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अ—घोषित तौर पर घोषित कांग्रेस का #मुखौटा… तो क्या #हाईकमान के नाम ‘खड़उ’ के सहारे कांग्रेस ही नई रणनीति…

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विशेष टिप्पणी। सुरेश महापात्र।

हिंदुस्तान की राजनीति में सत्ता प्रमुख के लिए मुखौटा शब्द का इस्तेमाल पहली बार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के गोविंदाचार्य ने 16 सितंबर सन 1997 में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार अटल बिहारी बाजपेई के लिए किया था। 6 अक्टूबर 1997 को संघ के विचारक भानुप्रताप शुक्ल ने एक लेख लिखा जिसका शीर्षक था ‘वाजपेयी मुखौटा हैं, गोविंदाचार्य!’ तब से ही हिंदुस्तान की राजनीति में अक्सर संगठन और सत्ता के प्रमुखों के चेहरों में लगाए गए मुखौटों को लेकर चर्चा आम बात रही है। फिलहाल भारतीय जनता पार्टी के वर्तमान संगठन प्रमुख जगत प्रकाश नड्डा को लेकर भी यही कहा जाता है। अब कांग्रेस में भी परिपाटी बदलने की तैयारी पूरी हो चुकी है। भारी कश्मकश के बाद आखिरकार भाजपा से शुरू हुई इस परिपार्टी के 25 बरस बाद 30 सितंबर 2022 को कांग्रेस ने गांधी युक्त कांग्रेस के लिए अपना मुखौटा तलाश लिया है।

दक्षिण भारत में भगवान महादेव के मल्लिकार्जुन मंदिर 12 ज्योर्तिलिंगों में से एक है। इसी दक्षिण भारत के एक दलित नेता मल्लिकार्जुन जिनका कांग्रेस में करीब 50 साल पुराना इतिहास है। वे अब कांग्रेस में तब तक पूजे जाएंगे जब तक गांधी परिवार के प्रति अपनी आस्था बरकरार रख सकेंगे।अस्सी बरस के मल्लिकार्जुन खड़गे अब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मौजूदा राष्ट्रीय अध्यक्ष चुनाव की प्रक्रिया में सबसे दमदार प्रत्याशी हैं। इनका चुनाव करीब—करीब तय माना जा सकता है। क्योंकि कांग्रेस के ‘गांधी एंड फेमिली’ के अ—घोषित और पोषित इकलौते चेहरे हैं। जिन्हें अब कांग्रेस अपने कुनबे का निर्वाचित पितृपुरूष स्थापित कर देगी… इस तरह से ये अगले किसी योग्य और स्वीकार्य गांधी परिवार के चेहरे के लिए संगठन का मुखौटा बने रहेंगे।

आखिर ऐसा करने के पीछे कांग्रेस की मजबूरी की वजह क्या है? यह जानने के लिए थोड़ा पीछे जाना होगा। 2014 में यूपीए नीत चौतरफा आलोचनाओं से घिरी सरदार मनमोहन सिंह की सरकार को एनडीए (नेशनल डेमोक्रेटिक अलाइंस) की ओर से भाजपा के नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार विरोधी तूफान ने जिस तरह से पराजित किया यह इतिहास में दर्ज है।

उसके बाद से ही भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा बुलंद करना शुरू किया। इस नारे के साथ—साथ जमीन पर भाजपा ने एक—एक कर उन सभी राज्यों से कांग्रेस को ऐन केन प्रकारेण सत्ता से बाहर करने का रास्ता अपनाया। जिसका नतीजा यह है कि 2022 में जब हिंदुस्तान अपनी आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है। तब कांग्रेस के पास कुल जमा दो ही राज्य शेष बचे हैं जहां उसकी सरकार है। एक राजस्थान और दूसरा छत्तीसगढ़ जहां वह पूरी तरह अपने दम पर सरकार बनाकर काबिज है।

बड़ी उम्मीद के साथ 2017 में राहुल गांधी ने कांग्रेस की कमान संभाली और 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए पूरी ताकत लगा दी। फ्रांस से रॉफेल खरीदी के मामले से लेकर प्रधानमंत्री के चुनावी भाषणों पर जबरदस्त प्रहार किया। बावजूद इसके 2019 के चुनाव केंद्र में भाजपा की सरकार की ऐतिहासिक जीत ने कांग्रेस को बुरी तरह से कमजोर किया। 2019 के चुनाव में पराजय की नैतिक जिम्मेदारी राहुल गांधी ने ली और अध्यक्ष पद से अपना त्यागपत्र सौंप दिया। किसी कांग्रेस अध्यक्ष पद के व्यक्ति की यह पहली नैतिकता का प्रदर्शन रहा। उसके बाद से कांग्रेस के भीतर और बाहर बहुत कुछ होता रहा।

‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के नारे के साथ शुरूआत करने वाली भाजपा 2022 आते तक ‘गांधी परिवार मुक्त कांग्रेस’ की दहलीज पर पहुंच गई। एक—एक कर क्षत्रप तोड़े। कांग्रेस के हर एक कड़ी को तोड़कर उन्हें अपने कंठमाल में सजाना शुरू किया। यहां तक कि राहुल गांधी के सबसे करीबियों को अपने खेमे में लाकर भाजपा ने कांग्रेस के भीतर भारी बेचैनी पैदा कर दी। नतीजा पूरे देश में कांग्रेस अपनों से ही उलझती चली गई।

इसके बाद सबसे पहले कांग्रेस के हाथ से मध्यप्रदेश की सत्ता निकल गई। हिंदुस्तान के कांग्रेस शासित राज्यों में हाल ही में पंजाब में कांग्रेस का सुपड़ा ही साफ हो गया। उत्तर प्रदेश में पूरी ताकत झोंकने के बाद भी हासिल सिफर रहा। इसके बाद आत्ममंथन और चिंतन शिविर में नया खाका तैयार किया गया।

सबसे बड़ा सवाल कि यदि जनता के सामने कांग्रेस को परिवारवाद से परे एक लोकतांत्रिक दल के तौर पर स्थापित करना है तो उसकी राह क्या हो? क्यों कि आजादी के बाद से कांग्रेस में हाईकमान का रिवाज था और आज जब आजादी के 75 बरस बीत रहे हैं तब भी हाईकमान है… हाईकमान के बगैर कांग्रेस कैसा रहेगा! और यदि हाईकमान रहे पर दिखे नहीं तो उसका इंतजाम कैसे हो? यह भी मंथन के चिंतन से निकला विषय रहा।

गांधी परिवार के बगैर कांग्रेस की कल्पना फिलहाल कर पाना हर किसी के लिए असंभव है। क्योंकि गांधी परिवार के खिलाफ भले ही भाजपा कितना भी प्रचार ताकत झोंक दे उसे अच्छे से पता है कि कांग्रेस में गांधी परिवार के सिवाय कोई दूसरा चेहरा ही नहीं है जिसकी पूरे हिंदुस्तान में स्वीकार्यता हो… कांग्रेस के पास उसका अपना एक वोट बैंक है जिससे बाजी कभी भी पलट सकती है।

राहुल गांधी ने हर मंच पर कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी लेने से इंकार कर दिया। सो अगले निर्वाचन से पहले कार्यवाहक अध्यक्ष के तौर पर सोनिया गांधी के सहारे कांग्रेस करीब तीन बरस से जिम्मेदारी संभाल रही हैं। इस बीच कांग्रेस में एक और बड़ी दरार सतह पर दिखने लगी। कभी दशकों तक कांग्रेस से लाभान्वित और विभिन्न पदों पर सुशोभित कई बुजुर्ग और बड़े चेहरे सवाल करने लगे। जिन्हें जी—23 का नाम दिया गया। तो यह तय हो ही गया कि आज नहीं तो कल निर्वाचन की प्रक्रिया के माध्यम से ही अगला अध्यक्ष तय किया जाएगा। इसी के साथ राहुल के मान मनौवल का दौर भी चलता रहा। परिवार के दबाव और पारिवारिक राजनीतिक मित्रों के सलाह के बाद भी राहुल ने यह स्पष्ट कर दिया कि अब अगला कांग्रेस अध्यक्ष गैर गांधी ही होगा।

इंकार के बाद भी कई राज्यों ने राहुल के पक्ष में प्रस्ताव पारित कर दिया इसके बाद भी जब राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद लेने से इंकार कर दिया तो गैर गांधी कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष निर्वाचन की प्रक्रिया को अमल में लाने का क्रम चालू किया गया। पर जिस हाईकमान के लिए यह प्रक्रिया पूरी की जानी है उसके लिए मुफीद चेहरा भी तो जरूरी था। ताकि ‘मुखौटा’ चुना जा सके।

सो खोज शुरू हुई। एक ऐसा चेहरा जो ‘गांधी एंड फेमिली’ की केमिस्ट्री संभाल सके। ऐसा चेहरा जो अध्यक्ष पद की कुर्सी पर खड़उ रखकर काम करता रहे पर दिखे ऐसा कि सारे फैसले वह अपने दम पर ले रहा हो… यानी वरिष्ठ हो जिसके पीछे तमाम बड़े—छोटे नेता खड़े हो सकें। और यह महसूस कर सकें फैसले तो हाईकमान ही लेंगे। पर मुहर इनकी लगती रहेगी।

तो तमाम प्रयासों और कयासों के बाद कांग्रेस अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष की चुनाव प्रक्रिया शुरू की। अध्यक्ष के निर्वाचन की इस प्रक्रिया के बीच में बहुत कुछ तय किया गया। उसमें राजस्थान से अशोक गहलोत को दो तरफा साधने की रणनीति भी शामिल कर दी गई। खड़गे के अलावा गेहलोत ही एक मात्र ऐसे चेहरे हैं​ जिन पर कांग्रेस के वरिष्ठ होने का तमगा चस्पा है। गेहलोत राजस्थान के सीएम रहते हुए कांग्रेस पार्टी के लिए उतने उत्पादक नहीं रहे जितना छत्तीसगढ़ के भूपेश बघेल साबित हुए। यानी यदि राजस्थान में चेहरा बदल जाता है और गेहलोत शिफ्ट कर दिए जाते हैं तो बहुत कुछ बात बन सकती है। शायद पहली कोशिश यही दिखाने की रही।

पर इसका एक दूसरा पहलू भी है गहलोत को साधे बगैर किसी गैर गांधी चेहरे को अध्यक्ष बनाने का मतलब ज्यादा नुकसानदायक होना तय था। इसलिए सबसे पहले अशोक गहलोत को साधने की रणनीति पर काम शुरू हुआ और गहलोत उसके शिकार हो गए। यदि गहलोत राष्ट्रीय अध्यक्ष निर्वाचित होते तो निश्चित तौर पर उनकी कार्यशैली में गैर गांधी अध्यक्ष की छाप दिखाई देती। राजस्थान में उनके रहते दबाव बना पाना असंभव होता। जब सब कुछ हो गया तब कहीं लोगों को यह बात समझ में आई कि गेहलोत तो बस विज़िटिंग कार्ड ही थे। असल में उन्हे किसी दूसरे चेहरे के लिए व्यापक रणनीति बनाने के काम के लिए उपयोग किया गया।

दिग्विजय सिंह, मुकुल वासनिक भी इसी रणनीति का हिस्सा बनाए गए। इनकी भूमिका कांग्रेस की लोकतांत्रिक निर्वाचन प्रक्रिया के व्यापक प्रचार के लिए तय प्रतीत हो रही है। अब साफ है अकेले शशि थरूर ही वे नेता हैं जो इस रणनीति से बाहर ही रहे। थरूर के बहाने कांग्रेस यह स्थापित करने में जुटी है कि जैसा कि ‘हाईकमान’ ने कहा बिल्कुल वैसा ही हो रहा है।

कांग्रेस की सबसे बड़ी मजबूरी यही है कि पार्टी को प्रत्यक्ष तौर पर ‘गांधी’ मुक्त किया जा सकता है पर ‘गांधी मुक्त कांग्रेस’ को बचाए रखना कठिन है। सच्चाई यही है कि गांधी परिवार वह ‘धागा’ है जिसके सहारे कांग्रेस के पूरे कुनबे को गूंथकर रखा जा सकता है। इसके लिए परोक्ष तौर पर कांग्रेस के हाईकमान का नियंत्रण ही एकमात्र उपाय है। जिसके लिए कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर मुफीद मुखौटा ही एक मात्र उपाय है।

अब जरा पलटकर देखें तो भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर जगत प्रकाश नड्डा प्रत्यक्ष तौर पर ज़िम्मेदारी संभाल रहे हैं। पर असल में हाईकमान यानी नरेंद्र मोदी ही सत्ता से लेकर संगठन तक में सारे बड़े फ़ैसले लेते हैं। राजनीति की असल कमाई यही है कि ‘हाईकमान’ हो पर कहीं दिखे नहीं। दरअसल जिसके पास जनता की ताकत होती है वही असल में नेता है। बाकि सब अनुयायी मात्र। इस तथ्य को जो जितनी शिद्दत से छिपाने में कामयाब होगा वही असली नेता!

यह बात किसी से छिपी नहीं है कि कन्याकुमारी से कश्मीर तक की भारत जोड़ो यात्रा में राहुल गांधी को जबरदस्त सफलता मिल रही है। लाखों की तादात में अब तक भीड़ उनके समर्थन में दिख रही है। इतनी ताकत फिलहाल कांग्रेस के किसी भी दूसरे चेहरे के पास नहीं है। राहुल भी यह साफ समझ रहे हैं कि जिस तरह से मेन स्ट्रीम मीडिया कांग्रेस के खिलाफ एकजुट है ऐसे में सड़क पर पैदल चलकर ही लोगों का ध्यान उन मुद्दों की ओर खींचा जा सकता है जिससे एक नरैटिव गढ़ा जा सके। इस पदयात्र के समन्वयक की भूमिका में कांग्रेस के चाणक्य दिग्विजय सिंह की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है।

संभवत: यह भी कांग्रेस के अंदरखाने किसी चाणक्य ने ही राहुल को सीख दी हो कि ‘अब राजनीति की यही रीत चलन में रह सकती है जब असली राजा को पूरी तरह से बचाकर रखा जाए।’ दरअसल कांग्रेस ने अतीत में बड़ी गड़बड़ी तब कर दी जब राहुल गांधी को यंग्री यंग मैन की छवि के सहारे शिफ़्ट करने का काम किया। जिसे भाजपा के नकारात्मक प्रचार तंत्र ने धाराशाई कर दिया।

भाजपा नेताओं के भाषण पर टिप्पणी करते राहुल की एडिटेड विडियो को चलाकर यह स्थापित किया गया कि लोग यह मान लें कि असल में यही राहुल गांधी का बयान है… सोशल मीडिया पर फैले आईटी सेल ने कांग्रेस के लिए सबसे ज्यादा मुसीबत खड़ी की। कांग्रेस ने जब तक तैयारी की तब तक बहुत देर हो चुकी ​थी।

पता नहीं 2014 के चुनाव के बाद कांग्रेस के आला नेतृत्व ने इस पर ध्यान क्यों नहीं दिया? दरअसल कांग्रेस की सबसे बुरी आदत उनके वे नेता रहे जिन्हें कांग्रेस ने पाला पोसा पर वे अपने आंतरिक द्वंद से पराजित होकर मैदान छोड़कर भागने का विकल्प चुनते रहे। भागे तो भागे पर विरोधी दल का हिस्सा बनने के बाद उन बातों को कहा जो नैतिकता की सीमा रेखा को लांघते रहे। पर इसके एवज में भाजपा ने एक तरफा उन लोगों को उपकृत किया जो कांग्रेस से भाग आए और उनके मन मुताबिक राहुल और कांग्रेस के खिलाफ बयान देने से गुरेज नहीं किया।

इधर परिवार और पुत्र मोह से जकड़ी कांग्रेस के लिए राहुल का गैर गांधी नेतृत्व का प्रयोग देखने में भले ही थोड़ा ठीक लग रहा है पर इसके भी दुष्परिणामों के लिए कांग्रेस को आगे भी तैयार रहना होगा। ये भाजपा नहीं है जिसे नड्डा के चेहरे से कोई और चला ले जाए… ये कांग्रेस है जिसे मल्लिकार्जुन खड़गे के मुखौटे के सहारे लंबा नहीं चलाया जा सकता।

कांग्रेस यानि जिसके पास आज़ादी की लड़ाई का अनुभव और आज़ादी के बाद के विकास का गहरा इतिहास दर्ज है। उसके नेतृत्व को ‘खड़उ’ के सहारे कुछ समय टिकाया जा सकता है पर नेतृत्व टालने से बहुत कुछ खोने का ख़तरा होगा। इसलिए बेहतर होगा कांग्रेस में जिस हाईकमान की अपनी ही संस्कृति है जिसका चलायमान होना जरूरी है। इसी से ही कांग्रेस बचाए रखने में सफलता मिलेगी।