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सुलगते सिलगेर पर बाहरी हवा का दबाव… 

सुरेश महापात्र।

बस्तर के साथ अक्सर ऐसा ही होता रहा है। नक्सली और पुलिस यहां की दो धुरी है। जिनके इर्द-गिर्द समूचा सिस्टम संचालित होता रहा है। इस सिस्टम में पंचायत के सरपंच से लेकर जिला कलेक्टर तक शामिल हैं। पर जिन्हें सीधे तौर पर इस सिस्टम का हिस्सा होना चाहिए वे कहीं दिखते नहीं हैं। यानी बस्तर की जनता जिन्हें विधायक और सांसद चुनकर भेजती है वे नदारत रहते हैं। 

नक्सली यानी माओवादियों की सेंट्रल कमेटी से लेकर जन मिलिशिया जिन्हें माओवादियों की कथित जनताना सरकार के क्षेत्र का वाशिंदा तक शामिल है। 

पुलिस यानी समूची राज्य सरकार की ताकत जिसके पास बंदूक भी है और अधिकार भी। वह चाहे तो किसी ग्रामीण आदिवासी को माओवादी घोषित कर उसे किसी भी योजना का नाम देकर आत्मसमर्पित करवा दे। आत्मसमर्पण नीति का लाभ दे दे या ना भी दे।

चाहे तो गिरफ्तार कर किसी भी माओवादी हमले का मास्टर माइंड घोषित करवा दे। इनाम घोषित करवा दे, मुठभेड़ में मरवा दे या वह सब कुछ कर दे जो उसके बस में है। इतनी ताकत से वह कुछ भी कर सकती है।

इन दोनों के बीच बेहद महीन गुंजाइश के साथ भी बड़ी संख्या में आदिवासी फंसे हुए हैं। ये आदिवासी मतदाता हैं वे विधायक और सांसद चुनते हैं। पुलिस-नक्सली की गोलियों से मारे जाते हैं।

थाना खुले या कैंप सबसे पहले वे ही निशाने पे होते हैं वो भी दो तरफा। फोर्स कैंप से निकलती है तो सबसे पहले वे जद में होते हैं। फोर्स किसी माओवादी कैंप को ध्वस्त करती है या अटैक करती है या किसी ऑपरेशन में माओवादी मारे गए तो ये जनअदालत में बंदूक के सामने डरी सहमी भीड़ का हिस्सा होते हैं उनकी मौजूदगी में माओवादियों के मुखबिरी के आरोप पर सजा भी भोगते हैं। कई बार बेमौत मारे भी जाते हैं।

यही वे लोग हैं जो प्रधानमंत्री की सभा के लेकर मुख्यमंत्री के विकास यात्रा में भीड़ का हिस्सा होते हैं। माओवादियों की रैली से लेकर राजनीतिक प्रचार अभियान में भी शामिल होते हैं। इनमें फरक करना असंभव है। यही बस्तर की मूल समस्या है। पुलिस को गोली से मारे जाने पर माओवादी और माओवादी के गुस्से का शिकार होने पर मुखबिर हो जाता है। 

सुकमा जिले के सरहदी इलाके सिलगेर में फोर्स के कैंप के खिलाफ 21 वां दिन है। भीड़ बढ़ती जा रही है। भीड़ को ताकत देने वाली बाहरी हवा तेज होती जा रही है। तीन ग्रामीण गोली से मारे गए। एक गर्भवती महिला भीड़ में कुचले जाने के बाद उपचार के दौरान गर्भ में पल रहे शिशु के साथ मारी गई। आरोप तो पुलिस या नक्सली किसी एक पक्ष को स्वीकार करना ही होगा।
यदि मौतें हुई हैं तो कानूनन अपराध हुआ है। अपराध हुआ है तो निश्चित तौर पर अपराधी भी तय होना चाहिए।

यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह या तो जिम्मेदारी ले या दूसरे पक्ष पर थोप दे। पर इस मामले में सरकार अब यह करने की स्थिति में ही नहीं है। फोर्स का कैम्प हटाने की एक सूत्रीय मांग भीड़ कर रही है। यानी जो मारे गए हैं उन्हें लेकर आंदोलित भीड़ का कोई स्पष्ट एजेंडा नहीं है। वहां मृतकों के साथ न्याय की कीमत पर कैंप हटाने की मांग महत्वपूर्ण है। 

यानी आदिवासियों की मौतों के बहाने फोर्स को पीछे हटने के लिए दबाव बनाने की रणनीति पर सीधे काम हो रहा है। आंदोलन को वैचारिक हवा देने के लिए वामपंथी विचार के एक्टिविस्ट सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। यह वही बाहरी हवा है जो आंदोलित भीड़ को दिशा दिखा रही है। यानी उस पक्ष के साथ है जो जनसरोकार की आड़ में अपनी दुकान चलाया करते हैं। 

पुलिस की गोलियों से मौत की वजह सिलगेर में सुरक्षा बलों का कैंप स्थापित करना मात्र है। कैंप की स्थापना उस सड़क को पूरा करने के लिए है जिससे बस्तर के दो जिलों को सीधा पक्की सड़क ये जोड़ा जा सके। यह वही इलाका है जिसे माओवादियों की राजधानी कहा जाता रहा है। जिस पर बीते दो दशक से माओवादियों ने पूरी तरह से अपने कब्जे में कर रखा है।

इस इलाके में सरकार की मौजूदगी का मतलब उनका सिमटना तय है। यही वजह है कि सिलगेर कैंप को हटाने को लेकर खुली लड़ाई चल रही है। यदि आंदोलित ग्रामीण केवल मृतकों के परिजनों को मुआवजा, गोली चालन के आरोपी पर कानूनी कार्रवाई की मांग करते तो राह आसान हो सकती थी पर जमीन पर ऐसा होना संभव नहीं है। क्योंकि माओवादी कैम्प हटाने से कम में मानने से रहे।

आंदोलन में ग्रामीणों की भीड़ लगातार बढ़ रही है। इसकी वजह बाहरी हवा का दबाव है। जो पर्दे के पीछे माओवादी एजेंडा से कम में समझौता होता देख ही नहीं सकती। क्योंकि ये लोगों की मौत से पेशा कानून, पांचवी अनुसूची जैसे मुद्दों को लेकर सरकार को घेरने की जुगत में हैं। कैंप की स्थापना में यह कानून कितना बाधक है यह तो कहीं साफ नहीं है। फोर्स का कैम्प कोई फैक्टरी तो नहीं है जिसकी स्थापना के लिए इन कानूनी प्रक्रिया का पालन किया जाए। 

फिर भी मेरी राज्य सरकार से मांग है कि वह पहले अपराध पंजीबद्ध करे। ताकि मृतकों की न्याय की दिशा में पहला कदम तो साफ दिखाई दे…

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