दक्षिण में #कांग्रेस का अढ़ई साल का फार्मुला कहीं कांग्रेस को फुस्स ना कर दे… तीन राज्यों में फार्मुले का हश्र देखकर तो सीखा जा सकता है…
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सुरेश महापात्र।
पूरे देश में मोदी लहर का दौर है। शहरी आबादी में मोदी की ख्याति का कोई तोड़ अब तक विपक्ष ढूंढ नहीं पाई है। 2023 में पांच राज्यों के चुनाव के बाद 2024 में लोकसभा चुनाव तय है। ऐसे समय में पहले हिमांचल फिर कर्नाटक में कांग्रेस की भारी जीत से कांग्रेस के लिए संजीवनी बूटी सरीका परिणाम माना जा सकता है।
कर्नाटक में कांग्रेस ने सत्तारूढ़ भाजपा को बुरी तरह पराजित किया है। यह परिणाम इसलिए भी बेहद महत्वपूर्ण है कि कांग्रेस पर लगाए जा रहे राजनैतिक तौर पर धार्मिक लांछनों के बीच में कर्नाटक में जहां हिंदु आबादी का पूरा समर्थन कांग्रेस को मिला है। कर्नाटक में चुनाव के दौरान बजरंग दल के प्रतिबंध को लेकर की गई घोषणा को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बजरंगबली की ओर मोड़ दिया।
इस मसले को लेकर उठा विवाद एक बार तो ऐसा दिखने लगा कि इस मसले को लेकर कांग्रेस बेवजह फंस गई है। इसके बाद द केरला स्टोरी को लेकर प्रधानमंत्री का जिस तरह से हमला कांग्रेस पर हुआ उससे भी यह दिखाने की कोशिश हुई कि एक बार फिर हिंदु वोटों का एकत्रीकरण भाजपा की ओर चला जाएगा। पर ऐसा नहीं हुआ।
इसके पीछे सबसे बड़ी वजह रही कर्नाटक में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी पर लग रहे भारी भ्रष्टाचार के आरोप और दूसरी तरफ कर्नाटक कांग्रेस का जमीनी संघर्ष। इस संर्घष को मजबूत करने का काम कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष डीके शिवकुमार ने किया। कर्नाटक में पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार के बीच बीते तीन दिनों से दिल्ली में सीएम पद के लिए दंगल चल रहा है। राजनीतिक तौर पर हर चुनाव के परिणाम के बाद ऐसा होता ही है। क्योंकि जब चुनाव संचालित हो रहे होते हैं तो उसमें हर किसी की मेहनत लगती है। जमीन पर संघर्ष के साथ जूझना होता है।
चाहे भारतीय जनता पार्टी हो या कांग्रेस दोनों के लिए इस तरह की चुनौती कोई नई नहीं है। ये दोनों दल ही फिलहाल पूरे देश में अपनी जमीनी पकड़ के साथ खड़े हैं। शेष अन्य राजनैतिक दलों में इस तरह का कोई विवाद इसलिए भी नहीं है कि या तो वे एक प्रदेश तक सिमटी हुई हैं या परिवार की पार्टी हैं। उसमें किसी के लिए गुंजाइश है ही नहीं।
चाहे सपा हो या राजद, टीएमसी हो या एनसीपी। पर कांग्रेस के साथ ऐसा नहीं है। कांग्रेस पर भले ही परिवारवाद का आरोप भाजपा लगाती है पर इस परिवार से कोई भी किसी राज्य के मुख्यमंत्री के लिए लड़ रहा हो ऐसा फिलहाल कहीं देखने को तो नहीं मिल रहा है। कांग्रेसी ही मानते हैं कि कांग्रेस के भीतर एकजुटता के लिए गांधी परिवार का धुरी बना रहना अनिवार्य है।
दरअसल बात कर्नाटक के चुनाव परिणाम के बाद मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी को लेकर है तो एक बार फिर कांग्रेस इसी मुद्दे पर अनचाहे तरीके से घिरती दिख रही है। यही वह केंद्र है जिसका सीधा नुकसान कांग्रेस को उठाना पड़ रहा है। भारतीय जनता पार्टी ने बीते दस बरस में ना जाने कितने मुख्यमंत्री बदल डाले! कहीं कोई विवाद जमीन पर सिर उठाता नहीं दिखा। इसके पीछे केंद्रीय नेतृत्व की मजबूती सबसे बड़ी वजह है। कांग्रेस के भीतर केंद्रीय नेतृत्व की कमजोरी किसी से छिपी नहीं है। मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस के निर्वाचित अध्यक्ष हैं पर जब वे अपनी ही जुबान से मुख्यमंत्री के नाम पर अंतिम फैसले के लिए हाईकमान का जिक्र करते हैं तो सारा किया धरा विफल हो जाता है।
कर्नाटक चुनाव के बाद शुरूआती दो दिनों मे जो कुछ हुआ वह प्रक्रियात्मक रहा। अध्यक्ष का पर्यवेक्षक भेजना। पर्यवेक्षकों की रिपोर्ट अध्यक्ष को मिलना। विधायकों से राय मशविरा करना। इसके बाद राहुल गांधी का यह कहना कि जिसे विधायकों का समर्थन होगा उसे ही मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी मिलेगी। यानी सब कुछ स्पष्ट सा लग रहा था। इसके बाद दिल्ली में मची आपाधापी से एक बार फिर पार्टी का नुकसान होता दिख रहा है। कर्नाटक के मसले पर एक बार फिर मीडिया में सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार के बीच ढाई—ढाई साल के फुस्स फार्मुले की बात सामने आ रही है।
आपको याद होगा कि 2018 के चुनाव में मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में बहुमत के साथ विजयी कांग्रेस जिस तरह से फिलहाल राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलेट के झंझावत में फंसी है उससे राजस्थान में कांग्रेस को कितना नुकसान पहुंचेगा यह कोई भी समझ सकता है। छत्तीसगढ़ में जून 2022 के बाद स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव के साथ खुले तौर पर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की खींचतान लंबे समय तक चलती रही। सिंहदेव कमजोर नेता साबित हुए सो भूपेश सीएम के पद पर अडिग रहे।
मध्यप्रदेश में कमलनाथ की सरकार के दौरान जिस तरह से ज्योतिरादित्य सिंधिया के माध्यम से भाजपा ने सेंधमारी की यह बात किसी से छिपी नहीं है। मध्यप्रदेश में कमलनाम, दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य की तिकड़ी कांग्रेस के लिए मजबूती के साथ खड़ी थी पर कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व कमजोर होने के कारण किसी के साथ भी सही न्याय नहीं कर सका। कम से कम कांग्रेस के साथ न्याय करने में जो चूक हुई उसका परिणाम सबके सामने है।
राजस्थान में सचिन पायलेट लगातार हमलावर हैं। किसी राज्य का मुख्यमंत्री यानी राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने जिस तरह से कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को छकाया उसे देखने के बाद कोई भी यह नहीं मान सकता कि राजस्थान में केंद्रीय नेतृत्व एक कदम भी गहलोत की इच्छा के बगैर उठाने में काबिल हैं।
मजेदार बात तो यह है कि कांग्रेस अध्यक्ष पद के मामले में अशोक गहलोत ने जिस तरह की पटखनी दी उसके बाद कांग्रेस हाईकमान की जितनी फजीहत होनी थी हो चुकी है। वर्तमान अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे स्वयं राजस्थान में पर्यवेक्षक के तौर पर पहुंचे थे। पर विधायकों के साथ बैठक के दौरान सीएम अशोक गहलोत ने उन्हें धता बता दिया। उनकी रिपोर्ट में गहलोत पर गंभीर आरोप थे।
इसके बाद जब मल्लिकार्जुन खड़गे ने अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी संभाली तो एक बारगी यह लगा कि अब तो गहलोत बुरी तरह फंस गए हैं पर एक मुख्यमंत्री के सामने कांग्रेस का आला संगठन निष्प्रभावी स्थापित हुआ। छत्तीसगढ़ में राहुल गांधी का वचन विफल हुआ। तो अब किस बिना पर कर्नाटक में फुस्स फार्मुले की आड़ में कांग्रेस अपनी साख बचाने का इंतजाम कर रही है।
कांग्रेस को यदि मजबूत दिखाना है तो उसे मजबूत इच्छाशक्ति के साथ ही खड़ा रहना होगा। राजनीति में हमेशा बीच का रास्ता ही सही रास्ता नहीं होता है। यह समझना होगा। यदि कर्नाटक के मामले में कांग्रेस की ओर से कोई भी गलती होगी तो आने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को भारी नुकसान महज केंद्रीय नेतृत्व की कमजोरी के कारण उठाना पड़ सकता है।
यानी आसानी से समझा जा सकता है कि दक्षिण में कांग्रेस का अढ़ई साल का फार्मुला घातक साबित होगा। यह कहीं कांग्रेस को ही फुस्स ना कर दे… इसके लिए अपने जीते हुए तीन राज्यों में इस फार्मुले का हश्र देखकर तो कांग्रेस सीख ही सकती है। यही कांग्रेस यह समझ रही है कि कर्नाटक में भाजपा के खिलाफ हिंदु मतों का उनके पक्ष में मतदान राजनैतिक जीत है तो यह बड़ी भूल है। वहां भ्रष्टाचार के खिलाफ जनादेश है जिसमें आम मतदाताओं ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक को नकार दिया। इसका मतलब साफ है कि कांग्रेस ऐसे नेतृत्व को पूर्ण अवसर दे जिस पर आम जनों का भरोसा है ना कि राजनैतिक तुष्टीकरण…!