भाजपा की नयी कवायद पुराने हटेंगे नये आएंगे…
Getting your Trinity Audio player ready...
|
दिवाकर मुक्तिबोध।
छत्तीसगढ़ विधानसभा के इसी वर्ष नवंबर में प्रस्तावित विधानसभा चुनाव के संदर्भ में काफी समय से यह चर्चा है कि भारतीय जनता पार्टी अधिकांश सीटों पर नये चेहरों को मौका देगी। विधानसभा में सीटों की कुल संख्या 90 है और वर्तमान में भाजपा के केवल 14 विधायक हैं।
इन 14 विधायकों में हर किसी को पुन: टिकिट मिल ही जाएगी ,कहना मुश्किल है। यानी इनमें से भी कुछ का पत्ता कटने की संभावना है। शेष 86 सीटों में अधिकांशतः नये चेहरे होंगे अलबत्ता उन प्रत्याशियों पर पुनः दांव आजमाया जा सकता है जो पिछले चुनाव में बहुत कम वोटों से पराजित हुए थे। ऐसे प्रत्याशी तो कुछ निश्चिंत हैं लेकिन अन्य दावेदारों के मन में खासी उथलपुथल मची हुई है।
टिकिट न मिलने पर क्या उनका असंतोष बगावत के रूप में सामने आ सकता है जैसा कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव में देखने में आया है? छत्तीसगढ़ में भी इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकती। कर्नाटक में मतदान 10 मई को है। टिकिट न मिलने पर पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार एवं पूर्व उप मुख्यमंत्री लक्ष्मण सावदी सहित अनेक नेता कार्यकर्ता पार्टी छोड़कर जा चुके हैं।
छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ आदिवासी नेता नंद कुमार साय ने अभी दो दिन पूर्व ही पार्टी छोड़ दी है पर उसका मुख्य कारण आगामी विधानसभा या लोकसभा चुनाव की टिकिट नहीं, निरंतर की जा रही उपेक्षा एवं मुख्य धारा से बाहर खदेड़ने की कथित साजिश है। साय पांच बार के सांसद, तीन बार के विधायक, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष तथा छत्तीसगढ़ विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रह चुके हैं। उनके इस्तीफे से वरिष्ठों में पनप रहे असंतोष को समझा जा सकता है।
दरअसल छत्तीसगढ़ में भाजपा बदलाव के दौर से गुज़र रही है। इसलिए ऐसा नहीं लगता कि कुछ वयोवृद्ध पेड़ों के गिरने से उसकी मुहिम पर कोई असर पडे़गा। दरअसल वह इस बार कुछ वरिष्ठ नेताओं को टिकिट न देकर उनका उपयोग स्टार चुनाव प्रचारक के रूप में करना चाहती हैं।
चुनाव के सम्पन्न होने के बाद उनके लिए संगठन मे कोई भूमिका तलाश की जाएगी। जो इसे कबूल नहीं करेंगे, उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया जाएगा। वैसे भी उम्रदराज व चुके हुए नेताओं के लिए केंद्रीय नेतृत्व ने परामर्श मंडल बना रखा है जिनके परामर्श की पार्टी को जरूरत नहीं पड़ती। किसी समय के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी व कुछ अन्य परामर्श मंडल को सुशोभित कर ही रहे हैं। उन्हें एकदम अलग-थलग करने के बजाए पार्टी ने यह व्यवस्था बनाई ताकि उनका सम्मान बना रहे।
कुछ ऐसी ही स्थिति छत्तीसगढ़ भाजपा में संभावित है। यहां विधिवत परामर्श मंडल भले ही न बनें पर जिन नेताओं की उपयोगिता बढ़ती उम्र तथा जनता के बीच पैठ की दृष्टि से कमतर हो चुकी है, उन्हें राजनीति की मुख्य धारा से बाहर करना तयशुदा है। इसीलिए जब से भाजपा की राजनीति में यह ध्वनि सुनाई दे रही है कि विधानसभा चुनाव में नये चेहरों को टिकिट में प्राथमिकता दी जाएगी, पुनः टिकिट चाहने वाले पुराने चेहरे उड़े-उड़े हुए हैं। आशंकित हैं, परेशान हैं।
चुनाव टिकिट के मामले में भाजपा कांग्रेस के मुकाबले अधिक प्रयोगधर्मी रही हैं। गत लोकसभा चुनाव में भी छत्तीसगढ़ ने देखा था कि पार्टी ने प्रायः सभी पुराने बल्ब बदल दिए थे और नयों को चुनाव क्षेत्र में उतार दिया था। उसके इस फैसले को आश्चर्य और अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मारने की दृष्टि से देखा गया था क्योंकि एक वर्ष पूर्व ही 2018 में राज्य विधानसभा के चुनाव हुए थे जिसमें भाजपा की पंद्रह वर्षों की सत्ता खत्म करके कांग्रेस प्रचंड बहुमत से विजयी हुई थी। लिहाज़ा उम्मीद की जा रही थी कि कांग्रेस लोकसभा चुनाव में भी बेहतर करेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
नये लोगों को टिकिट देकर भाजपा ने जो दांव चला था, वह कामयाब रहा। लोकसभा चुनाव के परिणामों से साबित हो गया कि पार्टी का निर्णय सही था। लोकसभा की 11 में से नौ सीटें भाजपा ने जीत ली थीं। अब यहीं फार्मूला इसी वर्ष छह महीनों बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में लागू किया जाना तय माना जा रहा है। इसके लिए चेहरे चुनने की मशक्कत शुरू हो चुकी है।
भाजपा अपने इस संकल्प पर पूरा जोर लगा रही है कि छत्तीसगढ़ की मौजूदा राजनीतिक तस्वीर बदलनी चाहिए। इसके लिए पंचायत स्तर पर नेताओं व कार्यकर्ताओं को गतिशील बनाने एवं उनमें विश्वास जगाने का अभियान जोरशोर से जारी है।
यह संकल्प पूर्ण होगा अथवा नहीं ? भाजपा सत्ता की दहलीज पर पहुंच जाएगी या नहीं, इस बारे में गहरा संदेह है। प्रदेश का वर्तमान राजनीतिक वातावरण , मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की जनता के बीच गहरी पकड़ एवं उनकी ठेठ छत्तीसगढ़िया छवि को देखते हुए यह तय प्रतीत होता है कि भाजपा के लिए इस बार भी अंगूर खट्टे रहने वाले हैं। ऑफ द रिकॉर्ड बातचीत में खुद भाजपाई भी इस संभावना को स्वीकार करते हैं।
सांगठनिक रूप से कमजोर प्रदेश भाजपा की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उसके पास कोई प्रादेशिक चेहरा नहीं हैं जो चुनावी दंगल में भूपेश बघेल का मुकाबला कर सके। वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा सामने रखकर चुनाव लड़ने वाली है जिसकी घोषणा पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह काफी पहले कर चुके हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में भी मोदी के नाम पर वोट मांगें गए थे, उसका क्या हश्र, हुआ ,आंकड़ों से जाहिर है जबकि उस समय रमन सिंह मुख्यमंत्री थे। लेकिन भरोसा प्रधानमंत्री मंत्री मोदी व गृहमंत्री अमित शाह पर जताया गया।
हालांकि उस समय स्थितियां अलग थीं तथा सरकार विरोधी हवा जोरों पर थी। लिहाज़ा परिणामों पर इसका बड़ा असर हुआ। इस बार कांग्रेस सरकार के खिलाफ भी हवा चल सकती है पर उसकीं काट स्वयं मुख्यमंत्री भूपेश बघेल हैं जिन्होंने छवि के मामले में ग्रामीण छत्तीसगढ़ में इतनी ऊंचाइयां हासिल कर ली है जो किसी भी तरह के नुकसान की भरपाई करने में समर्थ हैं।
प्रदेश भाजपा की कमान अरूण साव के हाथ में हैं। एकदम नया चेहरा जिसकी जननेता के रूप में छत्तीसगढ़ में फिलहाल पहचान नहीं है। दरअसल पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने चुनाव के पूर्व संगठन में व्यापक फेरबदल करके संकेत दिया था कि उसका फोकस केवल विधानसभा चुनाव ही नहीं 2024 के लोकसभा चुनाव पर भी है। वर्षों से संगठन में जमें हुए नेताओं एवं विधायकों के स्थान पर पिछली पंक्ति के नेताओं व कार्यकर्ताओं को फ्रंट फुट पर लाने की प्रक्रिया के तहत ही उन नेताओं व कार्यकर्ताओं पर दांव आजमाया जा रहा है जो वर्षों से एकनिष्ठ होकर पार्टी का काम कर रहे हैं।
केंद्रीय नेतृत्व धीरे-धीरे किनारे किए जा रहे वरिष्ठ नेताओं की मन:स्थिति को समझ रहा है लिहाज़ा उनकी आशंकाओं को खारिज करने के लिए 8 एप्रिल को राजधानी में आर एस एस के महत्वपूर्ण पदाधिकारियों व वरिष्ठ भाजपा नेताओं की जो बैठक हुई थी , उसमें स्पष्ट किया गया कि किसी भी वरिष्ठ की उपेक्षा नहीं की जाएगी तथा उन्हें चुनाव में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी जाएगी।
वरिष्ठों को भविष्य के प्रति आश्वस्त करने एवं उनमें ऊर्जा भरने की इस कवायद से यह संकेत मिलता है कि संघ भी चुनाव अभियान में भाजपा को ताकत देता रहेगा। स्मरणीय है कि रमन सरकार से नाखुश संघ ने पिछले चुनाव में स्वयं को प्रचार अभियान से अलग कर लिया था। लेकिन इस बार प्रदेश संगठन में जिला स्तर पर पदाधिकारियों की नियुक्ति के मामले में भी संघ की भूमिका रही है।
बहरहाल यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि अभी मुख्य धारा में बने हुए बहुत से भाजपा नेताओं का प्रचार की दृष्टि से यह अंतिम चुनाव हो सकता है जिसमें उनकी कोई भूमिका हो सकती है। प्रदेश की राजनीति में इस संदर्भ में काफी समय से जो नाम चर्चा में हैं उनमें प्रमुख हैं- डॉक्टर रमन सिंह, ननकीराम कंवर, बृजमोहन अग्रवाल, प्रेमप्रकाश पांडे, सरोज पांडे ,अमर अग्रवाल इत्यादि।
इस बीच लंबे समय से किनारे लगाए जा चुके प्रदेश भाजपा के वरिष्ठ आदिवासी नेता नंद कुमार साय का दो दिन पूर्व , 30 एप्रिल को दिया गया इस्तीफा पार्टी के लिए किसी बड़े झटके से कम नहीं है। उनका जाना इसलिए भी चिंताजनक है क्योंकि पिछले चुनाव में राज्य की 29 अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटों पर पार्टी का कोई भी प्रत्याशी जीत नहीं सका था।
लिहाज़ा भाजपा को अब इन क्षेत्रों में आदिवासी वोटों का विश्वास जीतने के लिए अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना होगा क्योंकि प्रदेश की सत्ता इन्हीं वोटों से गुज़रते हुए राजधानी पहुंचती है। साय के इस्तीफे से वरिष्ठों के प्रति पार्टी को अपने नजरिए पर भी विचार करना होगा। मिसाल के तौर पर रमन सिंह अभी राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं। चर्चा रही है कि उन्हें राज्यपाल का पद देने व बृजमोहन अग्रवाल को संगठन में अवसर देने का प्रस्ताव काफी पहले ही दिया जा चुका था जिसे दोनों ने व्यक्तिगत कारण बताते हुए स्वीकार नहीं किया था। दोनों छत्तीसगढ़ की राजनीति से स्वयं को पृथक करने की मन:स्थिति में नहीं है।
ऐसी स्थिति में उन्हें तथा 70 पार के नेताओं को संतुष्ट रखना पार्टी के लिए चुनौती। प्रदेश के एक बड़े नेता रमेश बैस अभी महाराष्ट्र के राज्यपाल है। कार्यकाल समाप्ति के बाद उनका भी मुख्य धारा से बाहर होना तय माना जा रहा है। 77 साल के नंद कुमार साय भी इसी स्थिति में थे।
अगर वे कांग्रेस में नहीं जाते तो भाजपा में उनका वनवास और अधिक गहराता। कुल मिलाकर भाजपा में जो कवायद चल रही है वह छत्तीसगढ़ में भविष्य की राजनीति को ध्यान में रखते हुए हैं। एक तरह से यह नेताओं की एक पीढ़ी का दूसरी पीढ़ी को राजनीतिक विरासत के हस्तांतरण जैसा है। संगठन इससे कितना मजबूत होगा, यह अगले चुनावों में स्पष्ट हो जाएगा।
- लेखक छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।