‘ अर्धविराम ‘ के बहाने कुछ बातें…
- दिवाकर मुक्तिबोध।
दो मई को प्रेस क्लब में पत्रकार सनत चतुर्वेदी पर केन्द्रित किताब ‘अर्धविराम ‘ के लोकार्पण कार्यक्रम में मुझे शामिल होना था। समय था शाम साढे पांच बजे । आधे घंटे पहले मैं घर से निकल ही रहा था कि एकाएक मौसम बुरी तरह बिगड़ गया। तेज आंधी तूफान के साथ बरसात भी शुरू हो गई। करीब एक सवा घंटे के बाद आसमान साफ हुआ। अंधड शांत हुआ और बरसात भी थम गई पर विलंब हो चुका था लिहाजा मेरा जाना रूक गया। जबकि इस कार्यक्रम में शामिल होने का बहुत मन था। बोलना भी चाहता था। पर मौसम ने इस चाहत पर पानी फेर दिया। सख्त अफसोस हुआ।
सनत से आत्मा के तार जुड़े हुए हैं। उम्र में मुझसे छोटे हैं इसलिए वे बडे भाई का आदर देते हैं। यह उनका स्नेह है। दैनिक भास्कर, अमृत संदेश व न्यूज चैनल वाच में हमने साथ-साथ काम किया है। सनत छत्तीसगढ़ के उन बिरले पत्रकारों में हैं जिन्होंने अपने आदर्श व सिद्धांतों के खातिर नौकरियां छोडना कुबूल किया पर समझौते नहीं किये। परिस्थितियों से लडते-टकराते वे आगे बढते रहे। ऐसे व्यक्ति पर जब किताब के प्रकाशन की खबर मिली तो अपार आनंद हुआ। छत्तीसगढ़ के प्रख्यात कवि, पत्रकार , साहित्यकार व स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हरि ठाकुर जी के सुयोग्य पुत्र पत्रकार आशीष सिंह ठाकुर ने ‘अर्धविराम’ के लिए सामग्री संचयन की जिम्मेदारी ली और बखूबी सम्हाली। उन्होंने सनत जी के अनुभवों , संस्मरणों व जीवन संघर्ष की गाथा को उनके साथ कईं बैठकों में सुनने के बाद शब्दों का जो जादू बिखेरा है, वह काबिलेतारीफ है। भाषा शैली की मधुरता व निरंतरता ‘अर्धविराम ‘ को पूरा पढने बाध्य करती है। वैसे भी संस्मरणों, जीवन वृत्तों व आत्म कथाओं को पढना रोचक रहता है।
मेरी जानकारी में छत्तीसगढ़ के किसी वरिष्ठ पत्रकार पर यह पहली किताब है। कामना है कि यह अंतिम नहीं होनी चाहिए। पूर्ण विराम नहीं लगना चाहिए। छत्तीसगढ़ में मूर्धन्य पत्रकारों की पूरी जमात है। क्या रायपुर, बिलासपुर, रायगढ़, राजनांदगांव ,कोरबा , जगदलपुर, दंतेवाड़ा जैसे अनेक शहर, अनेक कस्बे , छोटे-बडे गांव जहां विषम परिस्थितियों से जूझते हुए पत्रकारों ने अपनी कलम से प्रदेश की पत्रकारिता को समृद्ध किया है। प्रदेश का मान बढाया है। लेकिन छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता व पत्रकारों पर ऐसा कोई दस्तावेज नहीं है जो इस संबंध में प्रामाणिक व विस्तृत जानकारी दे सके। उनके योगदान, उनके संघर्ष के बारे में बता सके। कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय पिछले पन्द्रह वर्षों से छात्रों को पत्रकारिता की एबीसीडी पढा रहा है, स्नातक व स्नातकोत्तर की डिग्रियां बांट रहा है पर मेरे सुनने में कभी नहीं आया कि किसी वरिष्ठ व ख्यात पत्रकार पर किसी छात्र ने कोई रिसर्च किया हो या विश्वविद्यालय ने एक विषय के बतौर शामिल करने का उपक्रम किया हो। मैंने जिन संपादकों के मातहत काम किया , वे सभी बहुत विद्वान, बहुत जानकर , कलम में निष्णात , संवेदनशील व सजग पत्रकार रहे हैं जिनकी वजह से छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता का देश भर में मान सम्मान है। ऐसे कई नाम हैं -सर्वश्री ललित सुरजन, रामाश्रय उपाध्याय, गोविंद लाल वोरा, बबन प्रसाद मिश्र, गुरूदेव कश्यप, मधुकर खेर, स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी, राजनारायण मिश्र, सत्येंद्र गुमाश्ता, राघवेंद्र गुमाश्ते, रम्मू श्रीवास्तव, रमेश नैयर, कमल ठाकुर, बसंत कुमार तिवारी, कुमार साहू, देवी प्रसाद चौबे, गंगा ठाकुर, जयशंकर शर्मा नीरव , दिगंबर सिंह ठाकुर, किरीट दोशी, पीयूष मुखर्जी, अनूपम दासगुप्ता और अनेक वरिष्ठजन जिनके संबंध में आज यदि किसी युवा पत्रकार से पूछा जाए तो शायद ही कोई कुछ बता पाएगा। पत्रकारिता विश्वविद्यालय में भी ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि वह अपने छात्रों को प्रदेश की पत्रकारिता के वैभव, पत्रकारों के योगदान या उनकी विशेषताओं के बारे में जानकारी दे सके, साहित्य उपलब्ध करा सके।
सनत जी पर किताब का प्रकाशन एक अच्छी शुरुआत है। मैं यह नहीं कहता कि पत्रकारिता में अपना नाम दर्ज कराने वाले पिछली व वर्तमान पीढी के प्रत्येक कलमकार का उल्लेख हो। यह संभव नहीं है क्योंकि संख्या सैकड़ों, हजारों में हैं लेकिन जिन पत्रकारों, संपादकों का अतुलनीय योगदान रहा है , जिनकी कलम की धार ने विसंगतियों को उजागर किया हैं, व्यवस्था पर कडे प्रहार किए हैं, बिना परिस्थितियों से समझौते किए निर्भीक पत्रकारिता की है, ऐसे संपादकों, अखबारनवीसों पर काम होना चाहिए। उन पर किताबें आनी चाहिए। उनके चुनिंदा लेख, उनकी संघर्ष यात्रा, उनके अनुभव, उनके संस्मरण , दस्तावेज के रूप में इतिहास में दर्ज होने चाहिए। प्रतिष्ठित लेखकों, साहित्यकारों,, कवियों, संस्कृति कर्मियों , नेताओं, अभिनेताओं, गायकों यानी समाज को नई दिशा देने वाले महानुभावों पर कोई न कोई किताब मिल जाएगी। राष्ट्रीय पत्रकारिता में भी दो चार बडे नाम मिल जाएंगे लेकिन प्रादेशिक पत्रकारिता इस मामले में विपन्न है। क्यों है ऐसा ? जाहिर है यह सोच का संकट है।
अब सवाल है, यह काम कौन करे? संस्थाएं, ट्रस्ट, विश्वविद्यालय या सरकार ? हां सरकार भी। संस्कृति विभाग, जनसंपर्क विभाग, साहित्य अकादमी या हिंदी ग्रंथ अकादमी चाहे तो कोई भी एक निश्चित प्रक्रिया के तहत छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता के स्तंभ, नामचीन पत्रकारों पर किताबें निकाल सकती हैं, फेलोशिप दे सकती हैं या निजी प्रकाशनों से प्रकाशित होने पर इनकी खरीदी की व्यवस्था कर सकती है। इतर किताबें भी इसी तरह खरीदी जाती रही हैं। स्वर्गीय गोविंद लाल वोरा व ललित सुरजन के व्यक्तित्व व कृतित्व पर खुद उनकी प्रकाशन संस्थाएं किताब छाप सकती है।
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल जब राज्य के सांस्कृतिक वैभव के सबसे बडे संवाहक हैं और उसका संरक्षण कर रहे हैं और जब उनके चार में से तीन सलाहकार मीडिया से हैं तो यह उम्मीद की ही जानी चाहिए कि कम से कम दिवंगत संपादकों पर पुस्तकों का प्रकाशन होगा ताकि पीढियों को स्मरण रहे कि छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता कितनी समृद्ध है।