बीहड़ बस्तर में बदल रही तस्वीर… ‘जगरगुंडा’ दो दशक तक पूरी दुनिया से कटे एक मायूस गांव को खुशनुमा बनाने की कोशिश में सरकार…
सुरेश महापात्र।
कभी जंगल के भीतर पगडंडी नुमा सड़क पर चलने वाले आदिवासी अब पक्की सड़क पर चार पहिया से चलते दिखने लगे हैं। यह दृश्य अब दंतेवाड़ा जिला मुख्यालय से नकुलनार और यहां से पालनार होकर अरनपुर की राह पहुंचते—पहुंचते लगने लगता है। कितनी बदल गई है यहां की तस्वीर।
नकुलनार से हमने पालनार की राह पकड़ ली। नकुलनार से करीब 13 किलोमीटर की दूर पर पालनार की पहली बस्ती है। जो एक प्रकार से माओवादियों के गढ़ का अंतिम मुहाना रहा जहां तक पहुंच कभी रूकी नहीं।

पालनार पहुंचते ही सबसे पहले आपका स्वागत करता बोर्ड बताता है कि यह पहला डिजिटल गांव है। अब इस गांव में सब कुछ पहले की तरह भले ही डिजिटल ना हो पर गांव की रौनक बढ़ी हुई दिखाई देती है।
पालनार पहुंचने के बाद मन में आया कि चलें अब अरनपुर तक हो आते हैं। पालनार से किरंदुल तक भी सीधे पहुंचा जा सकता है। वहीं इस राह पर करीब 17 किलोमीटर बार अरनपुर आता है। यह वह जगह है जहां से आगे निकलना बंद कर दिया गया था। अरनपुर पहुंचते ही मन में विचार आया कि जब यहां तक पहुंंच ही गए हैं तो चलिए जगरगुंडा तक हो आया जाए।

हम अपने वाहन से कोंडापारा के उस गेट पर पहुंचे। जहां सीआरपीएफ का पहरा लगा हुआ है। कोंडापारा सीआरपीएफ कैंप का यह जांच नाका मानों नक्सलगढ़ के मुहाने पर वह पहरा है जिससे हुए बगैर अब कोई नीचे की ओर उतर ही नहीं सकता।
यहां अपनी पूरी जानकारी देने के बाद ही आप आगे बढ़ सकते हैं। दरअसल इसके पीछे आपकी सुरक्षा भी बड़ी वजह है। साथ ही अतिरिक्त सर्तकर्ता क्योंकि संभव है इसके बाद आगे वाले कैंप में आपके पहुंचने और निकलने पर सुरक्षाबलों की निगाह लगी हो…

आप जैसे ही कोंडापारा के जांच नाके में अपनी पहचान बताकर और दर्ज करवाते हैं तो नाका उठते ही एक अप्रतीम प्राकृतिक सौंदर्य का दरवाजा खुल जाता है। आप घाट पर नीचे की ओर उतरते हुए जो दृश्य देखते हैं लगता है अरे यहां तो पूरा का पूरा हरा खजाना बिखरा पड़ा है। यही वह इलाका है जहां कभी माओवादियों का कब्जा हुआ करता था।

कोंडापारा से नीचे की ओर तो छोड़िए अरनपुर से कोंडापारा तक भी पहुंचपाना असंभव था। 2004 में इस राह पर माओवादियों ने अपना पहरा बिठा दिया था और पूरी घाट पर उनका कब्जा था। अब 21 बरस बाद अरनपुर से कोंडापारा तक पहुंचना इतना आसान हो गया है कि आप का मन करे तो एक बार घुम आइए… आप कह उठेंगे बहार बिखरी है…
इस बार मेरे साथ मेरा बेटा भी था। वह पूरा दृश्य देखकर अभिभूत था मैं उसे बता रहा था कि जब तुमने 2004 में इस धरा पर जन्म लिया था तब से यह राह पूरी तरह बंद था…
कोंडापारा से नीचे उतरते ही आगे कुछ किलोमीटर की पूरी पर कोंडासावली में सीआरपीएफ का कैंप है। यह वह सीमा रेखा है जिसे लांघने में ना जाने कितने बरस का इंतजार करना पड़ा। कोंडासावली के इस सीआरपीएफ कैंप के ठीक सामने एक नाला बहता है जिसमें हमेशा पानी का बहाव तो रहता ही है पर इस राह पर बारिश के दौरान बहाव इतना तेज होता है कि पैदल पार करना भी असंभव की हद तक कठिन…

इस पुल पर निर्माण के बगैर आप आगे की ओर बढ़ ही नहीं सकते… यह रपटानुमा पुल बनकर तैयार है। इसके पार दो और जगह पर इसी तरह के पुलिया के निर्माण के बाद जगरगुंडा की राह आसान हो सकी है।
आप यह देखें कि कोंडापारा से जगरगुंडा के बीच का कुल फासला महज 17 किलोमीटर मात्र है। पर यह दूरी पार करने में सबसे बड़ी बाधा माओवादियों की तिलस्मी दुनिया जिसमें बिना सुरक्षा के आप एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा सकते…
इस राह पर सीआरपीएफ के ना जाने कितने जवानों की शहादत दर्ज है। जब आप कोंडापारा से घाट पर नीचे की ओर उतरने लगते हैं तो आपको यह साफ महसूस होने लगेगा कि इस राह पर बिना सुरक्षा एक कदम भी चल पाना संभव था ही नहीं…

चारों ओर घना जंगल और पहाड़ से घिरा ऐसा इलाका जिसमें कहां से एक गोली निकल आए और ना जाने किस जगह से आईईडी प्लांट कर ब्लास्ट कर दिया जाए… कोई समझ ही नहीं सकता!
कोंडासावली से आगे बढ़ते ही एक सपाट पक्की सड़क दूर तक दिखाई देने लगी। इस राह पर दो या तीन बार चार पहिया देखने को मिला… कुछ ग्रामीण मोटर साइकिल से गुजरते हुए दिखाई दिए… पैदल चलने वाली आदिवासी महिलाओं के माथे पर भरी दुपहरी में चलते हुए बहता हुआ पसीना साफ दिखाई दे रहा था पर चेहरे पर सुकून का भाव… मानों पूरी दुनिया से जुड़ जाने के बाद सारी थकान और मायूसी खत्म हो गई हो…।

पालनार से जगरगुंडा के बीच तेजी के साथ बिजली की लाइन बिछाने का काम चलता हुआ दिखाई दिया। घाट पर खंबे गाड़े जा चुके हैं… कोंडासावली से जगरगुंडा के बीच एक विद्युत सब स्टेशन का काम भी तेजी से चल रहा है।
कमारगुड़ा से आगे तारलागुड़ा का बोर्ड देखते ही लगा मानों एक उस गांव का नाम देख लिया कभी जहां से माओवादियों की हुकूमत की खबरें बाहरी दुनिया में पहुंचती थीं। हम आगे बढ़ते रहे कुछ ही दूरी पर एक बड़ा से गेट लगा हुआ था…
बस यही उस जगरगुंडा का प्रवेशद्वार है जहां सबसे पहले आपका स्वागत सीआरपीएफ के मोर्चे पर तैनात जवान के बंदूक की नली करती है… संतरी ड्यूटी करने वाले जवान की नजर दूर तक देखती है सामने पूरा सपाट मुख्य मार्ग वहां से गुरजने वाले हर किसी पर उसकी निगाह स्वाभाविक ही है…

गेट पर पहुंचते ही जिस तरह से अपना परिचय कोंडापारा में नाका पार करते दिया था बिल्कुल उसी तरह से यहां भी दर्ज करवाना होता है… उन्हें पहले से ही यह पता होता है कि आने वाला कौन है और कहां से यहां पहुंचा है… बताने का आशय यही है कि बिना किसी पहचान के आप सहज जगरगुंडा की दहलीज पार नहीं कर सकते…
जगरगुंडा में प्रवेश करते हुए वहां तैनात जवान से बात हुई। उसने कहा ‘अब आप सभी आते रहिए अब कोई चिंता की बात नहीं है… पूरे जगह पर हमने सफाया कर दिया है…!’ उसने भावुक होते कहा इस राह पर हमारे सैकड़ों साथियों ने खून बहाया है। यह जवानों के खून से सनी सड़क है। अरनपुर, कोंडापारा, कोंडासावली, कमारगुड़ा तक कुल पांच कैंप लगाए गए हैं। यहां राउंड दी क्लाक निगरानी रखी जा रही है।
कैंप की चाहरदीवारी पार करते ही एक मायूस गांव पर आपकी नजर पड़ती है। इस गांव के भीतर अभी नव निर्माण का दौर चल रहा है पर पुरानी वह सड़क जिस पर ना जाने कितनी सिसकियां दफन हैं।

पूरा गांव… पूरी बसाहट में अजीब सी मायूसी झलकती है। पुराने कई घर ऐसे पड़े हैं जिन्हें अब भी अपने मालिक का इंतजार हो… गांव के भीतर दुकाने चल रही हैं… जिन्होंने तमाम असुविधाओं के बाद भी वहां रहना ही अपनी किस्मत के हिस्से छोड़ दिया था अब उनकी दुनिया में बड़े बदलाव का दृश्य साफ है।
जगरगुंडा में पुरानी सरकारी दफ्तरों में काम काज शुरू हो चुका है। चिकित्सा, शिक्षा और राशन के दुकान में काम शुरू हो चुका है… सबसे बड़ी बात तो यही है कि जगरगुंडा में सीआरपीएफ कैंप और थाने के दूसरे छोर पर एक तिराहा है…

इसी तिराहे में ओवरसीज बैंक में काम चल रहा है। बैंक से मिली जानकारी के अनुसार करीब डेढ़ सौ खाते खुल चुके हैं।

तिराहे का एक सिरा दोरनापाल की ओर जाता है… जहां अब भी आवागमना आसान नहीं हो सका है। इस राह पर तेजी से काम चलने की सूचना ग्रामीणों ने दी…

एक रास्ता बीजापुर से बासागुड़ा होकर सिलगेर से पहुंचता है। इस राह पर अब नियमित बस सेवा चल रही है। एक समय था जब बीजापुर से बासागुड़ा तक पहुंचपाना कठिन हो गया था… वहां से आगे सिलगेर में सीआरपीएफ कैंप लगाए जाने के दौरान माओवादियों के दबाव में आदिवासियों का लंबा आंदोलन चला शायद ही कोई इसे अभी भूला हो…

अब जरा सोचिए सिलगेर में यह कैंप कितना महत्वपूर्ण था और माओवादी पूरजोर तरीके से इसका विरोध क्यों करवा रहे थे?
करीब 21 बरस तक जिस इलाके में हर कोई हवाई रास्ते के भरोसे जीवन को जीने को मजबूर था। अब यहां बदलती हुई तस्वीर इस इलाके के तकदीर को बदलने का भरोसा दिला रही है। पक्की सड़क, मजबूत नालियों का निर्माण हो रहा है। लोगों की जिंदगी को आसान करने की तमाम कोशिशें जारी हैं।

मायूस चेहरों को खुशनुमा बनाने की कोशिश तेजी से चल रही है। जिस जगह पर कभी पहुंच पाना असंभव था मैं अपने बेटे के साथ इस जगह को बिल्कुल उसी तरह घुम आया जैसा दंतेवाड़ा से किरंदुल या जगदलपुर की ओर जाना होता है…
बीहड़ बस्तर में बदल रही तस्वीर को देखने से साफ लगता है कि दो दशक तक माओवादियों ने शिकंजे में फांस कर ‘जगरगुंडा’ को पूरी दुनिया से काट दिया था। एक ऐसा टापू बना दिया था जिसमें कुछ सौ आदिवासियों के साथ… केवल एक थाना ही था जिसमें जहां से जिंदगी की जंग लंबे समय तक लड़ी गई।


इस मायूस गांव को खुशनुमा बनाने की कोशिश में सरकार की कोशिशें साफ दिखाई दे रही है। तेजी के साथ बदलाव की तैयारी है। यहां बसों की आवाजाही होने लगी है। यहां विद्युत सब स्टेशन का काम तेजी से चल रहा है। बिजली की लाइन बिछाई जा रही है।

सरकारी दफ्तरों में काम काज को सामान्य करने की कोशिशें चल रही हैं… जिसका हर किसी को खुले दिल से स्वागत करना चाहिए। और हां इस इलाके को सामान्य करने के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर शहादत देने वाले हर जवान को नमन करना चाहिए…
