चार दिवारी ना पक्की छत, एक खाट और अलाव के सहारे सालों से जीवन की गाड़ी हांक रहा इस्तारी… चुनाव के वक्त वोट के लिए किये जाते है याद, चुनाव निपटते छोड़ जाते है अपने हाल पर…
पी.रंजन दास, बीजापुर।
चार बल्लियों के सहारे कच्च छत, ठंड हो या बरसात ना तो चारदीवारी और ना ही बारिश के पानी से बचने का कोई इंतजाम, फिर भी पिछले पांच सालों से टपकती छप्पर और ठिठुरती ठंड के बीच एक शख्स जीवन की गाड़ी जैसे-तैसे हांक रहा है।
भोपालपट्नम से करीब आठ किमी दूर बरदली ग्राम पंचायत के कच्ची पारा में रहने वाले सत्तर वर्षीय बुर्जुग मड़े इस्तारी ऐसे ही बदतर हालात में जीने को मजबूर है।
उम्रदराज इस शख्स के पास अपनी खुद की कोई पक्की छत नहीं है। हाथ, पांव, आंख, कान से लगभग लाचार हो चुके मड़े को उम्मीद है कि जिन नेताओं के लिए वो चुनाव के वक्त वोटरों की लाइन में खड़े होते हैं, कभी तो उनकी सुध लेंगे, लेकिन ऐसा अब तक नहीं हुआ, शायद मड़े के जीवन में कोई चमत्कार ही बदलाव ला सकता है।
नगरीय निकाय चुनाव के बीच भोपालपट्नम से आठ किमी दूर मड़े इस्तारी के बारे में पता चलने पर संवाददाता ने भोपालपट्नम से बरदली के कच्ची पारा तक सफर किया। जैसा लोगों की जुबां से सुनने को मिला था, मड़े इस्तारी ठीक उसी हालात में नजर आए। जंगली झाड़ियों के बीच चार बल्लियों के सहारे ताड़ के पत्तों की एक छप्पर के नीचे टूटी-फूटी खाद पर बैठे मड़े इस्तारी हिंदी तो समझ नहीं पाते, वही बढ़ती उम्र के साथ उंचा भी सुनने लगे हैं।
कुछ भी पूछने पर स्पष्ट ना सुन पाने की वजह से मैले थैले से वोटर कार्ड, पेंशन के नाम पर बैंक की पासबुक और राशन कार्ड निकाल कर रख देते हैं।
इन दिनों कड़ाके की ठंड भी पड़ रही है, लेकिन मड़े की जिंदगी इस कदर बदतर है कि झुके कंधों और नंगे बदन को ठंड से थोड़ी बहुत राहत दिला पाने अलाव ही सहारा है, जिसके पास अपनी टूटी फूटी खाट लगाकर चौबीस घंटे अलाव ही संेकते रहते हैं।
ठंड से बचने पुराने फटे कंबल को खाट के एक तरफ दो बल्लियों के सहारे बांध रखा है, जिससे रात के वक्त ठंडी हवा से कुछ हद तक बच सके। बुढ़ापे की इस दहलीज पर मड़े इस कदर लाचार हो चुके हैं कि वा ेअब अपने पैरों पर खड़े भी नहीं हो सकते। हड्डियां कमजोर पड़ चुकी है और तो और आंखें की रोशनी भी कम हो चुकी है।
इस्तारी को अपने बड़े पिता बताने वाला मड़े सोमैया कहते हैं कि पिछले पांच सालों से वे इसी अवस्था में हैं। परिजन के नाते वो उनकी जितनी संभव मदद की कोशिश करते हैं, लेकिन वे किसी पर बोझ नहीं बनने की बात कहते उम्रदराज होते हुए भी बोझिल जीवन को ढो रहे हैं।
रही बात सरकारी स्तर पर मड़े की सुध लेने की तो कुछ लोगों ने बताया कि चुनाव के वक्त मड़े को राजनीतिक दल के लोग संसाधन मुहैया कराते मतदान केंद्र तक लेकर पहुंचते रहे हैं, लेकिन चुनाव निपटते ही मड़े को उनके हाल पर ही छोड़ दिया गया।
हालात ऐसे है कि मड़े के पास ना तो पक्की छत है, खाने को ना भरपेट भोजन और ना ही तन ढकने को कपड़े, पेंशन के नाम पर कभी खाते में रकम डल भी जाए तो शारीरिक दमखम के बिना बैंक भी कैसे पहुंचे?
मजबूरी ऐसी कि दाने-दाने को मड़े औरों पर मोहताज है। उंचा सुनने को विवश मड़े अपनी बोली में कहते हैं कि सरकार उनकी सुध ले। कम से कम एक पक्की छत और चलने-फिरने में दिक्कत के मद्देनजर ट्राइसिकल और नियमित पेंशन की सुविधा उन्हें दें। जिससे उनकी जीवन की गाड़ी किसी तरह पटरी पर लौट सके।