथ साथ अंचल की छत्तीसगढी, हलबी और भतरी बोलियों में भी पर्याप्त दखल था। बापी दा रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर से स्नातक हुए हैं। सत्यजीत भट्टाचार्य केवल एक निर्देशक ही नहीं, वे मंच की हर आवश्यकता का समाधान भी थे। वे अभिनय भी कर लेते, प्रकाश संयोजन भी बेमिसाल करते; मंच सज्जा, संगीत संयोजन सभी में उनकी दक्षता अद्वितीय थी। वे बहुत अच्छे फोटोग्राफर थे, यह बात तो सभी जानते हैं किंतु उनके भीतर की रचनात्मकता का अंदाजा लगाईये कि उन्होंने काष्ठकला और मूर्तिकला में भी हाँथ आजमाया हुआ है, वृत्तचित्र भी बनाये हैं तो विज्ञापन फिल्मों का निर्देशन किया है। बहुत कम लोगों को जानकारी होगी कि मंचीय संवाद लिखने के साथ साथ बापीदा ने लेखन में भी हाँथ आजमाया हुआ है; टेलीप्ले ही नही अपितु लघुकथा विधा में भी। एक व्यक्ति के भीतर जैसे कई व्यक्ति छिपे हुए हैं; कई मष्तिष्क एक साथ काम करते हैं और यह उनके व्यक्तित्व में भी झलकता था; शायद यही उन्हें नाटकों के दृश्यबन्ध सोचने में सहायक भी होता था।
अपने प्रत्येक नाटक और हर दृश्य पर वे पूरी मेहनत करते तथा लेखक की कृति से न्याय करते हुए भी उसमे अपनी सोच डालने से नहीं चूकते। आपने बस्तर में 1960 से स्थापित मैत्री संघ में नाटक की बाकायदा ट्रेनिंग ली थी और यहीं से बस्तर का रंगमंच के क्षेत्र में नाम देश भर में प्रसारित कर रहे थे। आपने अभियान नाम से संस्था बनायी, जिसके तहत अनेकों नाट्य शिविरों तथा जनजागृति के कार्यों को प्रतिपादित किया गया। बापीदा को अनेकों पुरस्कार तथा सम्मान प्राप्त हुए हैं क्या और कितने इसकी गिनती उन्हें भी याद नहीं होगी तो मेरी क्या मजाल। उनके घर का पहला कमरा केवल प्राप्त पुरस्कारों की शील्ड से भरा पडा है। बापीदा ने अनेकों नाटक निर्देशित किये, कुछ प्रमुख का मैं उल्लेख कर रहा हूँ – अंधा युग, गाँधी, घेरा, कोरस, खुल्लमखुल्ला, अंधों का हाँधी, आदाब, राई-द स्टोन, मौजूदा हालात को देखते हुए, मशीन, इंसपेक्टर मातादीन चाँद पर आदि। आंचलिक बोलियों में आपके निर्देशित अंधार राज बैहा राजा, जीवना चो दंड, फंसलो बुदरू फांदा ने प्रमुख नाटक हैं। आपने बंगाली में भी कई नाटक निर्देशित किये। दूरदर्शन के लिये निर्देशित आपकी टेलीफिल्म हैं – भविष्यवाणी, केकडा चाल, उडान, आलू के पराठे, अंधार राज बैहा राजा। इन सबके बीच बापीदा समय निकाल लेते हैं राष्ट्रीय बाल विज्ञान कॉग्रेस के लिये जो विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय से सम्बद्ध है जिससे जुड कर आप पर्यावरण के लिये कार्य कर रहे थे।
बापी दा लम्बे समय से कैंसर से जूझ रहे थे। अपनी बीमारी के दौर में भी उनसे जब जब बात हुई जिंदादिली और आशावादिता से ही परिचय मिला, वे अपनी वेदना और पीडा कब किसी से साझा करते थे। निजी तौर पर मेरा सौभाग्य है कि मैने बापी दा के निर्देशन में काम किया, उन्होंने मेरे लिखे नाटक “किसके हाथ लगाम” का निर्देशन किया, यही नहीं उनके दिये कथानक पर मैंने नाटक “खण्डहर” लिखा था। यह सब बीते समय की बात हो गयी, आँखों के आगे अब वह जिंदादिल चेहरा रह गया है जिससे फिर कभी बात करना संभव न हो सकेगा। आज 27/09/2020 को प्रात: 1:30 बजे उन्होंने आखिरी सांस ली परंतु उनकी जिजीविषा अब भी है। बस्तर में जब जब भी रंगकर्म की बात होगी, वे रहेंगें। विनम्र श्रद्धांजलि बापी दा।
- राजीव रंजन प्रसाद फेसबुक वॉल से साभार