अगर नहीं संभले तो सांप्रदायिकता की आग में सब कुछ खाक हो जाएगा…
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मुद्दे की बात… सुरेश महापात्र।
छत्तीसगढ़ में ऐसा पहली—पहली बार होता दिख रहा है जब बेमेतरा जिला के साजा विधानसभा क्षेत्र के बिरनपुर जैसे छोटे से गांव से निकली सांप्रदायिकता की चिंगारी समूचे प्रदेश को अपने आगोश में लेते दिख रही है। छत्तीसगढ़ में करीब छह माह बाद विधानसभा चुनाव की तारीख तय है। ऐसे समय में बिरनपुर की यह चिंगारी और भी ज्यादा खतरनाक है।
धार्मिक त्योहारों के दौरान छत्तीसगढ़ हमेशा से शांत ही रहा है। पर बीते कुछ समय से दिखाई दे रहा है कि धार्मिक जुलूस और जलसों के बीच टकराहट बढ़ी है। लोग किस कदर असहनशील होते जा रहे हैं इसका प्रमाण यदि देखना हो तो ‘बिरनपुर’ के घटनाक्रम को समझना होगा। दो समुदाय विशेष के बच्चों के बीच छोटी से बात से शुरू होकर घेरकर किसी तीसरे की बर्बरतापूर्वक हत्या का पूरा वाकया वास्तव में यहां हर किसी के लिए चिंता का विषय हो गया है। मामला महज हिंदू युवक की मुस्लिम भीड़ के द्वारा हत्या तक ही सीमित नहीं है।
यह विचारणीय है कि ऐसी क्या परिस्थितियां निर्मित हो गई कि दो युवक के बीच का झगड़ा इतना बड़ा सांप्रदायिक दंगा में तब्दील हो गया। घटनाक्रम की मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक 8 अप्रेल के दोपहर 12 बजे दो स्कूली छात्र बीच सड़क पर साइकिल चला रहे थे। तभी एक ने दूसरे को कट मार दिया। एक मुस्लिम युवक ने हिंदू छात्र के हाथ में बोतल फोड़ दी जिससे उसका हाथ फ्रेक्चर हो गया। सूचना गांव पहुंची तो इस मामूली विवाद ने सांप्रदायिक रंग ले लिया। हिंदू—मुस्लिम समुदाय आमने—सामने आ गए। दोनों ओर से लाठी डंडे व पत्थर चलने लगे। दो समुदाय विशेष के बच्चों के बीच छोटी से बात से शुरू होकर घेरकर किसी तीसरे की बर्बरतापूर्वक हत्या कर दी गई।
इस वारदात में दो मुख्य बिंदु हैं पहला जिस युवक ने दूसरे युवक पर बोतल से हमला किया वह मुस्लिम समुदाय से है। दूसरा युवक जो इस हमले में घायल हुआ वह हिंदु समुदाय से है। इस तरह की बहुत सी घटनाओं के हम साक्षी हैं जब दो बच्चों के झगड़े में किसी एक का नुकसान हुआ हो। अक्सर ऐसे मामलों में बड़ों के शामिल होने के बाद दो परिवारों के बीच कहा सुनी और झगड़ा हो जाता है। पर ऐसे झगड़ों से दंगा भड़कने जैसा वाकया कम ही दिखाई दिया है।
पर अब इस तरह की घटनाएं तेजी से बढ़ती जा रही हैं। दो समुदायों के बीच छोटी—छोटी बात पर भी माहौल गरम होता दिख रहा है। इस मामले में यह तो साफ दिखाई दे रहा है कि दो युवा के आपसी झगड़े का मूल कारण समझे बगैर और हमलावर के पक्ष में एक समुदाय विशेष का हिंसक हो जाना चिंताजनक है।
यह हर किसी को समझना होगा कि इस तरह की परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार हर किसी पर सख्त से सख्त कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए। इस तरह की घटना में जिम्मेदारों के लिए किसी भी तरह का साफ्ट कार्नर अपराध को बढ़ावा देने वाला साबित होगा। हम सब बहुत तेजी के साथ बदल रहे हैं हमारे इस बदलाव की वजह हमारे भीतर बढ़ रही असुरक्षा की भावना और असहनशीलता है। जिससे हम किसी भी मामले में निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए मानवीय किसी भी पहलू के बारे में विचार करना बंद करते जा रहे हैं।
यदि हमने अति असुरक्षा की भावना से परे होकर यह देखने समझने की कोशिश की होती तो बिरनपुर का यह हादसा होता ही नहीं। इसके लिए मुस्लिम समुदाय की ओर से हमलावरों की जिम्मेदारी स्पष्ट दिखाई दे रही है। वे चाहते तो इस विवाद में सबसे पहले तथ्यों की पड़ताल करते और शिकायत कर्ता युवक से घटनाक्रम सुनने के बाद सच्चाई जानने के लिए बिना उत्तेजित हुए संवाद करते। यदि ऐसा करते तो यह मामला शुरू होने से पहले ही खत्म हो सकता था। हमले के जवाब में हमला से कभी कोई सवाल हल हो ही नहीं सकता। इस घटनाक्रम में 22 वर्षीय जिस युवा भुवनेश्वर साहू की बेरहमी से हत्या की गई जो उस साइकिल विवाद का हिस्सा भी नहीं था। अब उसकी मौत हो चुकी है उसकी भरपाई तो उस परिवार के लिए कोई भी नहीं कर सकता।
इस मामले को लेकर छत्तीसगढ़ में 10 अप्रेल का बंद वास्तव में इस बात को रेखांकित करता है कि यहां बिरनपुर में घटना को लेकर लोगों में जबरदस्त आक्रोश है। इस आक्रोश की वजह केवल राजनैतिक नहीं है। बल्कि इस आक्रोश की वजह घटनाक्रम है। हिंदु—मुस्लिम समुदाय के बीच वैसे भी अतिरिक्त सर्तकता की दरकार बढ़ी है। अब सब कुछ इतना सहज नहीं रह गया है जितना पहले हुआ करता था। धार्मिक कट्टरता के प्रदर्शन की होड़ में अब सब शामिल हैं। सरकारें भी पहले जैसी सहज नहीं दिखाई दे रही है। सरकार ऐसे संवेदनशील मामलों में तटस्थ नहीं हो पा रही हैं। स्पष्ट दिख रहा है कि यह सरकार की कमजोरी है।
तटस्थता के लिए अपराध के लिए अपराध का दृष्टिकोण स्थिर और मजबूत करना होगा। जब तब लोगों में अपराध को लेकर कानून का भय स्थापित नहीं होगा तब तक सरकार की तटस्थता संदेहास्पद रहेगी। 8 अप्रेल को जो विवाद की शुरूआत के बाद जो कुछ हुआ उसके बाद प्रशासन भूमिका पर संदेह उठना स्वाभाविक है।
क्योंकि ऐसे किसी भी मामले में प्रशासन के पास सूचना का अपना तंत्र होता ही है जिससे वह किसी भी हालात को बिगड़ने से रोक सके। घटनाक्रम में सबकुछ इतना यकायक भी नहीं हुआ है जितना दिखाई दे रहा है। बल्कि यह पूरी तरह सुनियोजित प्रतीत हो रहा है। यानी इसे प्रशासन की सर्तकता से रोका जा सकता था। भीड़ के बीच पथराव और मारपीट के बाद हत्या जैसी परिस्थति का निर्मित होना यही साबित कर रहा है।
छत्तीसगढ़ में यह चुनावी साल है इस समय इस तरह के हालात मौजूदा सरकार के लिए निश्चित तौर पर खतरे की घंटी हैं। जाति आधारित जनगणना 2011 के मुताबिक छत्तीसगढ़ में 93 फीसदी हिन्दू और 2 फीसदी मुसलमान रहते हैं। जाति आधारित जनगणना 2011 की रिपोर्ट 2015 में जारी की गई इसके आंकड़ों के मुताबिक छत्तीसगढ़ में 93.2 फीसदी हिन्दू, 2.01 फीसदी मुसलमान, 1.92 फीसदी ईसाई, 0.27 फीसदी सिक्ख, 0.27 फीसदी बौद्ध, 0.24 फीसदी जैन तथा 1.93 फीसदी अन्य धर्मों के अनुयाई रहते हैं। यही वजह है कि छत्तीसगढ़ में सांप्रदायिकता की आग कभी भी ज्यादा भड़क नहीं पाई। यहां के 93 प्रतिशत हिंदुओं में आदिवासी समाज शामिल है।
गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ की कुल आबादी 2 करोड़ 55 लाख 45 हजार 198 है. जिसमें से 1 करोड़ 96 लाख 7 हजार 961 लोग गांवों में तथा 59 लाख 37 हजार 237 शहरों में रहते हैं। इसी तरह गांवों में 1 करोड़ 56 लाख 64 हजार 147 हिन्दू गांवों में 52 लाख 55 हजार 642 शहरों में रहते हैं।
छत्तीसगढ़ में 1 लाख 56 हजार 540 मुस्लिम गांवों में और 3 लाख 58 हजार 458 शहरों में रहते हैं। छत्तीसगढ़ के गांवों में 1 लाख 76 हजार 500 तथा शहरों में 65 हजार 299 ईसाई रहते हैं। इन आंकड़ों में फेरबदल हो सकता है। बीते एक दशक में लोगों की सोच भी बदली है और धर्म को लेकर समझ में भी परिवर्तन आया है। आदिवासी इलाकों में हिंदु और गैर हिंदु आदिवासी के बीच टकराव की खबरें रह—रहकर बाहर आ रही हैं। छत्तीसगढ़ में बीते एक बरस में इस तरह के तीन प्रयोग हो चुके हैं। जब धर्म के नाम पर सांप्रदायिक सद्भाव को प्रभावित करने की कोशिश हुई।
इधर छत्तीसगढ़ में बहुसंख्य आदिवासी धर्मपरिवर्तन को लेकर चिंतित दिखाई दे रहा है। आदिवासी समाज शैने:—शैने: धर्मपरिवर्तन विरोधी होता जा रहा है। बस्तर में आदिवासियों में सबसे ज्यादा ईसाई धर्म में शामिल हुए हैं। वहीं हालिया समय में बस्तर के आदिवासी समाज में इस बात को लेकर जोर दिया जा रहा है कि आदिवासी केवल आदिवासी है। यही उसकी अपनी पहचान है। आदिवासियों में वैचारिक टकराव की वजह भी अब धार्मिक होती जा रही है। ऐसे समय में हिंदु—मुस्लिम के नाम पर सांप्रदायिक दंगों से बहुत बड़ा बदलाव राजनैतिक तौर पर देखने को मिल सकता है।
‘बिरनपुर दंगे’ की चिंगारी में यह बदलाव की बयार तलाशने की कोशिशें शुरू हो गई हैं। पर यह सोचने की जरूरत है कि सोशल मीडिया में ‘जेहादी’ हमला स्थापित करने के लिए जनसंख्या के आंकड़ों की ओर नजर घुमाने की कोशिश भी नहीं की जा रही है। ऐसी कौन सी परिस्थतियां हैं कि महज दो से तीन फीसदी आबादी से बहुसंख्य को खतरा दिखाने का काम किया जा रहा है। सांप्रदायिक दंगों की आग में सबकुछ खाक होते देर नहीं लगेगा। यह समझना होगा कि सरकारें तो आएंगी और जाएंगी पर मन पर खिंची असहजता की लकीर समाज के आईने को विभक्त कर देंगी। समय रहते ऐसी विभाजक हरकतों से, ऐसी जघन्य घटनाओं से, इस तरह की शासन और प्रशासन की कमजोरियों से हमें बचना और बचाना होगा!