माओवादी हमलों को लेकर सभी की बेसुधगी ही हादसों का असल सबब…
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सुरेश महापात्र।
हर हादसे के बाद दुख का सैलाब और आरोपों की झड़ी के बीच भावी माओवादी हमलों को लेकर सभी की बेसुधगी ही हादसों का असल सबब है। आप मौतों के बाद मातम तो मना सकते हैं… कड़ी कार्रवाई और कड़ी निंदा जैसे शब्दों का प्रयोग तो कर सकते हैं पर ऐसे हमलों को स्थाई तौर पर रोकने का इंतजाम तभी कर सकते हैं जब सुरक्षा मानकों के पालन में कोताही कतई ना की जाए…!
बीते 26 अप्रेल को माओवादियों के IED ब्लास्ट की जद में आने से अरनपुर इलाके में आपरेशन के लिए निकले जिला रिजर्व बल (DRG) के 10 जवान शहीद हो गए। वहीं एक नागरिक वाहन चालक भी इस हमले में मारा गया। इस हमले के बाद एक बार फिर बस्तर में माओवादियों के हमलों को लेकर चिंता और चिंतन का नया दौर चल रहा है। बीते लंबे अरसे से इस तरह की IED ब्लास्ट से किसी बड़े नुकसान की खबर से बस्तर बचा रहा। इस हालिया घटना के बाद एक बार फिर माओवादी मोर्चे पर राज्य, केंद्र और सुरक्षा बलों की रणनीति को लेकर चर्चा चल रही है।
बस्तर के साथ ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ है। पर किसी भी हमले के बाद होने वाली बहस कुछ दिनों बाद ठंडी पड़ जाती है। जिनके घर से शहादत के बाद अर्थियां निकलती है वे दुख की असीम पीड़ा को लंबे समय तक झेलते हैं। किसी का पति, पिता, भाई, बेटा ऐसे हमलों के बाद केवल यादों में रह जाता है। अरनपुर हमले के बाद आने वाली कई तस्वीरों ने बुरी तरह झकझोरा है। कासोली में अपने पति की लाश पर खुद को खत्म करने की कोशिश करती उस शहीद की बेवा के मर्म को कौन समझे? इस बार हमले में मारे गए सारे जवान आदिवासी हैं।
मीडिया रिपोर्ट में बताया जा रहा है कि बस्तर आईजी पी सुंदरराज ने जनवरी महीने में ही सुरक्षा बलों को अलर्ट रहने की चेतावनी दे दी थी। उन्होंने माओवादियों की टीसीओसी रणनीति का खुलासा करते हुए सर्तकता बरतने की सलाह सभी पुलिस अधीक्षकों को दी थी। केंद्रीय और राज्य की खुफिया पुलिस भी समय—समय पर चेतावनी जारी करती है। उनकी चेतावनी कितनी कारगर होती है यह अब तक समझ नहीं आ सका है।
बस्तर में सड़क पर बड़ी गाड़ियों में चलना सुरक्षा बलों के लिए बेहद खतरनाक रहा है। ऐसे कई हादसे इस बात का गवाह हैं जब ऐसी गाड़ियों में आपरेशन करने निकली और लौटती फोर्स आइईडी ब्लास्ट का शिकार हुई है। माओवादियों की गुरिल्ला वार रणनीति में आइईडी ब्लास्ट सबसे घातक हथियार साबित हुआ है। ब्लास्ट के बाद कवर फायर मिलने से माओवादियों को हथियार लुटने का मौका नहीं मिल पाता है। इस बात का प्रमाण भी इस हमले के दौरान सुरक्षाबलों के वाहन चालक द्वारा बनाया गया विडियो है।
अरनपुर का इलाका बेहद संवेदनशील माओवादियों के प्रभावक्षेत्र में आता है। यहां अरनपुर से जगरगुंडा की सड़क पर करीब डेढ़ दशक बाद आवाजाही शुरू हो सकी है। इस सड़क को बनाने में भी जवानों की शहादत शामिल है। इसी सड़क पर बिना किसी सुरक्षा प्रावधान के डीआरजी जवानों का साधारण वाहनों में सवार होकर लौटना सुरक्षा की चूक से ज्यादा कुछ भी नहीं है।
दिसंबर 2004 की बात है तब बस्तर में माओवादियों से निटपने के लिए माइन प्रोट्रेक्टर व्हीकल की पहली गाड़ी को नारायणपुर के पास माओवादियों ने लैंडमाइन से उड़ाने की कोशिश की थी। तब इस वाहन को ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचा और उसमें सवार 17 जवान सकुशल कैंप वापस लौट सके थे। इस हमले में माओवादियों ने करीब दस किलो बारुद का इस्तेमाल किया था। एक प्रकार से केंद्रीय सुरक्षा बलों का अपने माओवादियों से निपटने के लिए इस युद्ध क्षेत्र में यह प्रयोग सफल प्रतीत होता दिखा। उस समय कुल चार एमपीवी बस्तर में लाए गए थे। जिनका उपयोग सशस्त्र बल सर्चिंग और आपरेशन के लिए करता था।
करीब चार महीने बाद 17 अप्रेल की सुबह बीजापुर से बासागुड़ा मार्ग पर पोंजेर गांव के पास एक ब्लास्ट की खबर दंतेवाड़ा पहुंची। तब दंतेवाड़ा जिला के अंर्तगत बीजापुर और सुकमा भी शामिल थे। मौके पर जब हम पहुंचे तो दृश्य भयावह था। एंटी लैंड माइन व्हीकल के नाम से प्रचलित इस वाहन के दो टुकड़े एक—दूसरे से बहुत दूर गिरे पड़े थे। इसमें सवार सीआरपीएफ के 22 जवान मारे गए थे। यह पहला मौका था जब माओवादियों ने अपने दूसरे ही प्रयोग में सुरक्षा बलों के सर्चिंग आपरेशन के दौरान सुरक्षित किले को भेद दिया।
एमपीवी के टुकड़े दूर—दूर तक फैले हुए थे। जवान एमपीवी के भीतर अपने ही हथियारों से उलझकर मारे गए थे। 12 जवानों की क्षमता वाली इस गाड़ी में तब 22 जवान सवार थे। आज से करीब 18 बरस पहले 2005 में मोबाइल फोन स्मार्ट नहीं थे। तस्वीरों के लिए कैमरा का इस्तेमाल होता था। तब नोकिया 6600 के मॉडल में कैमरा करीब कुछ किलोबाइट की तस्वीर लेने में सक्षम था। मेरे पास यही फोन था जिससे मैने तस्वीर ली थी।
मौके पर पहली बार इस तरह का हाल देखने की नौबत आई थी। 22 जवानों के लिए उनका सुरक्षा कवच ही ताबूत में तब्दील हो चुका था। प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया कि एमपीवी करीब 35 फीट उपर उछला था वहां से वह जब नीचे गिरा तो जवानों को बचने का मौका ही नहीं मिला। इस वाहन में कमांडिंग आफिसर भी सवार थे वे सामने वाली सीट पर बैठे थे। वे इकलौते थे जो बच गए। उन्होंने बड़ी बहादुरी के साथ माओवादियों से लोहा लिया। हथियार लूट ले जाने से बचाने में कामयाब रहे।
इस घटना के बाद छत्तीसगढ़ सरकार ने माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर और पीपुल्स वार ग्रुप के विलय से गठित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) पर प्रतिबंध लगाने के लिए एक अध्यादेश जारी किया। तब राज्य के गृहमंत्री रामविचार नेताम थे। छत्तीसगढ़ के गृह मंत्री राम विचार नेताम ने बस्तर में स्थिति को “युद्ध जैसी” करार देते और नक्सलियों से लड़ने के लिए अतिरिक्त सुरक्षा बलों की केंद्र से की मांग की। इस घटना के बाद राज्य सरकार के अधिकारियों ने कहा कि नक्सल विरोधी अभियान खुफिया आधारित और सर्जिकल प्रकृति के होंगे।
पोंजेर हादसे के बाद नक्सली हिंसा से प्रभावित नौ राज्यों के बीच नक्सल विरोधी अभियानों के समन्वय के लिए स्थापित उच्च स्तरीय रणनीतिक नीति समूह ने खतरे से निपटने के लिए एक एकीकृत रणनीति की सिफारिश की थी। इसके बाद विस्फोट और हादसों का एक पूरा सिलसिला इतिहास मे दर्ज है। समूचे बस्तर में कोई ऐसी सड़क अब बची नहीं है जहां माओवादियों ने लैंडमाइन ब्लास्ट कर सुरक्षा बलों को नुकसान ना पहुंचाया हो।
पूर्व भाजपा सरकार ने माओवादियों से निपटने के लिए पंजाब के आंतकवाद से लड़ने वाले योद्धा केपीएस गिल को सुरक्षा सलाहकार तक नियुक्त किया। गिल की सलाह पर बस्तर की सभी सड़कों के दोनों ओर नालियां खोदकर आईईडी के लिए बिछाए गए तार को तलाशने और नष्ट करने का काम भी बड़े पैमाने पर किया गया। इन सब प्रयासों का प्रभाव कितना पड़ा यह तब सवाल बन जाता है जब एक और ब्लास्ट के बाद जवानों की शहादत पर चिंतन का दौर चलता है।
25 मई 2013 को दरभा—झीरम घाट पर कांग्रेस के काफिले में माओवादियों ने जो हमला किया इसमें भी सबसे पहले घाट पर आइईडी ब्लास्ट कर एक वाहन को उड़ाया। इसमें सवार छह आम नागरिक मारे गए। इस ब्लास्ट के बाद ही पीछे से आ रहे काफिले की सभी गाड़ियां फंसकर रह गई और माओवादियों ने घेरकर घटना को अंजाम दिया। यह नेशनल हाईवे का सबसे व्यस्त मार्ग है।
बावजूद इसके यहां माओवादियों ने अपने एंबुश को सफलता से अंजाम दिया। महज 10 महीने बाद 11 मार्च 2014 को इसी मार्ग पर थोड़ी ही दूरी पर टाहकावाड़ा माओवादियों ने एक बार फिर अटैक किया। इसमें 15 जवान शहीद हुए। इसके एक माह बाद 12 अप्रेल 2014 को दरभा घाट पर ही हमला किया इसमें 5 जवान और नौ आम नागरिक मारे गए।
सच्चाई तो यही है कि नक्सलियों के खिलाफ हो रही कार्रवाईयों में रणनीतिक चूक लगातार हो रही है। और सरकार का रवैया केवल बयानों से खानापूर्ति तक ही दिखाई देता रहा है। हमले में हो रहा नुकसान सुरक्षा एजेंसियों की घोर लापरवाही की ओर इंगित कर रहा है। इसके कारणों को बड़ी बारीकी के साथ समझने और उसके निदान ढूंढ़ने की दरकार है।
मार्च 2014 में दंतेवाड़ा जिले के पालनार इलाके में ऐसे ही सड़क निर्माण में सुरक्षा दे रही जिला पुलिस पर नक्सलियों ने हमला किया था, जिसमें छह जवान शहीद हो गए थे। पालनार हमले के बाद एक बात सामने आई थी कि खुफिया विभाग ने अलर्ट जारी किया था, बावजूद इसके नक्सली हमले में सफल हो गए।
यह भी सही है कि बस्तर की परिस्थितियां नक्सलियों के लिए सुरक्षित ठिकाने की तरह है। यहां सुरक्षा बलों को नक्सलियों से निपटने में कई तरह की मैदानी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। इन दिक्कतों को समझने और दूर करने की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है। लगातार रणनीतियों पर ध्यान देकर माओवाद से निपटने में केवल विभाग प्रमुख ही नहीं, बल्कि सरकार की भी सीधी जिम्मेदारी बनती है। छत्तीसगढ़ में गृह विभाग की जिम्मेदारी जिसे भी सौंपी जा रही है, उसकी कार्यक्षमता की अनदेखी भी कहीं भारी न पड़ रही हो, यह भी सोचने की जरूरत है।
चिंता की बात तो यह भी होना चाहिए कि ऐसे माओवादी हमलों के बाद जो एफआईआर दर्ज की जाती है और हमलों में शामिल होने के नाम पर गिरफ्तारियां दर्ज की जाती हैं। ऐसे कई मामले हाल ही में देखने को मिले जब पुलिस इस तथ्य को प्रमाणित करने में ही विफल रही कि जिन आदिवासियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया है उनके खिलाफ ऐसे हमलों में शामिल होने का सबूत क्या है?
केवल मातमी माहौल में लोगों को शांत करने की नीयत से पुलिस मामले दर्ज करती है और संदिग्ध के नाम पर गिरफ्तार किए गए आरोपियों के खिलाफ आरोप सिद्ध करने में विफल रहती है। हाल ही में सुकमा जिले के कलेक्टर अलेक्स पॉल मेनन के अपरहण के मामले में गिरफ्तार एक माओवादी कमांडर को एनआईए कोर्ट ने बरी कर दिया। इस मामले में सबसे प्रमुख गवाह स्वयं आईएएस तत्कालीन कलेक्टर मेनन ही थे जिन्होंने अदालत के सामने आरोपी को पहचानने से इंकार कर दिया।
ऐसी स्थिति में हर हादसे के बाद दुख का सैलाब और आरोपों की झड़ी के बीच भावी माओवादी हमलों को लेकर सभी की बेसुधगी ही हादसों का असल सबब है। आप मौतों के बाद मातम तो मना सकते हैं… कड़ी कार्रवाई और कड़ी निंदा जैसे शब्दों का प्रयोग तो कर सकते हैं पर ऐसे हमलों को स्थाई तौर पर रोकने का इंतजाम तभी कर सकते हैं जब सुरक्षा मानकों के पालन में कोताही कतई ना की जाए…!